किसी ताल की गहराई में

कछुआ एक रहा करता।

बैठे-बैठे ऊब गया मन

जब उस बेचारे का इक दिन,

ताल किनारे सूखी धरती पर

पहुँचा चलता फिरता।

भूली भटकी एक लोमड़ी

वहाँ कहीं से आ निकली,

उस कछुए को देख झपट कर

यह दबोच बैठी, खप्पर पर

खट खट दाँत लडाए नाहक,

उस की आशा नहीं फली।

हार मान कर उसने पूछा-

 'क्यों जी, ऐ कछुए महराज!

मुश्किल है तुमको खा जाना

ज्यों लोहे के चने चबाना!'

कछुआ बोला-'घूम धूप में

थोड़ा सूख गया हूँ आज!

तनिक भिंगो दो तो पानी में

मालपुए सा बन जाऊं।

कहा लोमड़ी ने-'अच्छा जी!

रहने दो अपनी चालाकी,

इतनी बुद्धू मैं नहीं कि जो

तेरे चकमे में आऊँ!"

कछुआ बोला-'अपने पंजे

मुझ पर धर दावे रहना!

फिर मैं किधर खिसक पाऊँगा?

 कैसे तुम को धोखा दूँगा ?"

कहा लोमड़ी ने अपने मन में-

'सच है इस का कहना!"

उस ने त्यों ही किया

और फिर थोड़ी देर बाद पूछा—

क्यों जी? बोलोतो, अब तक तुम

क्या हो पाए नहीं मुलायम"

'थोडी कसर रह गई है जो!"

धीरे से बोला कछुआ।

 'अपना पंजा जरा हटा लो

तो वह हो जाए पूरी!"

कहा लोमड़ी ने मन में हँस—

'कछुए का कहना सच है! बस,

पंजा हटा लिया, कछुए की

दूर हुई सब मजबूरी।

खिसक गया गहरे पानी में,

रही लोमड़ी पछताती-

बोलो तो, प्यारे बच्चो सब!

क्या सीखा इससे तुमने अब ?

सुन लो, सदा बेवकूफों के

सिर पर ही विपदा आती!

 

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