रात को जब उसे पटलडाँगा के डेरे पर छोड़ कर महेंद्र अपने कपड़े और किताबें लाने घर चला गया, तो कलकत्ता के अविश्राम जन-स्रोत की हलचल में अकेली बैठी विनोदिनी अपनी बात सोचने लगी। दुनिया में पनाह की जगह काफी तो उसे कभी भी न थी, इतनी जरूर थी कि अगर एक ओर गरम हो जाए, तो दूसरी तरफ करवट बदल कर सो सके। आज लेकिन निर्भर करने की जगह निहायत सँकरी हो गई थी। जिस नाव पर सवार हो कर वह प्रवाह में बह चली है, उसके दाएँ-बाएँ किसी भी तरफ जरा झुक जाने से पानी में गिर पड़ने की नौबत। लिहाजा बड़ी सावधानी से पतवार पकड़नी थी - जरा-सी चूक, जरा-सा हिलना-डुलना भी मुहाल। ऐसी हालत में भला किस औरत का कलेजा नहीं काँपता। पराए मन को मुट्ठी में रखने के लिए जिस चुहल की जरूरत है, जितनी ओट चाहिए, इस सँकरेपन में उसकी गुंजाइश कहाँ! महेंद्र के एकबारगी आमने-सामने रह कर सारी जिंदगी बितानी पड़ेगी। फर्क इतना ही है कि महेंद्र के किनारे लगने की गुंजाइश है, विनोदिनी के लिए वह भी नहीं।

अपनी इस असहाय अवस्था को वह जितना ही समझने लगी, उतना ही उसे बल मिलने लगा। कोई-न-कोई उपाय करना ही पड़ेगा, ऐसे काम नहीं चलने का।

बिहारी को प्रेम-निवेदित करने के दिन से ही विनोदिनी के धीरज का बाँध टूट गया था। अपने जिस उमगे हुए चुंबन को वह उसके पास लौटा कर ले आई, संसार में और किसी के पास उसे उतार कर नहीं रख सकती। पूजा के चढ़ावे की तरह देवता के लिए उसे रात-दिन ढोने के सिवा कोई रास्ता नहीं है। उसका मन कभी हथियार डाल देना नहीं जानता, निराशा वह नहीं मानती। उसका मन बार-बार उससे कह रहा था - 'यह पूजा बिहारी को कबूल करनी ही पड़ेगी।'

उसके इस अदम्य प्रेम से उसकी आत्म-रक्षा की आकांक्षा आ कर मिल गई। बिहारी के सिवाय उसके पास और कोई चारा नहीं। महेंद्र को उसने अच्छी तरह समझ लिया था। उस पर टिकना चाहो तो वह भार नहीं सह सकता - छोड़ने पर ही उसे पाया जा सकता है - पकड़ना चाहो कि भाग खड़ा होना चाहता है। लेकिन औरत के लिए जिस एक निश्चिंत, विश्वासी सहारे की नितांत आवश्यकता है, वह सहारा बिहारी ही दे सकता है। अब बिहारी को छोड़ने से उसका काम हर्गिज नहीं चल सकता।

यह सोच कर उसने खिड़की खोली और गैस की रोशनी से दमकते शहर की ओर देखने लगी, बिहारी अभी साँझ को इस शहर में ही है, यहाँ से एकाध रास्ते, दो-चार गलियाँ पार करके अभी-अभी उसके दरवाजे पर मजे में पहुँचा जा सकता है। द्वार के बाद ही नल वाला छोटा-सा अँगना, वही सीढ़ी, वही सजा-सजाया कमरा - सन्नाटे में बिहारी आराम-कुर्सी पर अकेला बैठा - शायद सामने खड़ा ब्राह्मण का वह लड़का, गोल-मटोल, गोरा-गोरा सुंदर-सा वह लड़का नजर गड़ाये तस्वीरों वाली किसी किताब के पन्ने पलट रहा हो - एकाएक सारे चित्र को सुधि में ला कर स्नेह से, प्रेम से विनोदिनी का सर्वांग पुलकित हो उठा। जी चाहे तो अभी वहाँ पहुँच जाया जा सकता है। यह सोच कर विनोदिनी इस इच्छा को छाती से लगाए खेलने लगी। पहले की बात होती, तो शायद वह अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए लपक पड़ती, लेकिन अब आगे-पीछे बहुत सोचना पड़ता है। अब तो महज वासना पूरी करने का सवाल नहीं रहा, उद्देश्य की पूर्ति करनी है। विनोदिनी सोचने लगी - 'पहले यह देखूँ कि बिहारी जवाब क्या देता है, उसके बाद तय करूँगी कि किस रास्ते जाना है।' कुछ समझे बिना बिहारी को तंग करने के लिए जाने की हिम्मत न पड़ी।

