भूतनाथ जब राजा गोपालसिंह से बिदा हुआ तो अपने शागिर्द को साथ लिए हुए शहर से बाहर निकला और बातचीत करता हुआ आधी रात जाते-जाते तक एक घने जंगल के बीचोंबीच में पहुंचा जहां एक साधारण ढंग की कुटी बनी हुई थी और उसके दरवाजे पर दो आदमी भी बैठे हुए धीरे-धीरे बातचीत कर रहे थे। वे दोनों भूतनाथ को देखते ही उठ खड़े हुए और सलाम करके बोले -
एक - क्या राजा गोपालसिंह से आपका कुछ काम निकला?
भूत - कुछ भी नहीं।
दूसरा - (आश्चर्य से) सो क्यों?
भूत - ठहरो, जरा दम ले लूं तो कहूं - और सब लोग कहां गये हैं?
एक - घूमने-फिरने गये हैं, आते ही होंगे।
भूत - अच्छा कुछ खाने-पीने के लिए हो तो लाओ।
इतना सुनते ही एक आदमी कुटी के अन्दर चला गया और एक लम्बा-चौड़ा कम्बल ला कुटी के बाहर बिछाकर फिर अन्दर लौट गया। भूतनाथ उसी कम्बल पर बैठ गया। दूसरा आदमी कुछ खाने की चीजें और जल से भरा हुआ लोटा ले आया और उस आदमी को जो भूतनाथ के साथ ही साथ यहां तक आया था इशारा करके कुटी के अन्दर ले गया। भूतनाथ खा-पीकर निश्चिन्त हुआ ही था कि उसके बाकी आदमी भी जो इधर-उधर घूमने के लिए गये थे आ पहुंचे और भूतनाथ को सलाम करने के बाद इशारा पाकर उसके सामने बैठकर बातचीत करने लगे। इस जगह यह लिखने की कोई जरूरत नहीं कि इन लोगों में क्या-क्या बातें हुईं। रात भर सलाह और बातचीत करने के बाद भूतनाथ उन लोगों को समझा-बुझा और कई काम करने के लिए ताकीद करके सबेरा होते-होते अकेला वहां से रवाना हो गया और इन्द्रदेव के मकान की तरफ चल निकला।
दोपहर से कुछ ज्यादा दिन ढल चुका था जब भूतनाथ इन्द्रदेव की पहाड़ी पर आ पहुंचा और उस खोह के बाहर खड़ा होकर जो इन्द्रदेव के मकान में जाने का दरवाजा था इधर-उधर देखने लगा। किसी को न देखा तो एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गया क्योंकि वह इन्द्रदेव के मकान में पहुंचने का रास्त नहीं जानता था, हां यह बात उसे जरूर मालूम थी कि इन्द्रदेव की आज्ञा बिना या जब तक इन्द्रदेव का कोई आदमी अपने साथ न ले जाये कोई उस सुरंग को पार करके इन्द्रदेव के पास नहीं पहुंच सकता। इसके पहिले भी इन्द्रदेव के पास जाने का भूतनाथ को मौका मिला था मगर हर दफे इन्द्रदेव का आदमी भूतनाथ की आंखों पर पट्टी बांधकर ही उसे खोह के अन्दर ले गया था।
भूतनाथ घण्टे भर तक उसी चट्टान पर बैठा रहा, इसके बाद इन्द्रदेव का एक आदमी खोह के बाहर निकला जो भूतनाथ को अच्छी तरह पहिचानता था और भूतनाथ भी उसे जानता था। उस आदमी ने साहब-सलामत करने के बाद भूतनाथ से पूछा, “कहिए आप कहां से आये?'
भूत - आपके मालिक इन्द्रदेव से मिलने के लिए आया हूं और बड़ी देर से यहां बैठा हूं।
आदमी - तो क्या आपकी इत्तिला करनी होगी?
