यह ठीक है कि योग या कर्मयोग की बात तो 47वें श्लोक से ही शुरू होती है और 2 श्लोकों में उसके स्वरूप को अच्छी तरह बता के उसी का विवेचन आगे किया है। लेकिन 39-46 श्लोकों में उसी योग की महत्तासूचक स्वतंत्र प्रस्तावना दी गई है। यह समूचे गीतोपदेश की प्रस्तावना न होके सिर्फ उसी योग की है। इसीलिए हमने इसे स्वतंत्र कहा है। यह भी बड़े काम की चीज है, खासकर योग-संबंधी आगे की बातें समझने और पिछली बातों के साथ संबंध जानने के लिए। यह योग तो गीता की खास देन है यह पहले ही कहा जा चुका है। इसीलिए इस पर ज्यादा प्रकाश डालना जरूरी है। इसी दृष्टि से इसकी स्वतंत्र प्रस्तावना के 8 श्लोकों के साथ ही तत्त्वज्ञान संबंधी पहले के 11-38 श्लोकों पर भी एक निगाह डालने की आवश्यकता है। ऐसा करते ही मालूम हो जाता है कि 11-30 श्लोकों में तो आत्मा की अजरता, अमरता, निर्विकारिता और नित्यता का प्रतिपादन बहुत अच्छी तरह किया गया है। यह ठीक है कि वह प्रतिपादन यहाँ स्वतंत्र नहीं है; किंतु स्वधर्म और स्वकर्म की कर्तव्यता की पुष्टि के ही लिए किया गया है। इसी से यह भी निर्विवाद हो जाता है कि गीतोपदेश की भित्ति की बुनियाद अध्याात्मवाद से ही बनी है। इसीलिए शुरू में वही बात आई है। मरने-मारने के तथा हिंसा-अहिंसा के ही खयाल से तो अर्जुन स्वकर्म से विचलित हो रहा था। कृष्ण ने शुरू में ही उसकी जड़ ही काट दी।
उनने कह दिया है कि मरने-मारने तथा हिंसा-अहिंसा का खयाल तो महज नादानी है। भीष्मादि की आत्मा तो मरती नहीं और न दूसरों को मारती है। क्योंकि सभी आत्माएँ अविनाशी और निर्विकार हैं। फिर हिंसा-अहिंसा की बात ही कहाँ रही? रह गई उनके शरीरों की बात। सो तो आज खत्म हुए, कल खत्म हुए जैसे ही हैं। उनका नाश तो कोई भी शक्ति - परमेश्वर भी - रोक सकती नहीं। वह तो अनिवार्य है अवश्यंभावी है। यदि युद्ध में नहीं, तो ज्वर महामारी आदि से ही वे शरीर एक न एक दिन खत्म होंगे ही। फर्क यही है कि तब मरना केवल मरना होगा। लेकिन अब मरने में मजा है, बहादुरी है, नाम और यश है, आत्मसम्मान है, 'समर मरण अरु सुरसरि तीरा। रामकाज क्षणभंग शरीरा' वाली बात है। फिर चिंता कैसी? आगा-पीछा कैसा? यही तो फायदे का सौदा है।
19वें और 21वें श्लोकों में जो करारी डाँट उन लोगों को बताई है जो आत्मा के बारे में चिंता करते और हिंसा-अहिंसा की बातें करते हैं वह बहुत ही सुंदर है, निराली है, खूब है! साफ ही कह दिया है कि जो इस आत्मा को मारने वाली चीज मानते हैं और जो इसे मरने वाली समझते हैं, 'वे दोनों ही कुछ नहीं जानते, बेवकूफ हैं, नादान हैं, कोरे हैं' - उभौ तौ न विजानीत: (19)। इसी तरह 21वें में साफ ही कहते हैं कि 'जिसने इस प्रकार आत्मा को अजन्मा अविकार, सनातन और अविनाशी जान लिया भला वह किसी को मार-मरवा सकता है!' - वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्। कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हंति कम्! यहाँ 'कथं स पुरुष:' और भी सुंदर है। वह तो मर्द है, नामर्द तो है नहीं। तब भला वह कैसे मारने-मरवाने की बात सोचे! यह तो नामर्दी का रास्ता है, इससे तो नामर्दी और हिचक को प्रोत्साहन मिलता है और मर्द होके वह ऐसा काम करेगा! यह सारा का सारा वर्णन इतना सरस और युक्ति-दलीलों से भरा है कि लोट-पोट हो जाना पड़ता है। तर्क भी इतना जबर्दस्त और सामयिक (uptodate) एवं वैज्ञानिक है कि कुछ कहिए मत। एक नमूना सुनिए।
