अहा, ईश्वर की महिमा भी कैसी विचित्र है! बुरे कर्मों का बुरा फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। जो मायारानी अपने सामने किसी को कुछ समझती ही न थी, वही आज किसी के सामने जाने या किसी को मुंह दिखाने का साहस नहीं कर सकती। जो मायारानी कभी किसी से डरती ही न थी, वही आज एक पत्ते के खड़खड़ाने से भी डरकर बदहवास हो जाती है। जो मायारानी दिन-रात हंसी-खुशी में बिताया करती थी, वह आज रो-रोकर अपनी आंखें सुजा रही है। संध्या के समय भयानक जंगल में उदास और दुःखी मायारानी केवल पांच लौंडियों के साथ सिर झुकाये अपने किये हुए बुरे कर्मों की याद कर-करके पछता रही है। रात की अवाई के कारण जैसे-जैसे अंधेरा होता जाता है, तैसे-तैसे उसकी घबड़ाहट भी बढ़ती जाती है। इस समय मायारानी और उसकी लौंडियां मर्दाने भेष में हैं। लौंडियों के पास नीमचा तथा तीर-कमान मौजूद हैं। मगर मायारानी केवल तिलिस्मी तमंचा कमर में छिपाये हुए है। वह घबड़ा-घबड़ाकर बार-बार पूरब की तरफ देख रही है, जिससे मालूम होता है कि इस समय उधर से कोई उसके पास आने वाला है। थोड़ी ही देर बाद अच्छी तरह अंधेरा हो गया और इसी बीच में पूरब की तरफ से किसी के आने की आहट मालूम हुई। यह लीला थी जो मर्दाने भेष में पीतल की जालदार लालटेन लिए हुए कहीं दूर से चली आ रही थी। जब वह पास आयी, मायारानी ने घबड़ाहट के साथ पूछा, “कहो, क्या हाल है।'
लीला - हाल बहुत ही खराब है, अब तुम्हें जमानिया की गद्दी कदापि नहीं मिल सकती।
मायारानी - यह तो मैं पहले से समझे बैठी हूं। तू दीवान साहब के पास गई था।
लीला - हां, गई थी, उस समय उन सिपाहियों में से कई सिपाही वहां मौजूद थे जो आपके तिलिस्मी बाग में रहते हैं और जिन्होंने दोनों नकाबपोशों का साथ दिया था। उस समय वे सिपाही दीवान साहब से दोनों नकाबपोशों का हाल बयान कर रहे थे, मगर मुझे देखते ही चुप हो गये।
मायारानी - तब क्या हुआ?
लीला - दीवान साहब ने मुझे एक तरफ बैठने का इशारा किया और पूछा कि 'तू यहां क्यों आई है इसके जवाब मैं मैंने कहा कि 'मायारानी हम लोगों को छोड़कर न मालूम कहां चली गई। जब चारों तरफ ढूंढने पर भी पता न लगा तो इत्तिला के लिए आपके पास आई हूं।' यह सुनकर दीवान साहब ने कहा कि 'अच्छा ठहर, मैं इन सिपाहियों से बातें कर लूं, तब तुझसे करूं।'
मायारानी - अच्छा, तब तूने उन सिपाहियों की बातें सुनीं।
लीला - जी नहीं, सिपाहियों ने मेरे सामने बात करने से इनकार किया और कहा कि 'हम लोगों को लीला पर विश्वास नहीं है!' आखिद दीवान साहब ने मुझे बाहर जाने का हुक्म दिया। उस समय मुझे अंदाज से मालूम हुआ कि मामला बेढब हो गया और ताज्जुब नहीं कि मैं गिरफ्तार कर ली जाऊं, इसलिए पहरे वालों से बात बनाकर मैंने अपना पीछा छुड़ाया और भागकर मैदान का रास्ता लिया।
मायारानी - संक्षेप में कह कि उन दोनों नकाबपोशों का कुछ भेद मालूम हुआ कि नहीं?
लीला - दोनों नकाबपोशों का असल भेद कुछ भी मालूम न हुआ, हां उस आदमी का पता लग गया, जिसने बाग से निकल भागने का विचार करते समय गुप्त रीति से कहा था कि 'बेशक-बेशक, तुम मरते-मरते भी हजारों घर चौपट करोगी!'