भूत - अवश्य।
आदमी - अच्छा तो आप थोड़ी देर तक और तकलीफ कीजिए, मैं अभी जाकर खबर करता हूं।
इतना कहकर वह आदमी लौट गया। एक घण्टे के बाद वह और भी दो आदमियों को अपने साथ लिये हुए आया और भूतनाथ से बोला, “चलिए, मगर आंखों पर पट्टी बंधवाने की तकलीफ आपको उठानी पड़ेगी।” उसके जवाब में भूतनाथ यह कहकर उठ खड़ा हुआ, “सो तो मैं पहले से ही जानता हूं।”
भूतनाथ की आंखों पर पट्टी बांध दी गई और वे तीनों आदमी उसे अपने साथ लिये हुए इन्द्रदेव के पास जा पहुंचे। इन्द्रदेव के स्थान और उसके मकान की कैफियत हम पहिले लिख चुके हैं इसलिये यहां पुनः न लिखकर असल मतलब पर ध्यान देते हैं।
जिस समय भूतनाथ इन्द्रदेव के सामने पहुंचा उस समय इन्द्रदेव अपने कमरे में मसनद के सहारे बैठे हुए कोई ग्रंथ पढ़ रहे थे। भूतनाथ को देखते ही उन्होंने मुस्कुराकर कहा, “आओ-आओ भूतनाथ, अबकी तो बहुत दिनों में मुलाकात हुई है!”
भूत - (सलाम करके) बेशक बहुत दिनों पर मुलाकात हुई है। क्या कहें जमाने के हेर-फेर ने ऐसे-ऐसे कुढंगे कामों में फंसा दिया और अभी तक फंसा रक्खा है कि मेरी कमजोर जान को किसी तरह छुटकारे का दिन नसीब नहीं होता और इसी से आज बहुत दिनों पर आपके भी दर्शन हुए हैं।
इन्द्र - (हंसकर) तुम्हारी कमजोर जान! जो भूतनाथ हजारों मजबूत आदमियों को भी नीचा दिखाने की ताकत रखता है वह कहे कि 'मेरी कमजोर जान'!
भूत - बेशक ऐसा ही है। यद्यपि मैं अपने को बहुत कुछ कर गुजरने के लायक समझता था मगर आजकल ऐसी आफत में जान फंसी हुई है कि अक्ल कुछ काम नहीं करती।
इन्द्र - क्या, कुछ कहो भी तो?
भूत - मैं यही सब कहने और आपसे मदद मांगने के लिए तो आया ही हूं।
इन्द्र - मदद मांगने के लिए।
भूत - जी हां, आपसे बहुत बड़ी मदद की मुझे आशा है।
इन्द्र - सो कैसे क्या तुम नहीं जानते कि मायारानी का तिलिस्मी दारोगा मेरा गुरुभाई है और वह तुम्हें दुश्मनी की निगाह से देखता है?
भूत - इन बातों को मैं खूब जानता हूं और इतना जनाने पर भी आपसे मदद लेने के लिए आया हूं।
इन्द्र - यह तुम्हारी भूल है।
भूत - नहीं मेरी भूल कदापि नहीं है, यद्यपि आप दारोगा के गुरुभाई हैं मगर मैं इस बात को अच्छी तरह जानता हूं कि आपके और उसके मिजाज में उलटे-सीधे का फर्क है, और मैं जिस काम में आपसे मदद लिया चाहता हूं वह नेक और धर्म का काम है।
इन्द्र - (कुछ सोचकर) अगर तुम यह समझकर कि मैं तुम्हारी मदद न करूंगा मतलब कह सकते हो तो कहो, जैसा होगा मैं जवाब दूंगा।
भूत - यह तो मैं समझ ही नहीं सकता कि आपसे किसी तरह की मदद नहीं मिलेगी, मदद मिलेगी और जरूर मिलेगी क्योंकि आपसे और बलभद्रसिंह से दोस्ती थी और उस दोस्ती का बदला आप उस तरह नहीं अदा कर सकते जिस तरह दारोगा साहब ने किया था।
इस समय उस कमरे में वे तीनों आदमी भी मौजूद थे जो भूतनाथ को अपने साथ यहां तक लाये थे, इन्द्रदेव ने उन तीनों को बिदा करने के बाद कहा -
इन्द्र - क्या तुम उस बलभद्रसिंह के बारे में मुझसे कुछ मदद लिया चाहते हो जिसे मरे आज कई वर्ष बीत चुके हैं
भूत - जी हां, उसी बलभद्रसिंह के बारे में जिसकी लड़की तारा बनकर कमलिनी के साथ रहने वाली लक्ष्मीदेवी है और जिसे आप चाहे मरा हुआ समझते हैं मगर मैं मरा हुआ नहीं समझता।
इन्द्र - (आश्चर्य से) क्या तारा ने अपना भेद प्रकट कर दिया! और क्या तुम्हें कोई ऐसा सबूत मिला है जिससे समझा जाय कि बलभद्रसिंह अभी तक जीता है
भूत - जी, तारा का भेद यकायक प्रकट हो गया है जिसे मैं भी नहीं जानता था कि वह लक्ष्मीदेवी है, और बलभद्रसिंह के जीते रहने का सबूत भी मुझे मिल गया, मगर आपने तारा का नाम इस ढंग से लिया जिससे मालूम होता है कि आप तारा का असल भेद पहिले ही से जानते थे।
इन्द्र - नहीं-नहीं, मैं भला क्योंकर जान सकता था कि तारा लक्ष्मीदेवी है, यह तो आज तुम्हारे ही मुंह से मालूम हुआ है। अच्छा तुम पहिले यह तो कह जाओ कि तारा का भेद क्योंकर प्रकट हुआ, तुम किस मुसीबत में पड़े हो, और इस बात का क्या सबूत तुम्हारे पास है कि बलभद्रसिंह अभी तक जीते हैं क्या बलभद्रसिंह जान-बूझकर कहीं छिपे हुए हैं या किसी की कैद में हैं?