13वें श्लोक में आत्मा की अविनाशिता की दलील दी गई है। कहते हैं कि 'एक ही जन्म में कुमारावस्था, युवावस्था तथा वृद्धावस्था से हमें आमतौर से गुजरना होता है' - "देहिनोऽस्मिन्यथादेहे कौमारं यौवनं जरा।" यह याद रखना होगा कि इन तीनों अवस्थाओं का शरीर एक हर्गिज नहीं होता। कम से कम तीन तो होते ही हैं जो एक दूसरे से सोलहों आने जुदा होते हैं। यों तो एक-एक अवस्था में भी जानें कितने जुदा-जुदा शरीर हो जाते हैं। जिन अनंत परमाणुओं से खून, मांस, हड्डी आदि के जरिए किसी एक अवस्था का शरीर बना होता है दूसरी अवस्था में वह एक भी पाए नहीं जाते! वे तो जाने कहाँ गायब हो जाते हैं और उनकी जगह बिलकुल ही नए और निराले परमाणु (atoms) ले लेते हैं! नहीं तो तीनों अवस्थाओं में पार्थक्य क्यों होता? यों भी कुमारावस्था के शुरू में होने वाली देह के साथ युवावस्था के अंतिम परिपाक के समय के शरीर से कोई मिलान हो सकती है क्या? वे दोनों तो साफ ही जुदे हैं - जुदे मालूम होते हैं! फिर वृद्धावस्था से मिलान का सवाल क्या? विभिन्न अवस्थाओं के जुदे-जुदे और परस्पर विरोधी काम ही इस बात के सबूत हैं कि शरीर जुदे-जुदे हैं। बाल्यावस्था की निपट असमर्थता और जवानी की पूर्ण समर्थता के बाद बुढ़ापे की निराली असमर्थता ही पुकार-पुकार के अपने-अपने शरीरों को अलग बताती हैं।
इसे यों भी समझ सकते हैं। नया चावल कोठी के भीतर बंद करके रखते हैं और किसी भी तरफ से हवा न जा सके इसका पूरा प्रबंध करते हैं - कोई जरा भी छिद्र या सूराख रहने नहीं देते। नहीं तो बाहर से कीड़े घुस जाएँ और बरसाती हवा चावल को चौपट कर दे। फिर भी चार-छ: साल के बाद अगर उन्हीं चावलों को निकालें, पकाएँ और खाएँ तो निराला ही स्वाद, निराली गंध और निराली तृप्ति होती है जो बातें नयों में पाई ही न जाती थीं। पचने में तब भारी थे अब हलके हो गए; तब देर से पकते थे, अब फौरन पक जाते हैं, तब माँड़ को छोड़ते न थे, अब माँड़ से उनका कोई ताल्लुक ही नहीं ऐसा प्रतीत होता है! यह बात क्यों और कैसे हो गई! मोटी बुद्धि में तो यह बात समाती नहीं। मगर यह तो मानना ही होगा कि हजार कोशिश करने और हवा का प्रवेश रोकने पर भी परमाणुओं की आवाजाही रोकी जा सकती नहीं! वे तो सर्वशक्तिमान जैसे हैं! उनकी अपार महिमा है! फलत: चावल के भीतर जितने भी पुराने परमाणु थे, जिनसे वह बना था, एक-एक करके सभी भाग निकले, खिसक गए इन्हीं चार-छ: सालों में, और उनकी जगह बिलकुल ही नयों ने ले ली! दूसरी बात होई नहीं सकती! हमें पता ही न लगा और चावल दूसरे हो गए! पहलेवाले फरार हो गए और उनने अपनी जगह दूसरों को बिठा दिया - ऐसों को, कि कोई गिरफ्तार करी नहीं सकता, चाहे लाख यत्न करे! पुराने चंपत! नए हाजिर!