मायारानी - हां, कैसे पता लगा वह कौन था।
लीला - वह भूतनाथ था। जब मैं दीवान साहब के यहां से भागकर शहर के बाहर हो रही थी, यकायक उससे मुलाकात हुई। उसने स्वयं मुझसे कहा कि 'फलां बात का कहने वाला मैं हूं, तू मायारानी से कह दीजियो कि अब तेरे दिन खोटे आए हैं, अपने किए का फल भोगने के लिए तैयार हो रहे, हां, यदि मुझे कुछ देने की सामर्थ्य हो तो मैं उसका साथ दे सकता हूं।'
मायारानी - (ऊंची सांस लेकर) हाय! अच्छा और क्या-क्या मालूम हुआ?
लीला - और क्या कहूं राजा वीरेन्द्रसिंह की बीस हजार फौज आ गई है, जिसकी सरदारी नाहरसिंह कर रहा है। दीवान साहब ने एक सरदार को पत्र देकर नाहरसिंह के पास भेजा था, मालूम नहीं उस पत्र में क्या लिखा था, मगर नाहरसिंह ने उसका यह जवाब जबानी कहला भेजा कि केवल मायारानी को गिरफ्तार करने के लिए आए हैं। इसके बाद पता चला कि दीवान साहब ने आपकी खोज में कई जासूस रवाना किए हैं।
मायारानी - तो इससे निश्चित होता है कि कम्बख्त दीवान भी मेरा दुश्मन हो गया!
लीला - क्या इस बात में अब भी शक है?
मायारानी - (लम्बी सांस लेकर) अच्छा और क्या मालूम हुआ?
लीला - एक बात सबसे ज्यादा ताज्जुब की मालूम हुई।
मायारानी - वह क्या?
लीला - रात के समय भेष बदलकर मैं राजा वीरेन्द्रसिंह के लश्कर में गई थी। घूमते-फिरते ऐसी जगह पहुंची, जहां से नाहरसिंह का खेमा सामने दिखाई दे रहा था और उस खेमे के दरवाजे पर मशाल हाथ में लिए हुए पहरा देने वाले सिपाहियों की चाल साफ-साफ दिखाई दे रही थी। मैंने देखा कि खेमे के अन्दर से दो नकाबपोश निकले और जहां मैं खड़ी थी उसी तरफ आने लगे।
मैं किनारे हट गयी। जब वे मेरे पास से होकर निकले तो उनकी चाल और उनके कद से मुझे निश्चय हो गया कि वे दोनों नकाबपोश वही हैं जो हमारे बाग में आये थे और जिन्होंने धनपत को पकड़ा था।
मायारानी - हां!
लीला - जी हां!
मायारानी - अफसोस, इसका पता कुछ भी न लगा कि वे दोनों आखिर हैं कौन मगर इसमें कोई सन्देह नहीं कि वे खास बाग के तिलिस्मी भेदों को जानते हैं और इस समय तेरी जबानी सुनने से यह जाना जाता है कि वे दोनों राजा वीरेन्द्रसिंह के पक्षपाती भी हैं।
लीला - इसका निश्चय नहीं हो सकता कि वे दोनों नकाबपोश राजा वीरेन्द्रसिंह के पक्षपाती हैं, शायद वे नाहरसिंह से मदद लेने गये हों।
मायारानी - ठीक है, यह भी हो सकता है। लेकिन बात तो यह है कि मैं सिवाय गोपालसिंह के और किसी से नहीं डरती, न मुझे रिआया के बिगड़ने का कोई डर है न सिपाहियों या फौज के बागी होने का खौफ, न दीवान-मुत्सद्दियों के बिगड़ने का अन्देशा और न कमलिनी और लाडिली की बेबफाई का रंज - क्योंकि मैं इन सभी को अपनी करामात से नीचा दिखा सकती हूं, हां, यदि गोपालसिंह के बारे में कम्बख्त भूतनाथ ने मुझे धोखा दिया है जैसा कि तू कह चुकी है तो बेशक खौफ की बात है। अगर वह जीता है तो मुझे बुरी तरह हलाल करेगा। वह इस बात से कदापि नहीं डरेगा कि मेरा भेद खुलने से उसकी बदनामी होगी, क्योंकि मैंने उसके साथ बहुत बुरा सलूक किया है। जिस समय कम्बख्त कमलिनी और वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों