किशोरी, कामिनी, कमला इत्यादि तथा और बहुत से आदमियों को लिए हुए राजा वीरेन्द्रसिंह चुनार की तरफ रवाना हुए। किशोरी और कामिनी की खिदमत के लिए साथ में एक सौ पन्द्रह लौंडियां थीं जिनमें से बीस लौंडियां तो उनमें से थीं जो राजा दिग्विजयसिंह की रानी के साथ रोहतासगढ़ में रहा करती थीं और रोहतासगढ़ के फतह हो जाने के बाद राजा वीरेन्द्रसिंह की ताबेदारी स्वीकार कर चुकी थीं, बाकी लौंडियां नई रक्खी गई थीं। इसके अतिरिक्त रोहतासगढ़ से बहुत चीजें भी राजा वीरेन्द्रसिंह ने साथ ले ली थीं जिन्हें उन्होंने बेशकीमती या नायाब समझा था। रवाना होने के समय राजा साहब ने उन ऐयारों को भी चुनारगढ़ जाने की इत्तिला दिलवा दी थी जो राजगृह तथा गयाजी का इन्तजाम करने के लिए मुकर्रर किये गये थे।
जिस समय राजा वीरेन्द्रसिंह चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए रात घण्टे भर से कुछ ज्यादे बाकी थी और पांच हजार फौज के अतिरिक्त चार हजार दूसरे काम-काज के आदमी भी साथ में थे। इसी भीड़ में मिली-जुली साधारण लौंडी का भेष धारण किये मनोरमा भी जाने लगी। उसे अपना काम पूरा होने की पक्की उम्मीद थी और वह इस धुन में लगी हुई थी कि किशोरी और कामिनी की लौंडियों में से कोई लौंडी किसी तरह पीछे रह जाय तो काम चले।
पहर दिन चढ़े तक राजा वीरेन्द्रसिंह का लश्कर बराबर चलता गया। जब धूप हुई तो एक हरे-भरे जंगल में पड़ाव डाला गया जहां डेरे-खेमे का इन्तजान पहिले ही से हो चुका था। पड़ाव पड़ जाने के थोड़ी ही देर बाद डेरों-खेमों से लदे हुए सैकड़ों ऊंट आगे की तरफ रवाना हुए जिनसे दूसरे दिन के पड़ाव का इन्तजाम होने वाला था। बाकी का दिन और तीन पहर रात तक वह जंगल गुलजार रहा और पहर रात रहते फिर वहां से लश्कर कूच हुआ।
इसी तरह कूच-दर-कूच करते वीरेन्द्रसिंह का लश्कर चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुआ। तीन दिन तक तो मनोरमा का काम कुछ भी न हुआ पर चौथे दिन उसे अपना काम निकालने का मौका मिला जब किशोरी की एक लौंडी जिसका नाम दया था हाथ में लोटा लिए मैदान जाने की नीयत से पड़ाव के बाहर निकली। उस समय घड़ी भर रात जा चुकी थी और चारों तरफ अंधकार छाया हुआ था। दया रोहतासगढ़ के राजा दिग्विजयसिंह की लौंडियों में से थी और किशोरी उसे मानती थी क्योंकि उस जमाने में जब किशोरी कैदियों की तरह रोहतासगढ़ में रहती थी, दया ने उसकी खिदमत बड़ी हमदर्दी के साथ की थी।
दया को मैदान की तरफ जाते देख मनोरमा ने उसका पीछा किया। दबे पांव उसके साथ बराबर चली गई और जब जाना कि अब वह आगे बढ़ेगी तो एक पेड़ की आड़ देकर खड़ी हो गई। थोड़ी देर बाद जब दया जरूरी काम से छुट्टी पाकर लौटी तो मनोरमा बेधड़क उसके पास चली गई और फुर्ती के साथ तिलिस्मी खंजर उसके मोढ़े पर रख दिया। उसी दम दया कांपी और थरथराकर जमीन पर गिर पड़ी। मनोरमा ने उसे घसीटकर एक झाड़ी के अन्दर डाल दिया और निश्चय कर लिया कि जब राजा वीरेन्द्रसिंह का लश्कर यहां से कूच कर जायेगा और दिन निकल आवेगा तब सुभीते से दया की सूरत बनकर इसको जान से मार डालूंगी और फिर तेजी के साथ चलकर लश्कर में जा मिलूंगी, आखिर ऐसा ही हुआ।
