कीमती जवाहरात की चीजों की गठरी लादे हुए मालिक को चौपट करने वाली हरामजादी भगवानी जब भागी तो उसने फिरके देखा भी नहीं कि पीछे क्या हो रहा है या कौन आ रहा है।
रात पहर भर से कुछ ज्यादा जा चुकी थी और चांदनी खूब निखरी हुई थी जब हांफती और कांपती हुई भगवानी एक घने जंगल के अन्दर जिसमें चारों तरफ परले सिरे का सन्नाटा छाया हुआ था पहुंचकर एक पत्थर की चट्टान पर बैठी और फिर इस तरह से लेट गई जैसे कोई हताश होकर गिर पड़ता है। वह अपनी बिसात से ज्यादा चल और दौड़ चुकी थी और इसीलिए बहुत सुस्त हो गई थी। इस पत्थर की चट्टान पर पहुंचकर उसने सोचा था कि अब बहुत दूर निकल आये हैं कोई धरने-पकड़ने वाला है नहीं अतएव थोड़ी देर तक बैठकर आराम कर लेना चाहिए, मगर बैठने के साथ ही पहले जिस पर उसकी निगाह पड़ी वह श्यामसुन्दरसिंह था जिसे देखते ही उसका कलेजा धक से हो गया और चेहरे पर मुर्दनी छा गई। उसकी तेजी के साथ चलती सांस दो-चार पल के लिए रुक गयी और वह घबड़ाकर उसका मुंह देखने लगी।
श्यामसुन्दरसिंह - क्यों तूने तो समझा होगा कि बस अब मैं बचकर निकल आई और जवाहरात की गठरी नरम चारे की तरह हजम हो गई!
भगवानी - (कुछ सोचकर) नहीं-नहीं, मैं इसमें से तुम्हें आधा बांट देने के लिए तैयार हूं। आखिर दुश्मन लोग इसे भी लूटकर ले ही जाते, अगर मैं बचाकर ले आई तो क्या बुरा हुआ सो भी बांट देने के लिए तैयार हूं।
श्यामसुन्दरसिंह - ठीक है मगर मैं आधा बांटकर नहीं लिया चाहता बल्कि सब लिया चाहता हूं।
भगवानी - सो कैसे होगा जरा सोचो तो सही कि मैं दुश्मनों के हाथ से कितनी मेहनत करके इसे बचा लाई हूं, और सब तुम्हीं ले लोगे तो मुझे क्या फायदा होगा?
श्यामसुन्दरसिंह - तो क्या तू कुछ फायदा उठाना चाहती है अगर ऐसा ही है तो मालिक के साथ नमकहरामी या दगा करने और दुश्मनों को बचाकर कैदखाने के बाहर कर देने में जो उचित लाभ होना चाहिए वह तुझे होगा!
भगवानी - (चौंककर) आपने क्या कहा सो मैं न समझी! क्या आपको मुझ पर किसी तरह का शक है?
श्याम - नहीं, शक तो कुछ भी नहीं है या अगर है भी तो केवल दो बातों का-एक तो कैदियों को बचाकर निकाल देने का और दूसरे मालिक के साथ दगा करने का।
भगवानी - नहीं-नहीं, कैदी लोग किसी और ढंग से निकल गये होंगे, मुझे तो उनकी कुछ खबर नहीं और तारा के साथ दगा करने के विषय में जो कुछ आप कहते हैं सो वह काम मेरा न था, बल्कि एक दूसरी लौंडी का था जिसके सबब से बेचारी तारा मौत...।
इतना कहकर भगवानी रुक गई। उसके रंग-ढंग से मालूम होता था कि जल्दी में आकर वह कोई ऐसी बात मुंह से निकाल बैठी है जिसे वह बहुत छिपाती थी। श्यामसुन्दरसिंह को भी उसकी आखिरी बात से निश्चय हो गया कि हरामजादी भगवानी ने दुश्मनों से मिलकर बेचारी तारा को मौत के पंजे में फंसा दिया, अस्तु बिना असल भेद का पता लगाए इसे कदापि न छोड़ना चाहिए।
श्याम - हां-हां, कहती चल, रुकी क्यों?
भगवानी - यही कि मैंने ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे मालिक का नुकसान हो।
श्याम - अच्छा यह बता कि कैदियों को निकालने वाला और तारा को फंसाने वाला कौन है?