भूत - नहीं-नहीं, बलभद्रसिंह जान-बूझकर छिपे हुए नहीं हैं बल्कि कहीं कैद में हैं। मैं उन्हें छुड़ाने की फिक्र में लगा हूं और इसी काम में आपसे मदद लिया चाहता हूं क्योंकि अगर बलभद्रसिंह का पता लग गया तो आपको दो जानें बचाने का पुण्य मिलेगा।
इन्द्र - दूसरा कौन?
भूत - दूसरा मैं, क्योंकि अगर बलभद्रसिंह का पता न लगेगा तो निश्चय है कि मैं भी मारा जाऊंगा।
इन्द्र - अच्छा तुम पहिले अपना पूरा हाल कह जाओ।
इतना सुनकर भूतनाथ ने अपना हाल उस जगह से जब भगवनिया के सामने नकली बलभद्रसिंह से उससे मुलाकात हुई थी कहना शुरू किया और इन्द्रदेव बड़े गौर से उसे सुनते रहे। भूतनाथ ने अपना कैदियों की हालत में रोहतासगढ़ पहुंचना, कृष्णा जिन्न से मुलाकात होना, मायारानी और दारोगा इत्यादि की गिरफ्तारी, राजा वीरेन्द्रसिंह के आगे मुकद्दमे की पेशी, कृष्णा जिन्न के पेश किये हुए अनूठे कलमदान की कैफियत, असली बलभद्रसिंह को खोज निकालने के लिए अपनी रिहाई, और राजा गोपालसिंह के पास से बिना कुछ मदद पाये बैरंग लौट आने का हाल सब पूरा-पूरा इन्द्रदेव से कह सुनाया। इन्द्रदेव थोड़ी देर तक चुपचाप कुछ सोचते रहे। भूतनाथ ने देखा कि उनके चेहरे का रंग थोड़ी-थोड़ी देर में बदलता है और कभी लाल कभी सफेद और कभी जर्द होकर उनके दिल की अवस्था का थोड़ाबहुत हाल प्रकट करता है।
इन्द्र - (कुछ देर बाद) मगर तुम्हारे इस किस्से में कोई ऐसा सबूत नहीं मिला जिससे बलभद्रसिंह का अभी तक जीते रहना साबित होता हो
भूत - क्या मैंने आपसे अभी नहीं कहा कि असली बलभद्रसिंह के जीते रहने का मुझे शक हुआ और कृष्णा जिन्न ने मेरे उस शक को यह कहकर विश्वास के साथ बदल दिया कि 'बेशक असली बलभद्रसिंह अभी तक कहीं कैद है और तू जिस तरह से बन सके उसका पता लगा।'
इन्द्र - हां यह तो तुमने कहा मगर मैं यह नहीं जानता कि कृष्णा जिन्न कौन है और उसकी बातों पर कहां तक विश्वास करना चाहिए।
भूत - अफसोस, आपने कृष्णा जिन्न की कार्रवाई पर अच्छी तरह ध्यान नहीं दिया जो मैं आपसे कह चुका हूं। यद्यपि मैं स्वयं उसे नहीं जानता परन्तु जिस समय कृष्णा जिन्न ने वह अनूठा कलमदान पेश किया जिसे देखने के साथ ही नकली बलभद्रसिंह की आधी जान निकल गई, जिस पर निगाह पड़ते ही लक्ष्मीदेवी बेहोश हो गई, जिसे एक झलक ही में मैं पहिचान गया। जिस पर मीनाकारी की तीन तस्वीरें बनी हुई थीं, और जिस पर बीचली तस्वीर के नीचे मीनाकारी के मोटे खूबसूरत अक्षरों में 'इन्दिरा' लिखा हुआ था, उसी समय मैं समझ गया कि यह साधारण नहीं है।
इन्द्र - (चौंककर) क्या कहा! क्या लिखा हुआ था? 'इन्दिरा!' और यह कहने के साथ ही इन्द्रदेव के चेहरे का रंग उड़ गया तथा आश्चर्य ने उस पर अपना रोआब जमा लिया।
भूत - हां-हां, 'इन्दिरा' - बेशक यही लिखा हुआ था।