थोड़ी रात रहे राजा वीरेन्द्रसिंह का लश्कर वहां से कूच कर गया और जब पहर दिन चढ़े अगले पड़ाव पर पहुंचा तो किशोरी ने दया की खोज की मगर दया का पता क्योंकर लग सकता था। बहुत - सी लौंडियां चारों तरफ फैल गईं और दया को ढूंढ़ने लगीं। दोपहर होने तक दया भी लश्कर में आ पहुंची जो वास्तव में मनोरमा थी। किशोरी ने पूछा, “दया, कहां रह गई थी तेरी खोज में सब लौंडियां अभी तक परेशान हो रही हैं।”
नकली दया ने जवाब दिया, “जिस समय लश्कर कूच हुआ तो मेरे पेट में कुछ गड़गड़ाहट मालूम हुई। थोड़ी दूर तक तो मैं जी कड़ा कर चली गई, आखिर जब गड़गड़ाहट ज्यादे हुई तो रास्ते में एक कुआं भी नजर आया तो लोटा-डोरी लेकर वहां ठहर गई। दो दफे तो टट्टी गई और तीन कै हुईं, कै में बहुत-सा खट्टा पानी निकला। मैंने समझा कि बस अब किसी तरह लश्कर के साथ नहीं मिल सकती और यहां पड़ी दुःख भोगूंगी मगर ईश्वर ने कुशल की कि, थोड़ी देर तक मैं उसी कुएं पर लेटी रही, आखिर मेरी तबियत ठहरी तो मैं धीरे-धीरे रवाना हुई और मुश्किल से यहां तक पहुंची। कै करने में मुझे तकलीफ हुई और मेरा गला भी बैठ गया।”
किशोरी ने दया की अवस्था पर दुःख प्रकट किया और उसे दया की बातों पर विश्वास हो गया। अब दया को किशोरी के साथ मेल-जोल पैदा करने में किसी तरह का खुटका न रहा और दो ही चार दिन में उसने किशोरी को अपने ऊपर बहुत ज्यादे मेहरबान बना लिया।
रोहतासगढ़ से चुनारगढ़ जाने के लिए यद्यपि भली-चंगी सड़क बनी हुई थी मगर राजा वीरेन्द्रसिंह का लश्कर सीधी सड़क छोड़ जंगल और मैदान ही में पड़ाव डालता चला जा रहा था क्योंकि हजारों आदमियों को आराम जंगल और मैदान ही में मिलता था, सड़क के किनारे उतनी ज्यादे जगह नहीं मिल सकती थी।
एक दिन राजा वीरेन्द्रसिंह का लश्कर एक बहुत रमणीक और हरे-भरे जंगल में पड़ाव डाले हुए था, संध्या के समय राजा वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह टहलते हुए अपने खेमे से कुछ दूर निकल गये और एक छोटे-से टीले पर चढ़कर अस्त होते हुए सूर्य की शोभा देखने लगे। यकायक उनकी निगाह एक सवार पर पड़ी जो बड़ी तेजी के साथ घोड़ा दौड़ाता हुआ वीरेन्द्रसिंह के लश्कर की तरफ आ रहा था। दोनों की निगाहें उसी की तरफ उठ गईं और उसे बड़े गौर से देखने लगे। थोड़ी ही देर में वह सवार टीले के पास पहुंच गया और उस समय उस सवार की भी निगाह राजा वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह पर पड़ी। सवार ने तुरंत घोड़े का मुंह फेर दिया और बात की बात में राजा वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचकर घोड़े से नीचे उतर पड़ा। जिस टीले पर वह दोनों खड़े थे वह बहुत ऊंचा न था अतएव उस सवार ने नेजा गाड़कर घोड़े की लगाम उसमें अटका दी और बेखौफ टीले के ऊपर चढ़ गया। इस सवार के हाथ में एक चिट्ठी थी जो उसने सलाम करने के बाद राजा वीरेन्द्रसिंह की दे दी। राजा साहब ने चिट्ठी खोलकर बड़े गौर से पढ़ी और तेजसिंह के हाथ में दे दी। तेजसिंह ने भी उसे पढ़ा और राजा साहब की तरफ देखकर कहा, “निःसन्देह ऐसा ही है।”