केवल अंदाजी बात नहीं है। अब विज्ञान की महिमा से ऐसी प्रयोगशालाएँ (Laboratories) बनी हैं कि उनमें घुस के आप यह सृष्टि का करिश्मा आँखों देख सकते हैं। यों तो हमें कुछ पता ही नहीं चलता कि क्या हो रहा है। मगर अगर किसी प्रयोगशाला के वैज्ञानिक यंत्रों के सामने अपना हाथ रख दें, तो हमें आश्चर्यचकित हो जाना होगा यह देखके, कि किस तेजी के साथ हमारे अपने हाथ से लक्ष-लक्ष परमाणु हर सेकंड में भागे जा रहे हैं और उनकी जगह नए घुस रहे हैं। हमें ताज्जुब होगा और अवाक रह जाना पड़ेगा। मगर इसी के साथ साफ-साफ दिखेगा कि किस प्रकार पुरानी चीज खत्म होके उसकी जगह एकदम नई और ताजी चीज तैयारी हो रही है, हो जाती है। उसी जगह यह भी मालूम हो जाएगा कि जानें कितने ही शरीर पचास-साठ साल के भीतर बने और बिगड़े। हालाँकि यों देखने से मालूम पड़ता है कि वही एक ही शरीर बराबर बना है - केवल कुछ मरम्मत हुई है या मुलम्मा चढ़ा है। यही बात वर्तमान साम्यवादी अंग्रेज विद्वान श्री जौन स्ट्रेची ने अपनी पुस्तक 'समाजवाद का सिद्धांत और व्यवहार' (The Theory and Practice of Socialism) के 392 पृष्ठ में लिखते हुए मार्क्सावाद के मूल नेता श्री फ्रेडरिख एंगेल्स के 'ड्यूहरिंग के विरुद्ध' (Anti Duhring) पुस्तक के एक अंश को ज्यों का त्यों उद्धृत कर दिया है। वह इस प्रकार है -
'In the same way Engels observes that the eating and excreting processes, which everyliving thing must continually maintain, mean that the actual physical structure of every man (for example) is continually changing. A man is not compased of the same cells as he was thirty years ago. Not a single one of the atoms of matter, which then constituted the man is left. And yet we say without hesitation that it is the same man. The movement or evolution, through time, of a living organism, seems to present an analogous contradiction to the movement of an object through space. Life is, therefore, also a contradiction, which is present in things and processes themselves and, which constantly asserts and soves itself; and as soon as the contradiction ceases, life too comes to an end, and death steps in - 'Anti-Duhring,' page 138.'
इसका आशय यह है, 'उसी तरह एंगेल्स का यह भी कहना है कि हरेक जानदार के लिए जिस खाने और पखाने का निरंतर जारी रहना लाजिमी है उसी का यह मतलब है कि हरेक इनसान वगैरह के जिस्म की बनावट निरंतर बदल रही है। तीस साल पहले जिन सजीव झिल्लियों से मनुष्य का शरीर बना होता है, वे उस मुद्दत के बाद रह नहीं जाती हैं। उस समय जिन परमाणुओं से शरीर बना था उनमें एक भी रह नहीं जाते। फिर भी बिना हिचक कह देते हैं कि यह वही आदमी है। किसी जीवित पदार्थ का समय पाके जो विकास होता है या उसमें जो गति हो जाती है, उसमें जो परस्पर विरोध होता है वह ठीक वैसा ही है जैसा कि किसी पदार्थ के एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने में। इसलिए जीवन भी विरोधी चीज है और यह विरोध खुद पदार्थों और उनकी क्रियाओं में ही मौजूद है। यह विरोध अपने आप ऊपर आ जाता है और फिर इसका समाधान भी हो जाता है। यह विरोध ज्यों ही खत्म हुआ कि जीवनलीला का भी अंत हुआ और मौत आ धमकी।'
