गीता के मुताबिक कर्म, क्रिया या अमल (action) की कई सीढ़ियाँ हैं। इनमें सबसे पहली या नीचे की सीढ़ी में वे सभी कर्म (काम) आ जाते हैं जो जीवन के लिए, या यों कहिए कि सांसारिक बातों के लिए जरूरी हैं और जिनके बिना न तो कोई जिंदा रह सकता है और न दुनिया का काम ही चल सकता है। गीता के 'कार्यतेह्यु वश: कर्म' (3। 5), 'शरीरयात्रापि च ते' (3। 8) आदि वचन इस बात के पोषक हैं। जब यही कर्म इसी खयाल से किए जाते हैं कि हमारा, करने वाले का या दुनिया का काम चले, सब कुछ कायम रहे, चालू रहे और जब करने वाले को अपने और पराए का विचार रहता है, तभी ये कर्म सबसे निचली सीढ़ी में आते हैं। उस दशा में ये सोलहों आना कर्म के रूप में रहते हैं और इनका नतीजा भुगतान होता है। जिनके बारे में धर्मशास्त्रों और पोथी पुराणों में बहुत कुछ लिखा गया है, जिन्हें सुख-दु:ख और नरक-स्वर्ग आदि देने वाले कहा गया है वे यही कर्म हैं। भाग्य, दैव, प्रारब्ध, संचित और तकदीर आदि नाम भी इन्हीं पहली सीढ़ी वालों को दिए गए हैं। जब बातचीत में कर्म का फेर कहते हैं तो इन्हीं से मतलब होता है। इनमें स्वार्थ और परार्थ - अपने लिए और दूसरों के लिए - का सवाल सदा लगा रहता है और वह कभी इनका और करने वालों का पिंड छोड़ता ही नहीं।

दूसरी सीढ़ी आती है उन कर्मों की जो मन की, हृदय की, अंत:करण की शुद्धि के लिए, पवित्रता के लिए किए जाते हैं। जैसे देह, कपड़े-लत्ते और घर-बार को कर्म या क्रिया के द्वारा ही निर्मल बनाते हैं, साफ-सुथरा करते हैं, झाड़ू, साबुन, पानी वगैरह के जरिए इनकी मैल हटा के इन्हें स्वच्छ, पवित्र और शुद्ध करते हैं; ठीक वैसे ही दिल, दिमाग को भी निर्मल किया जाता है कर्मों के ही जरिए। आत्मज्ञान और तत्त्वज्ञान से घर की गंदगी तो हटती नहीं। वह तो झाड़ू और पानी से धोए पोंछे बिना नहीं हट सकती। मन की मैल और गंदगी भी उसी प्रकार कर्मों के ही द्वारा मिटती है और वह शुद्ध एवं निर्मल होता है। जिस प्रकार पहली सीढ़ी वालों को गीता ने 'शरीरयात्रार्थ' कर्म 'शरीर यात्रापि च ते' (3। 8) में कहा है? उसी प्रकार इन्हें 'आत्मशुद्धये' या 'आत्मशुद्धयर्थ' कर्म 'संगं त्यक्त्वऽऽत्मशुद्धये (5। 11) आदि में कहा है।

मन की मैल भी समझ लेने की चीज है। देह या कपड़े-लत्ते जैसा ठोस और स्थूल पदार्थ तो मन या हृदय है नहीं। वह तो सूक्ष्म - अत्यंत सूक्ष्म - है और अनुमान से ही उसका अस्तित्व माना जाता है। इसलिए उसमें बाहरी या स्थूल मल (मैल) की संभावना नहीं है। यह मैल तो उसके पास पहुँच ही नहीं सकती। यही कारण है कि मन की चंचलता, उसका किसी भी पदार्थ में न टिक सकना, राग, द्वेष और भय आदि ही मैल कहे जाते हैं और इन्हीं को दूर करने की - कम करने की - जरूरत होती है। क्रिया या कर्म के प्रभाव से ही मन इन दुर्गुणों से छुट्टी पाता है और धीरे-धीरे इनकी कमी होने लगती है। ये सोलहों आना मिटते तो हैं आत्मदर्शन के बाद ही। मगर इनकी प्रचंडता और इनका वेग जाता रहता है। जैसे जंगली खूँखार और घरेलू पालतू जानवरों के स्वभाव में फर्क होता है वैसी ही दशा मन की हो जाती है और उसकी खूँखारी जाती रहती है। वह पालतू-सा बन जाता है, बनने लगता है। दिल या हृदय की जो दुर्बलता होती है और संकटों के आते ही जो पस्ती आ जाया करती है तथा निराशा हो जाती है वही दिल की मैल है। वह भी कर्म के फलस्वरूप कम हो जाती है, मिटने लगती है। काम करते-करते सफलता-विफलता का सामना बार-बार होता है, जिससे हिम्मत होती है, बढ़ती है। इस पर आगे संन्यास और त्याग प्रकरण प्रकाश में मिलेगा।