इसी तरह सोचते-विचारते जब रात के नौ बज गए तो महेंद्र लौट कर आ गया। ये कई दिन उसे भूखे-प्यासे, बदपरहेजी और उत्तेजना में कटे। आज कामयाब हो कर विनोदिनी को वह अपने डेरे में ले आया; इसीलिए थकावट से मानो चूर-चूर हो गया। दुनिया से, अपने मन की हालत से लड़ने लायक बल उसमें नहीं रह गया था। भारों से लदे उसके भावी जीवन की थकावट ने मानो पहले से ही उसे दबोच लिया।

बाहर से दरवाजे के कड़े खटखटाने में महेंद्र को बड़ी शर्म लगने लगी। जिस पागलपन में दुनिया का कोई खयाल ही न किया, वह पागलपन कहाँ! रास्ते के अचीन्हे-अजाने लोगों की नजर के सामने भी उसका सर्वांग सकुचा क्यों रहा है?

अंदर नया नौकर सो गया था। दरवाजा खुलवाने के लिए बड़ा हंगामा करना पड़ा। अपरिचित नए डेरे के अँधेरे में पहुँचाने पर महेंद्र का मन ढीला पड़ ही गया। माँ का लाड़ला महेंद्र जिन विलास-उपकरणों - पंखे, कुर्सी, सोफे - का आदी रहा है, उसका अभाव यहाँ साफ दिख गया। इन कमी-खामियों को मिटाना ही पड़ेगा। डेरे के सारे इंतजाम का भार उसी पर था। महेंद्र ने आज तक कभी अपने या किसी के आराम के फिक्र नहीं की - आज से उसे एक नए और अधूरे संसार का तीली-तीली भार उठाना। सीढ़ी पर एक ढिबरी धुआँ उगलती हुई टिमटिमा रही थी; वहाँ के लिए एक लैंप लाना पड़ेगा। बरामदे से सीढ़ी को जाने वाला रास्ता नल के पानी से चिपचिपाता रहता, मिस्त्री बुला कर सीमेंट से उसकी मरम्मत करानी पड़ेगी। सड़क की तरफ के दो कमरे जूतों की दुकान वालों के जिम्मे थे, उन्होंने अभी तक उन्हें खाली नहीं किया - मकान-मालिक से इसके लिए लड़ेगा। सारा काम खुद ही करना पड़ेगा - लम्हे-भर में यह बात दिमाग में आई और उसकी थकावट के भार पर और भी बोझ लद गया।

सीढ़ी पर कुछ देर खड़े रह कर महेंद्र ने अपने को सँभाल लिया - विनोदिनी के प्रति जो प्रेम था, उसे उभारा। अपने-आपको समझाया कि आज तक सारी दुनिया को भूल कर उसने जो चाहा था, वह मिल गया - दोनों के बीच अब अड़चन की कोई दीवार नहीं - आज तो महेंद्र की खुशी का दिन है। कोई अड़चन नहीं थी - लेकिन सबसे बड़ी अड़चन यही थी- आज वह आप ही अपनी बाधा था।

रास्ते में महेंद्र को देख कर विनोदिनी ध्यान के आसन से उठी। कमरे में रोशनी जलाई। सिलाई का काम ले कर नजर झुकाए बैठ गई। सिलाई उसकी एक ओट थी। उसकी आड़ में मानो उसका एक आश्रय था।

कमरे में आ कर महेंद्र बोला - 'यहाँ, जरूर तुम्हें बड़ी असुविधा हो रही है, विनोद!'

