आशा ने एक दिन अन्नपूर्णा से पूछा - 'अच्छा मौसी, मौसा जी तुम्हें याद आते हैं?'

अन्नपूर्णा बोलीं - 'महज ग्यारह साल की उम्र में मैं विधवा हुई, पति की सूरत मुझे छाया-सी धुँधली याद है।'

आशा ने पूछा - 'फिर तुम किसकी बात सोचती हो?'

अन्नपूर्णास हँस कर बोलीं - 'अब मैं उन भगवान की याद करती हूँ जिनमें मेरे पति हैं।'

आशा ने पूछा - 'इससे तृप्ति होती है?'

स्नेह से आशा के माथे पर हाथ फेरते हुए अन्नपूर्णा ने कहा - 'मेरे मन की तू क्या समझेगी, बिटिया!'

आशा अपने मन में सोचने लगी - 'और मैं जिनकी बात आठों पहर सोचा करती हूँ, वे क्या मेरे मन की नहीं जानते! मैं ठीक से चिट्ठी नहीं लिख सकती, इसीलिए उन्होंने मुझे पत्र लिखना बंद क्यों कर दिया?'

इधर कुछ दिनों से उसे महेंद्र की चिट्ठी नहीं मिली। एक उसाँस ले कर आशा ने मन में सोचा - 'इस वक्त मेरी आँख की किरकिरी पास रही होती, तो मेरे मन की बात चिट्ठी में ठीक-ठीक लिख देती।'

'अच्छी तरह से न लिखी गई चिट्ठी का कोई मोल पति के लिए न होगा', यह सोच कर आशा ने चिट्ठी नहीं लिखी। जितना ही जतन से लिखना चाहती, उतना ही चिट्ठी बिगड़ जाती। मन की बातों को जितना ही सुलझा-सहेज कर लिखना चाहती, उसकी पंक्तियाँ पूरी न पड़तीं। अगर सिर्फ एक शब्द 'मेरे देवता' लिखने से ही अंतर्यामी की नाईं महेंद्र सब कुछ समझ सकता, तो आशा का पत्र लिखना सार्थक हो सकता था। ईश्वर ने प्रेम दिया है, थोड़ी-सी भाषा क्यों न दी?

संध्या की आरती के बाद अन्नपूर्णा मन्दिर से लौटीं, तो आशा धीरे-धीरे उनके पैर सहलाने लगी। बड़ी देर तक सन्नाटा रहा। उसके बाद आशा बोली - 'अच्छा मौसी, तुम तो कहती हो कि देवता के समान पति की सेवा करना स्त्री का धर्म है, लेकिन जो स्त्री मूर्ख हो, जिसे बुद्धि न हो, जिसे यह न मालूम हो कि पति की सेवा कैसे करनी चाहिए, वह क्या करे?'

अन्नपूर्णा देर तक आशा की ओर देखती रहीं। एक लंबी साँस छोड़ कर बोलीं - 'मूर्ख तो मैं भी हूँ बिटिया, मगर फिर भी तो भगवान की सेवा करती हूँ।'

आशा ने कहा - 'भगवान तो तुम्हारे मन को समझते हैं, तभी वे खुश होते हैं। लेकिन यों समझो, स्वामी अगर मूर्ख स्त्री की सेवा से संतुष्ट न हो?'

अन्नपूर्णा ने कहा - 'सबको खुश करने की शक्ति सबमें नहीं होती, बेटी। लेकिन स्त्री अगर तहेदिल से श्रद्धा और भक्तिपूर्वक पति की सेवा और गृहस्थी के काम करती है, तो पति चाहे नाचीज समझ कर उसे ठुकरा दे, स्वयं जगदीश्वर जतन से उसे चुन लेते हैं।'

जवाब में आशा चुप रही। मौसी द्वारा दी गई सांत्वना को उसने अपनाने की बहुत कोशिश की, लेकिन यह बात उसके दिमाग में हर्गिज न बैठ सकी कि पति जिसे नाचीज समझ कर ठुकरा देंगे, उसे जगदीश्वर सार्थक कर सकेंगे। वह सिर झुकाए मौसी के पाँव सहलाती रही।

अन्नपूर्णा ने इस पर आशा को अपने और करीब खींच लिया। उसके माथे को चूमा। रुँधे कंठ को बलपूर्वक खोल कर बोली - 'चुन्नी, तकलीफ झेल कर जीवन में जो सबक सीखा जा सकता है, केवल सुन कर वह संभव नहीं। तेरी इस मौसी ने भी तेरी उम्र में संसार से लेन-देन का बहुत बड़ा नाता जोड़ लिया था। उस समय मेरे भी जी में तेरी ही तरह होता था कि जिसकी मैं सेवा करूँगी, वह आखिर संतुष्ट क्यों न होगा। जिसकी पूजा करूँगी, उसका प्रसाद भला क्यों न मिलेगा? जिसके भले की करूँगी, वह मेरी चेष्टा को भली क्यों न समझेगा? लेकिन हर कदम पर देखा, वैसा होता नहीं है। और अंत में एक दिन दुनिया को छोड़ कर चली आई। और आज यह पा रही हूँ कि मेरा कुछ भी बेकार नहीं हुआ। असल में बिटिया जिससे लेन-देन का सही संबंध है, जो संसार की इस पैठ के असली महाजन हैं, वही मेरा सब कुछ स्वीकार कर रहे हैं, आज मेरे अंतर में बैठ कर उन्होंने यह बात कबूल की है। काश! तब यह जानती होती! अगर संसार के कर्म को उनका समझ कर करती, उन्हीं को दे रही हूँ - यह समझ कर संसार को अपना हृदय देती तो फिर कौन था जो मुझे दु:ख दे सकता है!'

बिस्तर पर पड़ी-पड़ी आशा बड़ी रात तक बहुत बातें सोचती रही। लेकिन तो भी ठीक-ठीक कुछ न समझ सकी।

आशा के बड़े चाचा के लौट जाने का दिन आया। जाने के पहले दिन शाम को अन्नपूर्णा ने आशा को अपनी गोदी में बिठा कर कहा - 'चुन्नी, मेरी बिटिया, संसार के शोक-दु:ख से सदा तुझे बचाते रहने की शक्ति मुझमें नहीं है। मेरा इतना ही कहना है कि जहाँ भी, जितना भी कष्ट क्यों न मिले, अपने विश्वास, अपनी भक्ति को दृढ़ रखना, तेरा धर्म जिससे अटूट रहे।'

आशा ने उनके चरणों की धूल ली। बोली - 'आशीर्वाद दो मौसी! ऐसा ही हो।'

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