भारत में दो नाभाग हुए हैं। एक दिष्टि के पुत्र नाभाग थे और दूसरे मनुपुत्र नभग के पुत्र नाभाग। इन द्वितीय नाभाग के पुत्र हुए अम्बरीष। अम्बरीष भौतिक उत्कर्ष के साथ सत्य, परोपकार, जनहित, आत्मसंयम और सहिष्णुता के आन्तरिक गुणों से समृद्ध सम्राट थे। राष्ट्रीय हित के अनुष्ठान ये करते रहते थे। तत्कालीन भूमण्डलीकरण में पृथ्वी के सातों द्वीपों के राजैश्वर्य में राजा अम्बरीष सबके हृदयों तक पर शासन करते थे। शासन-प्रशासन के आभामण्डल को जलते दीप की भाँति क्षणिक मानते थे राजर्षि अम्बरीष। राज्य-सम्पदा एक यज्ञ है-चराचर सह- अस्तित्व के कल्याण का अनुष्ठान-ऐसा राजनीतिक चिन्तन था राजा अम्बरीष का। आज की इकोलोजी की सदी संत्रासों से मुक्त धरती के हित में 'धन्व' नामक निर्जल शुष्क देश में सरसता की जलधार की लोकहितकारी योजना चालू कर एक अनुष्ठान की निष्ठा में समृद्धि और वैभव की शक्ति जागृत करने वाले सरस्वती नदी के प्रवाह के सामने वसिष्ठ, असित, गौतम आदि आचार्यों के नेतृत्व में भारी लागत के अनेक अश्वमेध यज्ञ किये राजा अम्बरीष ने। प्रजा विपन्नता, शोषण, कुपोषण, दमन और संत्रासों से मुक्त इस राजकीय योजना से लाभान्वित होकर सौहार्द, सच्चरित्रता के सद्गुणों को बढ़ाने वाला सत्संग करने लगी इस राजकीय संस्कृति में।

राजा अम्बरीष ने प्राकृतिक संसाधनों, जल संसाधनों, वैचारिक संसाधनों के साथ पशु-धन और स्वर्णमान के साथ राजकीय मुद्राओं सहित करोड़ों गायें जनहितकारी चिन्तकों, मनीषियों, ऋषियों, ब्राह्मणों को अनुदान में दिया। उस समय आजकल की तरह करेंसी' प्रधान जन-जन में 'मनीफोबिया' की आर्थिक बीमारी नहीं थी भारत में। अक्षयकोष, अजस्र धरती, प्राकृतिक संसाधन, पशु-धन, कृषि, उद्योग, व्यापार से समृद्ध अम्बरीष के नेतृत्व में सारा राष्ट्र और इसकी राजनीतिक हलचलें एक यज्ञमय अनुष्ठान बन गये थे। फिर भी, अम्बरीष दंभी नहीं, विनम्र होते जा रहे थे। इनकी दृष्टि में यह सब ईश्वर करवा रहा था। राजा अम्बरीष ने एक बार अपनी धर्मपत्नी के साथ द्वादशी प्रधान एकादशी व्रत वर्षभर का धारण किया। इस व्रत का मानसिक अर्थ था-ये अभ्यास करें आचरण की प्रयोगभूमि में कि यह राज्य-सम्पदा और उपभोक्ता-शक्ति सब उनकी निजी निधि नहीं, ईश्वर की है। व्रत पूर्ण हुआ। इस व्रत की सफलता के उपलक्ष पर कार्तिक मास में राजा अम्बरीष ने तीन रात का उपवास किया। आशय इनका था तन-मन-धन के त्रिकोणात्मक प्रदूषणों का आस्वाद न लेकर सत्याभिमान, राज्याभिमान और दुर्जनद्वेष तथा सज्जन राग से मुक्त 'हरि इच्छा बलीयसी' सूत्र में राजधर्म को आत्मोन्नति में लय कर दें। लोग अपने दुर्गुणों के कारागार में भ्रष्टाचार की हथकड़ी-बेड़ी में बन्दी न हों। गरीबों की भूख का अनुभव राजा अम्बरीष उपवास रखकर करते हुए कैसा अनोखा यज्ञ कर रहे थे ! उपवास की सफलता पर यमुना जी में स्नान कर मधुवन में ईश्वर के प्रति कृतज्ञता में नैवेद्य- ग्रहण का इन्होंने अनुष्ठान किया। राज्य-भण्डारण ईश्वरीय नैवेद्य था और हर भूखा-कुपोषित, समृद्धों और सम्पन्नों के साथ बैठकर स्वास्थ्य