अपनी सिलाई में लगी-लगी बोली - 'बिलकुल नहीं।'

महेंद्र बोला - 'दो ही तीन दिनों में मैं सारा सामान ले आऊँगा। कुछ दिन तुम्हें थोड़ी तकलीफ होगी।'

विनोदिनी बोली - 'नहीं, वह न होगा - तुम अब एक भी सामान और न लाओ - जो है, वही मेरी जरूरत से कहीं ज्यादा है।'

महेंद्र ने कहा - 'मैं अभागा भी क्या उससे कहीं ज्यादा में हूँ?'

विनोदिनी - 'अपने को उतना ज्यादा लगाना ठीक नहीं, कुछ विनय रहनी चाहिए।'

दीये की जोत में सूने कमरे में सिर झुकाए विनोदिनी की उस आत्म-तल्लीन मूर्ति को देख कर महेंद्र के मन में फिर उसी मोह का संचार हुआ।

घर में होता तो दौड़ कर विनोदिनी के पैरों में गिर पड़ता - मगर यह घर तो था नहीं, इसलिए वैसा न कर सका। आज विनोदिनी बड़ी बेचारी थी, बिलकुल महेंद्र की मुट्ठी में- आज अपने को संयत न रखे तो बड़ी कायरता होगी।

विनोदिनी ने कहा - 'अपने किताब-कपड़े यहाँ क्यों ले आए?'

महेंद्र ने कहा - 'उन्हें मैं अपने लिए जरूरी सामान मानता हूँ- वे कहीं ज्यादा वाले वर्ग में नहीं हैं...'

विनोदिनी - 'मालूम है, मगर यहाँ क्यों?'

महेंद्र - 'ठीक है, आवश्यक चीजें यहाँ नहीं सोहतीं - विनोद, इन किताबों-विताबों को उठा कर रास्ते पर फेंक देना, मैं चूँ भी न करूँगा - केवल उनके साथ मुझे भी मत उठा फेंकना।'

इतना कह कर महेंद्र थोड़ा खिसक आया और कपड़ों में बँधी किताबों की गाँठ को विनोदिनी के पैरों के पास रख दिया।

उसी गंभीर भाव से सिलाई करती हुई विनोदिनी बोली - 'भाई साहब, तुम यहाँ नहीं रहोगे।'

अपने उठते हुए आग्रह पर चोट पा कर महेंद्र व्याकुल हो उठा। गदगद स्वर में बोला - 'क्यों, तुम मुझे दूर क्यों रखना चाहती हो? तुम्हारे लिए सब-कुछ छोड़ने का यही पुरस्कार है?'

विनोदिनी - 'अपने लिए मैं तुम्हें सब-कुछ न छोड़ने दूँगी।'

महेंद्र कह उठा- 'अब वह तुम्हारे हाथ की बात नहीं - सारी दुनिया मेरी चारों तरफ से खिसक पड़ी है - बस, एक तुम हो - तुम विनोद...'

कहते-कहते विह्वल हो कर महेंद्र लौट पड़ा और विनोदिनी के पैरों को पकड़ कर उन्हें बार-बार चूमने लगा।

पाँव छुड़ा कर विनोदिनी उठ खड़ी हुई। बोली - 'याद नहीं, तुमने क्या प्रतिज्ञा की थी?'

सारी शक्ति लगा कर महेंद्र ने अपने को जब्त किया। कहा - 'याद है मैंने शपथ ली थी कि तुम जो चाहोगी वही होगा, मैं कभी कोई एतराज न करूँगा। उस शपथ को मैं रखूँगा। बताओ, मुझे क्या करना है?'

विनोदिनी - 'तुम अपने घर पर रहोगे।'

महेंद्र - 'एक मैं ही क्या तुम्हारी अनिच्छा की वस्तु हूँ, विनोद! अगर यही बात है तो तुम मुझे खींच क्यों लाई? जो तुम्हारे भोग की चीज न थी, उसके शिकार की क्या जरूरत पड़ी थी? सच-सच बताओ, मैंने स्वेच्छा से तुम्हें पकड़ लि‍या या तुमने जान कर मुझे पकड़ा? मुझसे तुम इस तरह खिलवाड़ करोगी और यह भी मुझे सहना पड़ेगा? फिर भी अपनी शपथ मैं रखूँगा, जिस घर को मैं लात मार कर आया, वहीं जा कर रहूँगा।'