वीरेन्द्र - तुमने तो इस विषय में मुझसे कुछ भी नहीं कहा था।
तेज - कुछ कहने की आवश्यकता न थी और अभी मैं इन बातों का निश्चय ही कर रहा था।
वीरेन्द्र - इस राय को तो मैं पसन्द करता हूं।
तेजसिंह - राय पसन्द करने योग्य है और इसका जवाब भी लिख देना चाहिए।
वीरेन्द्र - हां, इसका जवाब लिख दो।
“बहुत अच्छा” कहकर तेजसिंह ने अपनी जेब से जस्ते की एक कलम निकाली और उस चिट्ठी की पीठ पर जवाब लिखकर वीरेन्द्रसिंह को दिखाया, राजा साहब ने उसे पसन्द किया और चिट्ठी उसी सवार के हाथ में दे दी गई। सवार सलाम करके टीले से नीचे उतर आया और घोड़े पर सवार होकर उसी तरफ चला गया जिधर से आया था। सवार के चले जाने के बाद राजा वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह भी टीले से नीचे उतरे और गुप्त विषय पर बातें करते हुए लश्कर की तरफ रवाना होकर थोड़ी ही देर में अपने खेमे के अन्दर जा पहुंचे।
इस सफर में राजा वीरेन्द्रसिंह का कायदा था कि दिन-रात में एक दफे किसी समय किशोरी और कामिनी के डेरे में जरूर जाते, थोड़ी देर बैठते और हर तरह की ऊंच-नीच समझा-बुझाकर तथा दिलासा देकर अपने डेरे में लौट आते। इसी तरह उन दोनों के पास दो दफे तेजसिंह के जाने का भी मामूल था। जिस समय किशोरी और कामिनी के पास राजा साहब या तेजसिंह जाते उस समय प्रायः सब लौंडियां अलग कर दी जातीं, केवल कमला उन दोनों के पास रह जाती थी। आज भी टीले पर से लौटने के बाद थोड़ी देर दम लेकर राजा वीरेन्द्रसिंह किशोरी और कामिनी के खेमे में गये और दो घड़ी तक वहां बैठे रहे, कुल लौंडियां हटा दी गई थीं केवल कमला मौजूद थी जो उन दोनों के दुःख-सुख की साथी बन चुकी थी और थी।
दो घड़ी तक वहां ठहरने के बाद राजा साहब अपने खेमे में लौट आये और तेजसिंह के पास बैठकर तरह-तरह की बातें करने लगे। जब रात ज्यादे चली गई तो राजा साहब ने चारपाई की शरण ली। तेजसिंह भी अपने खेमे में चले गये और खा-पीकर सो रहे।
तेजसिंह को चारपाई पर गये आधा घण्टा भी न बीता था कि चोबदार ने किशोरी की लौंडियों के आने की इत्तिला की। तेजसिंह तुरंत उठ बैठे और इन लौंडियों को अपने पास हाजिर करने की आज्ञा दी। थोड़ी ही देर में दो लौंडियां तेजसिंह के सामने आईं जिनमें से एक वही दया थी जिसे वास्तव में मनोरमा कहना चाहिए।
तेज - (लौंडियों से) इस समय तुम लोगों के आने से आश्चर्य मालूम होता है।
दया - निःसन्देह आश्चर्य होता होगा परन्तु क्या किया जाय, किशोरीजी की आज्ञा से हम लोगों को आना पड़ा।
तेज - क्या समाचार है?