और स्वादवर्द्धक नैवेद्य का रसास्वादन करने का यह अम्बरीष-अनुष्ठान लोकशक्ति का नूतन जागरण था। पुनः पशुधन का अभिनन्दन किया राजा ने और दूधारू गायें करोड़ों की संख्या में राष्ट्रीय चिन्तकों को अनुदान में अर्पित की। हर गाय की सींगें स्वर्णपत्र जड़ित और खुर चाँदी पत्र जड़ित थीं। राजकीय कोष जन-जन के लिए अनुदानित मुक्तहस्त करा दिया गया था। कैसी थी राजस्व-वसूली ईश्वरार्पित! राजकोष खाली करने की होड़ राजा ने पैदा कर दी थी-जनहित में और राष्ट्र के समृद्ध उच्च वर्ग के उद्योगपति राजकोष को भर डालने में आनन्दित होने लगे थे। कर वसूली विभाग अनुदान में रात-दिन डटा था और व्यापारी वर्ग कोष भरने में इनसे आगे बढ़ जाना चाहता था! ऐसे अद्भुत भारत के अद्भुत दिन के अद्भुत राजा थे राजा अम्बरीष। दान, अनुदान के उस दिन के सारे कार्यों को पूर्ण कर राजा अम्बरीष जैसे ही पारण करने को उद्यत हुए, उसी समय शाप और वरदान दोनों ही देने में सहज ऋषि दुर्वासा जी अतिथि रूप में इनके यहाँ पधारे। राजा अम्बरीष ने हर्ष के साथ इनकी अगवानी की और नमन करते हुए भोजन की प्रार्थना की। प्रार्थना स्वीकार कर दुर्वासा ऋषि यमुना स्नान-ध्यान के लिये चले गये। तरंगी ध्यान योगी ऋषि दुर्वासा यमुना में स्नान के समय समय का ध्यान नहीं रखे और इधर द्वादशी मात्र घड़ी भर बच रही थी। बड़ा ही धर्मसंकट था यह। सारी साधना दाँव पर थी-पारण का मुहूर्त बीत जाता और राजा पारण न कर लेते तो सारा अनुष्ठान निष्फल जाता। समय, इसका मुहूर्त ही सब कुछ है। समय बड़ा बलवान होता है ! ब्रह्मविद् मनीषियों से परामर्श लिया राजा ने। ब्रह्मनिष्ठ महान योगी को बिना खिलाये भोजन ग्रहण करना या द्वादशी रहते पारण न करना दोनों ही दोष हैं। ऐसे में राष्ट्रीय हित किसमें है, प्रदूषण से मुक्ति की क्या प्रणाली अपनायी जाय-यह विचारणीय विन्दु था राजा का।

ब्राह्मण परिषद ने मंथन करने के बाद व्यवस्था दी-'श्रुतियाँ हमारी आचार संहिता की नींव हैं। श्रुतियों ने व्यवस्था दी है-'जल पी लेना आहार करना भी है और नहीं भी करना है। अतः जलाहार से पारण कर सकते हैं।' राजा ने ईश्वर का ध्यान करके जल से पारण कर लिया और दुर्वासा जी की प्रतीक्षा करने लगे। दुर्वासा जी लौटे तो राजा की स्थिरता से उन्होंने अनुमान कर लिया कि राजा ने पारण कर लिया है। दुर्वासा जी उद्वेलित हो गये और क्रोधित होकर बोल पड़े-'धनमद में राजा! तू अंधा है। भगवद्- भक्ति तो छू भी नहीं गयी है तुझे। मुझे भोजन के लिये खुद आमंत्रित किया और बिना मुझे खिलाये खा लिया! ऐसे धर्महीन राजा को दंडित करना आवश्यक है।' ऐसी उत्तेजना में तंत्रयोगी दुर्वासा ने एक आतंकवादी कृत्या अपने जटाजूट से एक बाल उखाड़ कर पैदा कर आदेश दिया-'अम्बरीष को मार डाल!' क्रोध सबसे बड़ी कृत्या है, जो सदाशयता, विनम्रता और जनप्रेमी निष्ठा को, सद्भावना को मिटाने पर आमादा रहती है! राजा उस दहकती आवेशमयी अग्नि ज्वाला से विचलित नहीं हुए, न डिगे। ईश्वर सबका रक्षक है। सुदर्शन चक्र कृत्या को भस्म कर दुर्वासा की ओर बढ़ा। आत्मनिष्ठ यह