विनोदिनी जमीन पर बैठी फिर से सिलाई में जुट गई।

कुछ देर तक उसके मुँह की ओर एकटक देख कर महेंद्र बोल उठा - 'बेरहम! निर्दयी हो तुम, विनोद! मैं बड़ा ही अभागा हूँ कि मैंने तुम्हें प्यार किया।'

विनोदिनी से सिलाई में कोई गलती हो गई। रोशनी के पास बड़ी मेहनत से वह धागे को खोजने लगी। महेंद्र के जी में आ रहा था कि विनोदिनी के संगदिल को अपनी मुट्ठी में ले कर पीस डाले। उसकी इस मौन निर्दयता और अडिग उपेक्षा को धक्का दे कर बाहु-बल से शिकस्त देने को जी चाह रहा था।

महेंद्र बाहर निकला और फिर-फिर लौट आया। बोला - 'मैं न रहूँगा तो यह तुम्हारी हिफाजत कौन करेगा?'

विनोदिनी - 'उसकी तो तुम फिक्र ही न करो। बुआ ने उस छमिया नौकरानी को जवाब दे दिया है। आज से वह यहीं रहेगी। अंदर से घर बंद करके हम दोनों मजे में यहाँ रह लेंगी।'

भीतर-भीतर उस पर जितना ही गुस्सा आने लगा, विनोदिनी के लिए उसका उतना ही जबरदस्त खिंचाव होने लगा। उस टस से मस न होने वाली मूरत को वज्र की ताकत से छाती से चिपका कर चूर-चूर कर देने की इच्छा होने लगी। अपनी उस प्रबल इच्छा के हाथों से छुटकारा पाने के लिए महेंद्र दौड़ कर कमरे से बाहर चला गया।

रास्ते से जाते हुए महेंद्र प्रतिज्ञा करने लगा, उपेक्षा के बदले में वह विनोदिनी की उपेक्षा ही करेगा। संसार में महेंद्र के सिवाय अब विनोदिनी का और कोई सहारा नहीं, ऐसी हालत में भी इस निडरता और अडिगता से उसे ठुकराना - किसी मर्द के नसीब में ऐसा भी अपमान कभी हुआ है। महेंद्र का गर्व चूर-चूर हो कर भी मटियामेट न हुआ - पीड़ित और दलित होता रहा। वह सोचने लगा - 'ऐसा नाचीज हूँ मैं! मेरे लिए ऐसी स्पर्धा उसके मन में कैसे आई? मेरे सिवाय इस समय उसका और है कौन?'

सोचते-सोचते अचानक याद आ गया - 'बिहारी'। सहसा उसके कलेजे का रक्त-प्रवाह थम गया। बिहारी को ही उसने अपना भरोसा माना है - मैं तो उपलक्ष्य-मात्र हूँ, उसकी सीढ़ी हूँ, पैर रखने की, कदम-कदम पर ठोकर मारने की जगह। इसी साहस पर मेरी ऐसी अवज्ञा।

महेंद्र को शंका हुई कि विनोदिनी से बिहारी की चिट्ठी-पत्री चलती होगी और इसे कोई भरोसा मिला होगा।

सोचा और उसी दम वह बिहारी के घर की ओर चल पड़ा।जब उसके घर पहुँचा, तो रात नहीं के बराबर बाकी रह गई थी। बड़ी मुश्किल से दरवाजा पीटते-पीटते बैरे ने दरवाजा खोल कर बताया - 'बाबूजी घर पर नहीं हैं।'

महेंद्र चौंक उठा। सोचा, 'मैं इधर नासमझ की तरह मारा-मारा फिर रहा हूँ और इस मौके का फायदा उठा कर बिहारी विनोदिनी के पास गया है। इसीलिए उसने इस बेरहमी से मेरा अपमान किया और मैं भी मार कर भगाए गए गदहे की तरह भाग आया।'

महेंद्र ने उस जाने-पहचाने पुराने बैरे से पूछा -'भज्जो, मालिक तुम्हारे घर से किस वक्त निकले हैं?'