अब इन्द्रदेव अपने को किसी तरह सम्हाल न सका। वह घबराकर उठ खड़ा हुआ और धीरे-धीरे निम्नलिखित बातें कहता हुआ इधर-उधर घूमने लगा -
“ओफ, मुझे धोखा हुआ! वाह रे दारोगा, तैने इन्द्रदेव ही पर अपना हाथ साफ किया, जिसने तेरे सैकड़ों कसूर माफ किये और फिर भी तेरे रोने-पीटने और बड़ी-बड़ी कसमें खाने पर विश्वास करके तुझे राजा वीरेन्द्रसिंह की कैद से छुड़ाया! वाह रे जैपाल, तुझे तो इस तरह तड़पा-तड़पाकर मारूंगा कि गन्दगी पर बैठने वाली मक्खियों को भी तेरे हाल पर रहम आवेगा! लक्ष्मीदेवी का बाप बनकर चला था मायारानी और दारोगा की मदद करने! वाह रे कृष्णा जिन्न ईश्वर तेरा भला करे! मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि तुझको यह हाल-हाल ही में मालूम हुआ है। आह, मैंने वास्तव में धोखा खाया। लक्ष्मीदेवी की बहुत ही प्यारी इन्दिरा! अच्छा-अच्छा, ठहर जा, देख तो सही मैं क्या करता हूं। भूतनाथ ने यद्यपि बहुत से बुरे काम किये हैं परन्तु अब वह उनका प्रायश्चित्त भी बड़ी खूबी के साथ कर रहा है। (भूतनाथ की तरफ देखके) अच्छा-अच्छा, मैं तुम्हारा साथ दूंगा मगर अभी नहीं, जब तक मैं उस कलमदान को अपनी आंखों से न देख लूंगा तब तक मेरा जी ठिकाने न होगा।”
भूत - (जो बड़े गौर से इन्द्रदेव का बड़बड़ाना सुन रहा था) हां-हां, आप उसे देख सकते हैं, मेरे साथ रोहतासगढ़ चलिये।
इन्द्र - तुम्हारे साथ चलने की कोई आवश्यकता नहीं, तुम इसी जगह रहो, मैं अकेला ही जाऊंगा और बहुत जल्द ही लौटा आऊंगा।
इतना कहकर इन्द्रदेव ने ताली बजाई और आवाज के साथ ही अपने दो आदमियों को कमरे के अन्दर आते देखा। इन्द्रदेव अपने आदमियों से यह कहकर कि, “तुम लोग भूतनाथ को खातिरदारी के साथ यहां रक्खो जब तक कि मैं एक छोटे सफर से न लौट आऊं”, कमरे के बाहर हो गये और तब दूसरे कमरे में जिसकी ताली वे अपने पास रक्खा करते थे ताला खोलकर चले गये। इस कमरे में खूंटियों के सहारे तरह-तरह के कपड़े, ऐयारी के बहुत से बटुए, रंग-बिरंगे नकाब, एक से एक बढ़कर नायाब और बेशकीमत हर्बे और कमरबन्द वगैरह लटक रहे थे और एक तरफ लोहे तथा लकड़ी के छोटे-बड़े सन्दूक भी रक्खे हुए थे। इन्द्रदेव ने अपने मतलब का एक जोड़ा (बेशकीमत पोशाक) खूंटी से उतारकर पहिर लिया और जो कपड़े पहिले पहिरे हुए थे उतारकर एक तरफ रख दिये। सुर्ख रंग की नकाब उतारकर चेहरे पर लगाई, ऐयारी का बटुआ बगल में लटकाने के बाद बेशकीमत हर्बों से अपने को दुरुस्त किया और इसके बाद लोहे के एक सन्दूक में से कुछ निकालकर कमर में रख कमरे के बाहर निकल आये, कमरे का ताला बन्द किया और तब बिना भूतनाथ से मुलाकात किये ही वहां से रवाना हो गये।

 

 


 

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