ज्ञानचक्र-विवेकमण्डल-था, जिसने क्रोध मिटा दिया और क्रोधी की ओर लपका। क्रोधी खुद अपनी क्रोध की लपट में दहकता हैरान हतप्रभ राजा के ईश्वर-प्रेम से घबराया भाग चला। दिशाओं, आकाश, पृथ्वी, अतल-वितल आदि अधोलोक, समुद्र, लोकपाल, स्वर्ग सभी स्थानों पर शरणार्थी बन भागता फिरा। पर, क्रोध और विकार की आग को कहीं भी ठिकाना नहीं मिला! आतंकवाद कहीं भी टिक नहीं पाता। ब्रह्मा, विष्णु, महेश (जो गॉड के रूप में 'जी' जेनरेट (सृजनकर्ता ब्रह्मा) 'ओ' (आर्गनाइजर-पालक विष्णु और) 'डी' (डिस्ट्रक्टवायर-प्रलयंकर रुद्र) के हर स्तर पर आत्मरक्षा की गुहार आत्म विकार की क्रोधाभिभृत अन्तर्जाला से उत्पीड़ित दुर्वासा ने किया। श्रष्टा, पालक और संहारक-तीनों विकेन्द्रित इकाइयों ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए कहा-'श्रुतियाँ हमारी ईश्वरीय संविधान हैं, जो चराचर (इक्कीसवीं सदी मसीह की इकोलोजी से इसे जाना जायेगा) के बीच सचेतन प्रेम की बागडोर संभालने हेतु व्यवस्थित है। लोकहितकारी कार्ययोजनाओं को भजन की तरह लेकर जो राष्ट्र-यज्ञ में समर्पित है, जो विनम्र है (अक्रोधी है, तुम्हारी तरह क्रोधी नहीं), जिसके राज्य में आतंकवाद है ही नहीं, क्योंकि कोई क्रूर और हिंसक नहीं है, सब ईश्वर प्रेमी हैं। ऐसे जनप्रिय राजा को तुमने मारना चाहा! अपनी शक्ति का अपव्यय किया? हम सबमें से किसी के पास ऐसी सामर्थ्य नहीं है, जो तुम्हें बचा सके! राजा अम्बरीष ही तुम्हें बचा सकते हैं। उन्हीं की शरण लो!' हतप्रभ दुर्वासा भागते हुए आये और अम्बरीष के पैर पकड़ लिये। लज्जित अम्बरीष ने भगवान के सुदर्शन चक्र की वन्दना की और प्रार्थना किया-'यदि मैं जीवनभर और मेरे पूर्वजों ने अपने-अपने जीवनभर में एक भी राष्ट्रीय चिन्तक, मनीषी, योगी, महात्मा और साधक को बिना सम्मानित किये और राज्य-सम्पदा के नैवेद्य रूप में उसे बिना अंशदान दिये, बिना पुरस्कृत किये यदि कभी भी न खाया हो-तो आप महर्षि दुर्वासा की जलन मिटा दें। दुर्वासा जी का हृदय शीतल हो जाय। मैं किसी की पीड़ा और भय का कारण नहीं बनूँ।' दुर्वासा जी पर सुदर्शन शांत हो गया। अम्बरीष ने कहा-'महर्षि! पूरे एक वर्ष बाद आप पुनः पधारे हैं। आप इस बीच कुछ भोजन नहीं ग्रहण किये हैं। इससे व्यथित मैं भी अभी तक जलाहार ही लेता रहा हूँ। चलें आप नैवेद्य ग्रहण करें। आप भोजन कर लें तभी मैं अन्नाहार लूँगा। आपकी तृप्ति से बढ़कर मेरे रसास्वादन का आधार अन्न, सम्पन्न की सम्पन्नता, ऋद्धि, समृद्धि कुछ भी नहीं है। भोजन तो ईश्वरीय स्वाद का अनुदान और अनुष्ठान हैं। यह राज्य- रस भी ईश्वर का नैवेद्य है। ईश्वर की इच्छा से इसे ग्रहण करें, जिससे राष्ट्र कृतज्ञ हो और यह लोक-शक्ति का अनुष्ठान सफल हो! दुर्वासा गद्गद् हो उठे और बोले-राजन्! आप करुणाशील हैं। मैं आपका, आपके राष्ट्रीय हित के अनुष्ठान का अपराधी था, फिर भी क्षमामय होकर आपने मुझपर अनुग्रह किया है। आप भोजन रूप में नैवेद्य दें। आपसे ईश्वर निष्ठा मेरी बढ़ी है।

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