ने गोपालसिंह को कैद से छुड़ाया था, यदि गोपालसिंह चाहता तो उसी समय मुझे जहन्नुम को भेज सकता था। मगर उसका ऐसा न करना मेरा कलेजा और भी दहला रहा है, शायद मौत से भी बढ़कर कोई सजा उसने मेरे लिए सोच ली है, हाय अफसोस! मैंने तिलिस्मी भेद जानने के लिए उसे क्यों इतने दिनों तक कैद में रख छोड़ा! उसी समय उसे मार डाला होता तो यह बुरा दिन क्यों देखना पड़ता हाय, अब तो मौत से भी कोई भारी सजा मुझे मिलने वाली है। (रोती है)
लीला - अब रोने का समय नहीं है, किसी तरह जान बचाने की फिक्र करनी चाहिए।
मायारानी - (हिचकी लेकर) क्या करूं कहां जाऊं किससे मदद मांगूं ऐसी अवस्था में कौन मेरी सहायता करेगा हाय, आज तक मैंने किसी के साथ किसी तरह की नेकी नही की, किसी को अपना दोस्त न बनाया और किसी पर अहसान का बोझ न डाला। फिर किसी को क्या गरज पड़ी है, जो ऐसी अवस्था में मेरी मदद करे। वीरेन्द्रसिंह के लड़कों से दुश्मनी करना मेरे लिए और भी जहर हो गया।
लीला - खैर, जो हो गया सो हो गया, अब इस समय इन सब बातों का सोच-विचार करना और भी बुरा है। मैं इस मुसीबत में हर तरह तुम्हारा साथ देने के लिए तैयार हूं और अब भी तुम्हारे पास ऐसी-ऐसी चीजें है कि उनसे कठिन-से-कठिन काम निकल सकता है, रुपये-पैसे की तरफ से भी कुछ तकलीफ नहीं हो सकती, क्योंकि सेरों जवाहिरात पास में मौजूद हैं फिर इतनी चिन्ता क्यों कर रही हो?
मायारानी - चिन्ता क्यों न की जाये एक मनोरमा का मकान छिपकर रहने योग्य था सो वहां भी वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों के चरण जा पहुंचे। तू ही कह चुकी है कि किशोरी और कामिनी को ऐयार लोग छुड़ाकर ले गये। नागर को भी उन लोगों ने फंसा लिया होगा। अब सबसे पहला काम तो यह है कि छिपकर रहने के लिए कोई जगह खोजी जाये इसके बाद जो कुछ करना होगा किया जायेगा। हाय, अगर गोपालसिंह की मौत हो गई होती तो न मुझे रिआया के बागी होने का डर था और न राजा वीरेन्द्रसिंह की दुश्मनी का।
लीला - छिपकर रहने के लिए मैं जगह का बन्दोबस्त कर चुकी हूं। यहां से थोड़ी ही दूर पर...।
लीला इससे ज्यादा कुछ कहने न पाई थी कि पीछे की तरफ से कई आदमियों के दौड़ते हुए आने की आहट हुई। बात-की-बात में वे लोग, जो वास्तव में चोर थे, चोरी का माल लिए हुए उस जगह आ पहुंचे जहां मायारानी और उसकी लौंडियां बैठी बातें कर रही थीं। ये चोर गिनती में पांच थे और उनके पीछे-पीछे कई सवार भी उनकी गिरफ्तारी के लिए चले आ रहे थे, जिनके घोड़ों की टापों की आवाज बखूबी आ रही थी। जब वे चोर मायारानी के पास पहुंचे, तो यह सोचकर कि पीछा करने वाले सवारों के हाथ से बचना मुश्किल है, वे चोरी का माल उसी जगह पटककर आगे की तरफ भाग गये और इसके थोड़ी ही देर बाद वे कई सवार भी उसी जगह पर, जहां मायारानी थी, आ पहुंचे। उन्होंने देखा कि कई आदमी बैठे हुए हैं, बीच में एक लालटेन जल रही है, और चोरी का माल भी उसी जगह पड़ा हुआ है। उन्हें निश्चय हो गया कि ये चोर हैं अतः उन्होंने मायारानी तथा उसकी लौंडियों को चारों तरफ से घेर लिया।

 

 


 

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