भगवानी - यह काम नमकहराम लालन लौंडी का है।
श्याम - यदि मैं इस समय के लिए तेरा ही नाम लालन रख दूं तो क्या हर्ज है क्योंकि मेरी समझ में बेचारी लालन निर्दोष है, जो कुछ किया तू ही ने किया, कैदियों ने तुझी को अपना विश्वासपात्र समझा, तुझी से काम लिया और तेरी ही मदद से निकल भागे, इतने दुश्मनों को भी तू ही बटोरकर लाई है और इतने पर भी संतोष न पाकर बेचारी तारा को भी तूने ही...।
भगवानी - (हाथ जोड़कर) नहीं-नहीं, ऐसे आप मुझे व्यर्थ दोषी न ठहरायें, भला ऐसे मालिक के साथ मैं विश्वासघात करूंगी जो मुझे दिल से चाहे।
श्याम - (कमर से एक चिट्ठी निकालकर और भगवानी को दिखाकर) और यह क्या है क्या इसमें भी लालन का नाम लिखा है कोई हर्ज नहीं, अपने हाथ में लेकर अच्छी तरह देख ले क्योंकि यद्यपि यह रात का समय है, फिर भी चन्द्रदेव ने अपनी किरणों से दिन की तरह बना रक्खा है।
यह चिट्ठी उन तीनों चीठियों में एक थी जो शिवदत्त, माधवी और मनोरमा ने लिखकर भगवानी को दी थीं। न मालूम श्यामसुन्दरसिंह के हाथ यह चिट्ठी कैसे लगी। भगवनिया इस चिट्ठी को देखते ही जर्द पड़ गई, कलेजा धकधक करने लगा, मौत की भयानक सूरत सामने दिखाई देने लगी, गला रुक गया, वह कुछ भी जवाब न दे सकी। अब श्यामसुन्दरसिंह बर्दाश्त न कर सका, उसने एक तमाचा भगवानी के मुंह पर जमाया और कहा - “कम्बख्त! अब बोलती क्यों नहीं!”
जब भगवानी ने इस बात का भी जवाब न दिया तब श्यामसुन्दरसिंह ने म्यान से तलवार निकाल ली और हाथ ऊंचा करके कहा, “अब भी अगर साफ-साफ भेद न बतावेगी तो मैं एक ही हाथ में दो टुकड़े कर दूंगा।”
भगवानी को निश्चय हो गया कि अब जान किसी तरह नहीं बच सकती, इसके अतिरिक्त डर के मारे उसकी अजब हालत हो गई, और कुछ तो न कर सकी, हां एकदम जोर से चिल्ला उठी और इसके साथ ही एक तरफ से आवाज आई - “कौन है जो मर्द होकर एक स्त्री की जान लिया चाहता है'
श्यामसुन्दरसिंह ने फिरकर देखा तो दाहिनी तरफ थोड़ी ही दूर पर एक नौजवान को हाथ में खंजर लिए मौजूद पाया। उस नौजवान ने श्यामसुन्दरसिंह से पुनः कहा, “यह काम मर्दों का नहीं है जो तुम किया चाहते हो!” जिसके जवाब में श्यामसुन्दरसिंह ने कहा, “बेशक यह काम मर्दों का नहीं मगर लाचार हूं कि यह नमकहराम मेरी बातों का जवाब नहीं देती और मैं बिना जवाब पाये इसे किसी तरह नहीं छोड़ सकता।”
यह आदमी, जो श्यामसुन्दरसिंह के पास यकायक आ पहुंचा था, हमारा नामी ऐयार भैरोसिंह था जो कमलिनी के मकान के दुश्मनों से घिर जाने की खबर पाकर उसी तरफ जा रहा था और इत्तिफाक से यहां आ पहुंचा था, मगर वह श्यामसुन्दरसिंह और भगवनिया को नहीं पहचानता था और वे दोनों भी इसे सूरत बदले हुए और रात का समय होने के कारण न पहचान सके। भैरोसिंह ने पुनः कहा –
भैरोसिंह - यदि हर्ज न हो तो मुझे बताओ कि यह तुम्हारी किन बातों का जवाब नहीं देती?
श्याम - बता देने में हर्ज तो कोई नहीं अगर आप उन लोगों में से नहीं हैं जिन्हें हम लोग अपना दुश्मन समझते हैं, क्योंकि यह भेद की बात है और अपना भेद दुश्मनों के सामने प्रकट करना नीति के विरुद्ध है। उत्तम तो यह होगा कि हमारा भेद जानने के पहले आप अपना परिचय दें।
भैरो - तो तुम्हीं अपना परिचय क्यों नहीं देते?