उसी के बाद कर्मों की तीसरी सीढ़ी आती है - यह तीसरी दर्जा नीचे का न हो के ऊँचे का है, उलटा है। इसलिए तीसरा दर्जा सुन के किसी को भ्रम नहीं होना चाहिए। पहली दो सीढ़ियों को पार कर लेने के बाद ही इस तीसरी पर पाँव देते हैं, दे सकते हैं। जब दिल और दिमाग पवित्र हो जाते हैं तो इनसान कुछ ऊपर उठता है और उसकी दृष्टि विस्तृत होने लगती है। जहाँ पहले अपने पराए की बात होने से वह संकुचित रहती है और कदम-कदम पर पदार्थों का बँटवारा-सा प्रतीत होता है कि यह अपना है और यह दूसरे का है, तहाँ ऊपर उठने पर यह विभाग, यह बँटवारा मिटने लगता है और अनेकता में एकता नजर आने लगती है। चाहे इसे 'वसुधैव कुटुम्बकम्' कहिए, या समदृष्टि कहिए। इसे ही गीता ने अपने ही समान सबों के - प्राणिमात्र के - सुख-दु:खों का अनुभव या 'आत्मौपम्य दृष्टि' भी नाम दिया है और 'समत्वबुद्धि' भी कहा है।

लेकिन सबका सारांश है संकुचित से विस्तृत की ओर, परिमित से अपरिमित की तरफ, पिंड से ब्रह्मांड की ओर और व्यष्टि से समष्टि की तरफ जाना। इसीलिए इसे ऊपर उठाना कहते हैं। इससे यह होता है कि व्यक्तित्व, शख्सियत या 'पर्सनलिटी' (personality) और व्यक्तिवादिता या 'इंडिविजुअलिटी' (individuality) का लोप समष्टि या विराट के भीतर हो जाता है - 'इंडिविजुअलिटी' मिल जाती है 'कलेक्टिविटी' (collectivity) में, समष्टि भाव में और मनुष्य अपने आपको विस्तृत संसार का एक अविच्छिन्न अंश समझने लगता है। जिस तरह शरीर के किसी भी अंग को जुदा किए जाने पर असह्य पीड़ा होती है, ठीक उसी तरह उस समय व्यक्ति को समस्त संसार से अलग करने, मानने तथा देखने में मर्मांतिक वेदना होती है। अंग की पुष्टि के लिए समस्त शरीर को ही पुष्ट करना जिस तरह अनिवार्य है वही हालत यहाँ भी हो जाती है। फलत: ऐसा ऊँचा उठा मनुष्य निजी तौर पर या व्यक्तिगत हानि-लाभ का कभी खयाल भी नहीं कर सकता। वह ऐसी बात के लिए सर्वथा अयोग्य हो जाता है। अत: दुनिया के सभी झगड़े मिट जाते हैं। जिस तरह बहुत ही ऊँचे पर्वत की चोटी पर खड़ा हो के देखने वाले को नीचे की बड़ी से बड़ी चीजें भी निहायत नन्ही-सी लगती हैं और कभी-कभी तो दीख तक नहीं पड़ती हैं, ठीक वही हालत उसके नजरों में व्यक्तित्व और अपनेपन की हो जाती है।

मगर यह हालत एकाएक नहीं होती। इसमें भी सीढ़ियाँ (stages) होती हैं और उन्हीं से हो के इनसान धीरे-धीरे ऊपर उठता हुआ आखिरी दशा (stage) में पहुँच जाता है जहाँ सभी एक और समान हो जाते हैं - जहाँ वह अपने को सबों से और सबों को अपने से पृथक देख नहीं सकता। यही है निर्वाण, मुक्ति या ब्राह्मी स्थिति। उस हालत में पूर्णतया पहुँचने के पहले जिन सीढ़ियों से हो के गुजरना पड़ता है उनमें पहली वही है जिसे कर्म की गणना में तीसरी कह चुके हैं। उस तीसरी या इस पहली में जो कर्म किया जाता है उसे गीता ने 'यज्ञार्थ' कर्म कहा है। 'यज्ञार्थत्कर्मणोऽन्यत्र' (3। 9) 'एवं प्रवर्त्तितं चक्रम' (3। 16) 'यज्ञायाचरत: कर्म' (4। 23) आदि श्लोकों में यही बात है। यज्ञार्थ का अर्थ है यज्ञ के लिए और गीता का यह यज्ञ बहुत ही व्यापक है। इसमें दुनिया आ जाती है। परमात्मा से लेकर छोटी-बड़ी सभी चीजों का समावेश इसमें हो जाता है। गीता के चौथे अध्या य के 24 से 30 श्लोकों में यह बात स्पष्ट है और अन्यत्र भी (परमात्मा और ज्ञान को तो यज्ञ कहते ही हैं। मगर व्यष्टि और समष्टि - व्यक्ति और समुदाय - रूप से संसार को कायम और चालू रखने के लिए जितने भी काम (कर्म) किए जाते हैं, सभी यज्ञ के अंतर्गत माने गए हैं। अतएव मन:शुद्धि के बाद ऊपर उठने वाला आदमी जो भी कुछ काम शरीरयात्रा के लिए या दूसरों के भले के लिए करता है सभी यज्ञ में आ जाता है।) जिसे आमतौर से हिंदू लोग यज्ञ कहते हैं उससे लेकर बड़े से बड़े और छोटे से छोटे कामों को - सबों को ही - यज्ञ का स्वरूप मिल जाता है।

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