प्रतापी राजा नहुष के छः पुत्र थे-यति, ययाति, संयापि, आयति, वियात और कृति। राजा नहुष बड़े पुत्र यति को राज्यभार देना चाहते थे, पर वह वीतराग निकला। इन्द्र पत्नी शची से सहवास की कुचेष्टा से ब्राह्मण ने इन्द्र पद पाये राजा नहुष को इन्द्र पद से च्युत कर अजगर बना दिया था। ऐसे राजा के पद पर ययाति बैठे। चारों भाइयों को चारों दिशाओं में नियुक्त कर दिया। क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से राजा ययाति का विवाह हुआ। राजनीति के सेतु से होकर भोग से योग का अद्भुत इतिहास है राजा ययाति का जीवन। दैत्यराज वृषपर्वा की मानिनी कन्या शर्मिष्ठा थी। एक दिन अपनी गुरुपुत्री देवयानी और हजारों सखियों के साथ एक सुन्दर उद्यान में घूमने शर्मिष्ठा गयी। वहाँ सरोवर में जलक्रीड़ा सबने की। भूलवश शर्मिष्ठा ने देवयानी के वस्त्र पहन लिये अपना समझकर। देवयानी क्रोधित होकर बोली-'एक तो तेरा पिता असुर, फिर हमारा शिष्य! हम हैं ब्राह्मण श्रेष्ठ भृगुवंशी और हमारे पवित्र वस्त्र तूने पहन लिये?' दैत्यकन्या शर्मिष्ठा नागिन की तरह फूत्कारती देवयानी के पहने वस्त्र छीनकर उसे कुएं में धकेल दी और सारी सहेलियों के साथ चलती बनी। देवयानी दुःखी होकर रोने लगी कुएँ में पड़ी नग्न शरीर! शर्मिष्ठा के जाने के बाद संयोगवश उधर से राजा ययाति निकले। प्यासे वे कुएँ में झाँके तो देवयानी दीख पड़ी। वह वस्त्रहीन थी। ययाति ने अपना दुपट्टा उसे दे दिया 

और दयालुतावश अपना हाथ उसे देकर कुएँ से बाहर किया। देवयानी ने कहा-'अब यह हाथ मैं किसी अन्य को नहीं दूंगी। यह जीवन आपको अर्पित किया।' वृहस्पति का पुत्र कच मेरे पिता शुक्राचार्य से मृत संजीवनी विद्या पढ़ा था। पढ़ाई पूरी कर वह जब जाने लगा तो देवयानी ने उससे विवाह का प्रस्ताव किया। पर, गुरुपुत्री होने से कच ने नकार दिया। इस पर देवयानी ने शाप दिया कि कच की पढ़ी विद्या निष्फल हो जाय। कच ने भी देवयानी को शाप दिया कि उसका विवाह किसी ब्राह्मण लड़के से न हो। इस शाप से क्षत्रिय ययाति से ब्राह्मण देवयानी के विवाह की संभावना देवयानी ने सद्यः संभावित दिखायी प्रारब्ध के अधीन। ययाति ने बात मान ली। देवयानी वहाँ से घर लौटी, पिता शुक्राचार्य से सारी बातें बतायी। शुक्राचार्य क्षुब्ध हो गये। वे देवयानी को लेकर नगर से निकल पड़े। शाप देने या शत्रुपक्ष से मिल जाने के भय से वृषपर्वा शुक्राचार्य को मनाने में ही हित समझा। शुक्राचार्य ने कहा-'मैं अपनी पुत्री देवयानी के अपमान और उपेक्षा को अपना तिरस्कार मानता हूँ। देवयानी जैसा चाहे, वैसा करो, तभी मैं लौट सकता हूँ।' 'वृषपर्वा ने शर्त मान ली। देवयानी ने कहा-'मेरे पिता जिस किसी को मुझे दें और मैं जहाँ कहीं जाऊँ शर्मिष्ठा अपनी सहेलियों के साथ मेरी सेवा में वहीं चले।' शर्मिष्ठा ने भी परिवार के संकट टालने हेतु देवयानी की बात मान ली। विवाह के समय शुक्राचार्य ने कहा ययाति से-'राजन शर्मिष्ठा को सेज पर कभी सोने मत देना। देवयानी ही तुम्हारी अंकशायिनी है।' देवयानी कुछ समय बाद पुत्रवती हो गयी। शर्मिष्ठा ने भी एकान्तं में ययाति से पुत्र कामना की। इस प्रकार देवयानी से दो पुत्र हुए-यदु और तुर्वसु। वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से तीन पुत्र हुए-द्रुह्यु, अनु और पूरु। पूरु से ही भरतवंश में पाण्डव हुए आगे चलकर। पता चल ही गया कि शर्मिष्ठा के तीनों पुत्र ययाति से ही हैं। क्रुद्ध देवयानी पिता के पास आयी और रो-रोकर सारी बातें शुक्राचार्य से बतायीं। ययाति भी देवयानी को मनाने पहुँच चुके थे। शुक्राचार्य ने ययाति को शाप दे दिया-'तुम्हें बुढ़ापा आ जाय।' ययाति ने कहा-'आपके शाप से आपकी पुत्री देवयानी का अनिष्ट है।' शुक्राचार्य ने कहा- 'अच्छा प्रसन्नता से जो तुम्हें अपनी युवानी दे दे उससे अपना बुढ़ापा बदल लो।' ययाति ने अपने सभी पुत्रों में एक-एक से यौवन मांगा। पर, यदु और तुर्वसु- देवयानी पुत्र तैयार नहीं हुए। शर्मिष्ठा के भी ट्ठा और अनु भी तैयार नहीं हुए। पर, पूरु ने पिता में निष्ठा व्यक्त करते हुए बुढ़ापा ले लिया और अपना यौवन ययाति को दे दिया। ययाति सातों द्वीपों के एकछत्र सम्राट थे। इन्द्रियाँ भोग से तृप्त नहीं हो सकीं। फिर ययाति को वैराग्य हुआ। जीवन व्यर्थ गया- ऐसी आत्मग्लानि हुई इन्हें। ययाति ने दक्षिण पूर्व दिशा में द्रुह्यु, दक्षिण में की सारी संपत्तियों को पूरु के हवाले किया और बड़े भाइयों को पूरु के अधीन कर दिया। ययाति अब वन की ओर चल पड़े। आत्मसाक्षात्कार से त्रिगुण मय लिंग शरीर नष्ट कर डाला। देवयानी ने सुना तो भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करती उन्होंने लिंग शरीर त्याग दिया। इस प्रकार ययाति और देवयानी ने देहत्याग कर भगवान श्रीकृष्ण के ध्यान में प्राणों का त्याग कर दिया। ऐसे होते थे भारत में सम्राट और उनके राजनीतिक दर्शन।

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