इस प्रकार अत्यंत वैज्ञानिक तर्क दलील के साथ गीता ने भी बहुत समय पहले एंगेल्स की ही तरह कह दिया था कि यदि इस प्रकार परस्पर विभिन्न शरीरों के होते हुए भी हम उन्हें एक ही मानते हैं, और सबसे बड़ी बात यह है कि आत्मा एक ही रहती है; उसका परिवर्तन या नाश नहीं होता; इसीलिए तो बचपन की देखी-सुनी बातों की याद बुढ़ापे में भी हो आती है; तो वर्तमान शरीर के मिलने के पूर्व और इसके खत्म होने के बाद जो शरीर थे और जो मिलेंगे उनमें भी उसी आत्मा की सत्ता मानने में क्या अड़चन है जो इस वर्तमान शरीर में है? जिस तरह एक जन्म के ही तीन विभिन्न शरीर बताए गए हैं वैसे ही तो तीन जन्मों के भी तीन हैं और आगे बढ़के तीस और तीन लाख जन्मों के भी होते हैं। बात तो सर्वत्र एक-सी है। यदि बचपन की सभी बातें बुढ़ापे में याद नहीं आती हैं और शायद ही एकाध का स्मरण होता है। तो दूसरे जन्म के शरीरों के बारे में भी ऐसा ही होता है। कोई बच्चा पढ़ने या दूसरे ही कामों में कुंद कोई तेज और कोई अत्यंत विलक्षण होता है। इससे मानना पड़ता है कि पूर्व जन्म के अभ्यास काम कर रहे हैं, ठीक जैसे निद्रा के बाद पहले पढ़ी-लिखी बात याद आ जाती है। मौत भी तो आखिर नींद की बड़ी बहन ही है न? इसमें तम या अँधेरे का परदा बहुत ही सख्त होने के कारण स्मृति और भी पतली पड़ जाती है या शायद ही कभी किसी को होती है। लेकिन हमारा प्रयोजन यहाँ इन बाहरी दलीलों से नहीं है। हमें तो एक ही युक्ति-तर्क को नमूने के तौर पर पेश कर देना था।
बीच के 'अथ चैनं नित्यजातं' (26) आदि श्लोकों में जो आत्मा के मरने या विनाश की बात कही गई है, वह तो केवल स्वधर्म से, विमुख न होने के ही लिए सहकारी तर्क (supplementary argument) के रूप में ही है। वहाँ तो इतना ही कहना है कि जैसे शरीर का नाश अनिवार्य है, इसीलिए उसे बचाने के खयाल से भी युद्ध रूप स्वधर्म से भागना मूर्खता है, ठीक उसी तरह यदि आत्मा को भी नश्वर और क्षणभंगुर ही मान लें, तो भी स्वधर्म से विमुख होना कभी वाजिब नहीं। क्योंकि जो बिगड़ेगा वह फिर बनेगा और जो बनेगा, जरूर ही बिगड़ेगा, यही संसार का नियम है और यह हमारे काबू की बात है नहीं कि इसे ही रोक दें। यदि हम न भी लड़ें, तो आत्मा का नाश तो होगा ही, यदि हमने उसे अनित्य मान लिया। बस, इसका इतना ही मतलब है। ऐसा समझने की भारी भूल कोई न करे कि ऐसा कहके गीता ने भी आत्मा को विनाशी माना है। सारी की सारी गीता इस सिद्धांत के खिलाफ है। सैकड़ों बार आत्मा की अमरता और एकरसता उसमें दुहराई गई है।
इसके बाद अध्या त्मवाद के बारे में कुछ भी कहना रह जाता नहीं। फलत: 31-37 श्लोकों में धर्मशास्त्रों के विधि-विधान और दुनिया में नेकनामी बदनामी एवं आत्मसम्मान के आधार पर उसी स्वधर्म के करने की पुष्टि की गई है। लोग ऐसा न समझ बैठें कि जब गीता ने अध्याेत्म ज्ञान से ही शुरू किया है तो उसे सांसारिक हानि-लाभों से कोई वास्ता नहीं है; इसीलिए गीता की दृष्टि इनकी तरफ कतई नहीं है; यही वजह है कि इन सभी सांसारिक बातों और खयालों को भी उसने सामने ला दिया है। यदि ऐसा न होता तो गीता की बात एकांगी एवं अधूरी रह जाती जैसा कि शुरू में ही कहा है। गीता को सब तरह से पूर्ण और व्यावहारिक बनना था, पूर्ण अनुभवी बनके ही पथदर्शन करना था और वही चीज न हो पाती, अगर यश-अपयश, आत्मसम्मान आदि की ओर से वह नजर फेर लेती। उस दशा में अनुभवी लोग उसमें कमी पाते और उसकी ओर सहसा खिंच आते नहीं। इसीलिए इस पहलू को भी उसने नहीं छोड़ा है। विधि-विधान के अनुसार स्वर्ग-नरक आदि भी इसी पहलू के भीतर आ जाते हैं। इनका स्थान न तो अध्याित्म दृष्टि में है और न योगदृष्टि में ही। इसीलिए वे भी यहीं दिखाए गए हैं।