भज्जो ने कहा - 'जी, चार-पाँच दिन हो गए। पछाँह की ओर कहीं घूमने गए हैं।'

महेंद्र की मानो जान में जान आई। जी में आया, 'अब आराम से थोड़ी देर सो लूँ। तमाम रात भटकते रहने की अब हिम्मत नहीं है।'

वह ऊपर गया और बिहारी के कमरे में सोफे पर सो गया।

जिस रात महेंद्र ने बिहारी के घर जा कर ऊधम मचाया, उसके दूसरे ही दिन बिना कुछ तय किए बिहारी न जाने कहाँ चला गया। उसने सोचा, 'यहाँ रहने से जाने कब अपने दोस्त से ऐसा घिनौना संघर्ष हो जाए कि जन्म-भर पछताना पड़े।'

दूसरे दिन महेंद्र जगा तो ग्यारह बज चुके थे। उठते ही उसकी निगाह सामने की तिपाई पर पड़ी। देखा, बिहारी का एक पत्र पड़ा था। ठिकाने के हरफ विनोदिनी के थे। लिफाफा पत्थर के पेपर-वेट से दबा था। महेंद्र ने झपट कर उसे उठा लिया। लिफाफा खोला नहीं गया था। प्रवासी बिहारी के इंतजार में बंद पड़ा था। काँपते हाथों से महेंद्र ने उसे फाड़ डाला और पढ़ने लगा। यही चिट्ठी विनोदिनी ने अपने गाँव से बिहारी को भेजी थी, जिसका उसे कोई जबाव नहीं मिला था।

चिट्ठी का एक-एक अक्षर महेंद्र को काटने लगा। छुटपन से सदा ही बिहारी महेंद्र की ही ओट में पड़ा था। प्रेम-स्नेह के नाते महेंद्र देवता के गले की उतरी माला ही उसे नसीब हुआ करती। आज महेंद्र स्वयं प्रार्थी तथा बिहारी-विमुख था, फिर भी विनोदिनी ने महेंद्र को ठुकरा कर बिहारी को अपनाया। विनोदिनी की चिट्ठियाँ महेंद्र को भी दो-चार मिली थीं, मगर इसके मुकाबले वे निरी नकली हैं, नासमझ को फुसलाने का बहाना!

अपना नया ठिकाना बताने के लिए महेंद्र को गाँव के डाकखाने में भेजने की व्याकुलता महेंद्र को याद आई और अब उसका कारण उसकी समझ में आया। विनोदिनी बिहारी के पत्र का बेसब्री से इंतजार कर रही है।

जैसा कि पहले किया करता था, मालिक की गैरहाजिरी में भज्जो ने महेंद्र को बाजार से ला कर चाय-नाश्ता दिया। नहाना महेंद्र भूल गया। तभी जैसे रेत पर राही जल्दी-जल्दी कदम उठा कर चलता है, उसी तरह विनोदिनी की जलाने वाली चिट्ठी पर वह तेजी से नजर दौड़ाने लगा। वह प्रतिज्ञा करने लगा कि विनोदिनी से अब हर्गिज भेंट न करूँगा। फिर मन में आया, 'और दो-एक दिन में जब उसे बिहारी का जवाब न मिलेगा, तो वह बिहारी के यहाँ आएगी और तब सारा हाल जान कर उसे तसल्ली होगी।' यह संभावना महेंद्र के लिए असह्य हो गई।

आखिर उस पत्र को अपनी जेब में डाल कर वह पटलडाँगा पहुँचा। महेंद्र की यह गत देख कर विनोदिनी को दया आ गई। वह समझ गई - हो न हो तमाम रात वह रास्ते के ही चक्कर काटता रह गया है। पूछा - 'रात घर नहीं गए?'

महेंद्र ने कहा - 'नहीं।'

विनोदिनी ने परेशान हो कर पूछा - 'अभी तक खाया-पिया भी नहीं क्या?' कह कर सेवा-परायणा विनोदिनी ने उसके खाने का इंतजाम करना चाहा।

महेंद्र बोला - 'रहने दो, मैं खा चुका हूँ।'

विनोदिनी - 'कहाँ खाया?'

महेंद्र - 'बिहारी के यहाँ।'

पल भर के लिए विनोदिनी का चेहरा पीला पड़ गया। जरा देर चुप रह कर उसने अपने को सँभाला और पूछा - 'बिहारी बाबू कुशल से तो हैं न?'