श्याम - इसलिए कि ऐयार लोग भेद जानने के लिए समय पड़ने पर उसी पक्ष वाले बन जाते हैं जिससे अपना काम निकालना होता है।
भैरोसिंह - ठीक है, मगर बहादुर राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों में से कोई भी ऐसा कमहिम्मत नहीं है जो खुले मैदान में एक औरत और एक मर्द से अपने को छिपाने का उद्योग करे।
श्याम - (खुश होकर) अहा, अब मालूम हो गया कि आप राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों में से कोई हैं। ऐसी अवस्था में मैं भी यह कहने में विलम्ब न लगाऊंगा कि मैं श्यामसुन्दरसिंह नामी कमलिनीजी का सिपाही हूं और यह भगवानी नाम की उन्हीं की बेईमान लौंडी है जिसकी नमकहरामी और बेईमानी का यह नतीजा निकला कि दुश्मनों ने तालाब वाले तिलिस्मी मकान पर कब्जा कर लिया और किशोरी, कामिनी तथा तारा का कुछ पता नहीं लगता। अब तक जो मालूम हुआ है उससे जाना जाता है कि इसी कम्बख्त ने उन तीनों को भी किसी आफत में फंसा दिया है जिसका खुलासा भेद मैं इससे पूछ रहा था कि आपकी आवाज आई और आपसे बातचीत करने की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।
भैरोसिंह - (जोश के साथ) वाह, यह तो एक ऐसा भेद है जिसके जानने का सबसे पहला हकदार मैं हूं। मैं उन्हीं तीनों से मिलने के लिए जा रहा था जब रास्ते में मुझे यह मालूम हुआ कि उस तिलिस्मी मकान को दुश्मनों ने घेर लिया है इसलिए जल्द पहुंचने की इच्छा से जंगल ही जंगल दौड़ा जा रहा था कि यहां तुम लोगों से भेंट हो गई।
श्याम - यदि ऐसा है तो अब कृपा कर आप अपनी असली सूरत शीघ्र दिखाइये जिससे मैं आपको पहचानकर अपने दिल के बचे-बचाये खुटके को निकाल डालूं क्योंकि राजा वीरेन्द्रसिंह के कुल ऐयारों को मैं पहचानता हूं।
श्यामसुन्दरसिंह की बात सुनकर भैरोसिंह ने बटुए में से सामान निकालकर बत्ती जलाई और बनावटी बालों को अलग करके अपना चेहरा साफ दिखा दिया। श्यामसुन्दरसिंह यह कहकर कि 'अहा, मैंने बखूबी पहचान लिया कि आप भैरोसिंहजी हैं' भैरोसिंह के पैरों पर गिर पड़ा और भैरोसिंह ने उसे उठाकर गले से लगा लिया। इसके बाद श्यामसुन्दरसिंह ने अपनी तरफ का पूरा-पूरा हाल इस समय तक का कह सुनाया।
भैरोसिंह - अफसोस, बात ही बात में यहां तक नौबत जा पहुंची। लोग सच कहते हैं कि घर का एक गुलाम बैरी बाहर के बादशाह बैरी से भी जबर्दस्त होता है जिसकी ताबेदारी में हजारों दिलावर पहलवान और ऐयार लोग रहा करते हैं। खैर जो होना था सो तो हो गया, अब इस (भगवनिया की तरफ इशारा करके) कम्बख्त से किशोरी, कामिनी और तारा का सच्चा-सच्चा हाल मैं बात की बात में पूछ लेता हूं। यह औरत है इसलिए मैं खंजर को तो म्यान में कर लेता हूं और हाथ में उस दुष्टदमन को लेता हूं जिसके भरोसे ऐसे जंगल में कांटों से निर्भय रहकर चलता रहा, चलता हूं और यदि इसकी खातिरदारी से यह बच गया तो चलूंगा! हां एक बात तो मैंने कही ही नहीं।
श्याम - वह क्या?
भैरोसिंह - वह यह कि मैं यहां अकेला नहीं हूं। बल्कि दो ऐयारों को साथ लिए हुए कमलिनी रानी अभी इसी जंगल में मौजूद हैं।
श्याम - आहा, यह तो आपने भारी खुशखबरी सुनाई, बताइये वे कहां हैं, मैं उनसे मिलना चाहता हूं।
कम्बख्त भगवनिया अब अपनी मौत अपनी आंखों के सामने देख रही थी। भैरोसिंह के पहुंचने से उसकी आधी जान तो जा ही चुकी थी, अब यह खबर सुनके कि कमलिनी भी यहां मौजूद है वह एकदम मुर्दा-सी हो गई। उसे निश्चय हो गया कि अब उसकी जान किसी तरह नहीं बच सकती। भैरोसिंह ने जोर से जफील बजाई और इसके साथ ही थोड़ी दूर में सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट के साथ ही घोड़ों की टापों की आवाज आने लगी और उस आवाज ने क्रमशः नजदीक होकर भूतनाथ तथा देवीसिंह और घोड़ों पर सवार कमलिनी रानी तथा लाडिली की सूरत पैदा कर दी।

 

 


 

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