दया - किशोरीजी ने हम लोगों को आपके पास भेजा है और कहा है कि “यहां से थोड़ी दूर पर कोई ऐसी इमारत है जिसके अन्दर तिलिस्म होने का शक है। जब मैं कैदियों की तरह रोहतासगढ़ में रहती थी तो यह बात राजा दिग्विजयसिंह की जुबानी सुनने में आई थी। यदि यह बात ठीक है तो आपकी कृपा से मैं इस इमारत को देखा चाहती हूं!”
तेज - किशोरी का कहना ठीक है, निःसन्देह यहां से थोड़ी ही दूर पर एक इमारत है जिसमें तरह - तरह की अद्भुत बातें देखने में आती हैं और मैं उस इमारत को देख चुका हूं, मगर एक साथ कई आदमियों का उस इमारत के अंदर जाना बहुत कठिन है। (कुछ सोचकर) अच्छा तुम लोग चलो, मैं महाराज से वहां जाने की आज्ञा लेकर बहुत जल्द किशोरी के पास आता हूं।
दया - जो आज्ञा।
दोनों लौंडियां सलाम करके किशोरी के पास चली गईं और जो कुछ तेजसिंह ने उनसे कहा था वह किशोरी के सामने अर्ज किया, इस समय वहां किशोरी, कामिनी और कमला एक साथ बैठी हुई थीं और कई लौंडियां भी मौजूद थीं।
थोड़ी देर बाद तेजसिंह के आने की इत्तिला मिली और कमला उनको लेने के लिए खेमे के बाहर गई। जब तेजसिंह खेमे के अंदर आए तो उन्हें देख किशोरी और कामिनी उठ खड़ी हुईं और जब तेजसिंह बैठ गये तो अदब के साथ उनके सामने बैठ गईं।
तेज - (किशोरी से) उस इमारत की याद यकायक कैसे आ गई?
किशोरी - अकस्मात् उस इमारत की याद आ गई। कामिनी बहिन को भी उसे देखने का बहुत शौक है। मैंने सोचा कि ऐसा मौका फिर काहे को मिलेगा। वह इमारत रास्ते ही में पड़ती है, यदि आपकी कृपा होगी तो हम लोग उसे देख लेंगी।
तेज - बात तो ठीक है और वह इमारत भी देखने योग्य है, मैं तुम्हें वहां ले जा सकता हूं और महाराज से आज्ञा भी ले आया हूं मगर तुम अपने साथ किसी लौंडी को वहां न ले जा सकोगी।
किशोरी - कामिनी बहिन और कमला का चलना तो आवश्यक है और ये दोनों न जायंगी तो मुझे उसके देखने का आनन्द ही क्या मिलेगा?
तेज - इन दोनों के लिए मैं मना नहीं करता, मैं रथ जोतने के लिए हुक्म दे आया हूं, अभी आता होगा। तुम तीनों उस रथ पर सवार हो जाओ, घोड़े की रास मैं लूंगा और तुम लोगों को वहां ले चलूंगा, सिवाय हम चार आदमियों के और कोई भी न जायगा।
किशोरी - जब स्वयं आप हम लोगों के साथ हैं तो हमें और किसी की जरूरत क्या है?
तेज - यदि इस समय हम लोग रथ पर सवार होकर रवाना होंगे तो घण्टे-भर के अन्दर ही वहां जा पहुंचेंगे, छः-सात घण्टे में उस इमारत को अच्छी तरह से देख लेंगे, इसके बाद यहां लौटने की कोई जरूरत नहीं है, अगले पड़ाव की तरफ चले जाएंगे। जब तक हमारा लश्कर यहां से कूच करके अगले पड़ाव पर पहुंचेगा तब तक हम लोग भी वहां पहुंच जाएंगे।
किशोरी - जैसी मर्जी।
थोड़ी ही देर बाद इत्तिला मिली कि दो घोड़ों का रथ हाजिर है। तेजसिंह उठ खड़े हुए, पर्दे का इन्तजाम किया गया, किशोरी, कामिनी और कमला उस पर सवार कराई गईं, तेजसिंह ने घोड़ों की रास सम्भाली और रथ तेजी के साथ वहां से रवाना हुआ।

 

 


 

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