महेंद्र बोला - 'कुशल से ही है। वह तो पछाँह चला गया।' महेंद्र ने कुछ इस लहजे से कहा मानो बिहारी आज ही गया है।

विनोदिनी का चेहरा फिर एक बार पीला पड़ गया। फिर अपने को सँभाल कर बोली - 'ऐसा डाँवाडोल आदमी तो मैंने नहीं देखा। उन्हें हम लोगों का सारा हाल मालूम पड़ गया है? खूब नाराज हो गए हैं क्या?'

महेंद्र - 'नाराज न हुआ होता तो इस शिद्दत की गर्मी में भी कोई भला आदमी पछाँह घूमने जाता है!'

विनोदिनी - 'मेरे बारे में कुछ कहा?'

महेंद्र - 'कहने को क्या है। यह उसकी चिट्ठी लो!'

चिट्ठी उसके हाथ में दे कर महेंद्र तीखी नजर से उसके मुँह के भाव पर गौर करने लगा।

विनोदिनी ने झट से चिट्ठी ले कर देखी, खुली थी वह। लिफाफे पर उसी के हरफ में बिहारी का नाम लिखा था। अंदर से चिट्ठी निकाली। वह उसी की लिखी वही चिट्ठी थी। उलट कर देखा, बिहारी का जवाब तो कहीं न मिला।

थोड़ी देर चुप रह कर विनोदिनी ने पूछा - 'यह चिट्ठी तुमने पढ़ी है?'

विनोदिनी के चेहरे के भाव से महेंद्र को डर लगा। वह झूठ बोल गया - 'नहीं।'

विनोदिनी ने चिट्ठी फाड़ डाली। उसके टुकड़े-टुकड़े किए और खिड़की से बाहर फेंक दिए।

महेंद्र बोला - 'मैं घर जा रहा हूँ।'

विनोदिनी ने कोई जवाब न दिया।

महेंद्र - 'तुमने जैसा चाहा है, मैं वैसा ही करूँगा। सात दिन मैं वहीं रहूँगा। कॉलेज आते समय रोज नौकरानी की मार्फत यहाँ का सारा प्रबंध कर जाया करूँगा। तुमसे भेंट करके तुम्हें आजिज न करूँगा।'

विनोदिनी महेंद्र की कोई बात सुन भी पाई या नहीं, कौन जाने, मगर उसने कोई जवाब न दिया। खुली खिड़की से बाहर अँधेरे आसमान को ताकती रही।

अपनी चीजें उठा कर महेंद्र वहाँ से निकल पड़ा।

सूने कमरे में विनोदिनी बड़ी देर तक काठ की मारी-सी बैठी रही और अंत में मानो जी-जान से अपने को सजग करने के लिए छाती का कपड़ा फाड़ कर अपने पर बेरहमी से चोट करने लगी।

आवाज पा कर नौकरानी दौड़ी आई - 'दादी जी, क्या कर रही हैं?'

'तू चली जा यहाँ से'- डपट कर विनोदिनी ने छमिया को कमरे से बाहर निकाल दिया। उसके बाद जोरों से किवाड़ बंद करके दोनों हाथों से मुट्ठी बाँध कर जमीन पर लोट गई - तीर खाए जानवर जैसी रोने लगी। अपने को इस तरह विक्षत और श्रांत बना कर विनोदिनी रात-भर खिड़की के पास नीचे पड़ी रही।

सुबह जैसे ही सूरज की किरणें कमरे में आईं, विनोदिनी को अचानक ऐसा लगा, बिहारी गया नहीं होगा, कहीं उसे चकमा देने के लिए महेंद्र ने यों ही झूठ कह दिया हो। उसने छमिया को बुला कर कहा - 'छम्मी, तू फौरन जरा बिहारी भाई साहब के यहाँ जा उन लोगों का हाल पूछ आ।'

छमिया कोई घंटे-भर बाद लौट कर बोली - 'उनके घर के सारे खिड़की-दरवाजे बंद हैं। दरवाजा पीटने पर अंदर से बैरा निकला। बोला - 'वे घर पर नहीं हैं। वे घूमने के लिए पछाँह गए हैं'।'

विनोदिनी के संदेह का कोई कारण ही न रहा।

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