यह बात बारहवें अध्याय के शुरू में ही कह चुके हैं कि वह समूचा अध्याय ग्यारहवें के बाद प्रसंगवश आ गया है। इसीलिए उसे पूरा करने के बाद पुनरपि मुख्य विषय ज्ञान-विज्ञान एवं उसके पदार्थों पर आ जाना जरूरी है - उन्हीं पदार्थों पर जिनका सविस्तार निरूपण दसवें तथा प्रदर्शन ग्यारहवें अध्यासय में हुआ है। वहाँ आत्मा से ही शुरू करके प्राण, चेतना, मन आदि सभी पदार्थों के साथ ही नदी, पहाड़ आदि मुख्य-मुख्य पदार्थों का वर्णन आया है। उन्हीं में से कुछ प्रमुख पदार्थों के साथ ही कितनी ही रहस्यमय वस्तुओं को ग्यारहवें अध्याय में दिखाया भी गया है इस तरह दसवें और ग्यारहवें का पूरा मेल है। बल्कि यों कह सकते हैं कि दोनों मिल के वस्तुत: एक ही अध्यारय हैं। इसी से विभूति और योग दोनों का ही उल्लेख दसवें में एक ही साथ किया भी है। इसे दो भागों में बाँटा तो गया है सिर्फ आसानी के लिए। जिससे दसवें में मौखिक विवरण और ग्यारहवें में उसी का प्रत्यक्ष प्रयोग होने से समझने में आसानी हो। यही वजह है कि तेरहवें अध्या य का श्रीगणेश दरअसल विभूतियों से ही शुरू होता है। यही उचित भी है। ग्यारहवें में जब उन्हीं विभूतियों का प्रदर्शन है तब तो मौखिक विचार या विवेचन-विश्लेषण के लिए विभूतियों को ही लिया जाना चाहिए। यह तो पहले ही कई बार कह चुके हैं कि मनन का काम चालू रहना ही चाहिए। यही कारण है कि ग्यारहवें के प्रयोग के बाद भी शेष अध्यानयों में वह चालू है। तेरहवें में भी वही शुरू हो के आगे बढ़ता है।

यहीं यह भी जान लेने की चीज है कि तेरहवें तथा चौदहवें अध्याय में भी इस सृष्टि का ही विश्लेषण-विवेचन है। सोलहवें एवं सत्रहवें में इस विवेचन-विश्लेषण से होने वाले ज्ञान के संबंध की ही कुछ बातों का प्रकारांतर से निरूपण है। ज्ञान की असली बुनियाद क्या है, उसके लिए कौन-सी चीज जरूरी है, उसमें क्या-क्या बाधाएँ कैसे आती हैं, यही बातें सोलह तथा सत्रह अध्यायों में मुख्यत: आई हैं। रह गया बीच का पंदरहवाँ अध्याय। सो इसमें दोनों का मिश्रण है। कुछ दूर तक शुरू में मुख्यत: सृष्टि की बात है और अंत में प्रधानतया ज्ञान की ही बात आई है। इस प्रकार पाँच अध्या यों का बँटवारा प्राय: दो समान भागों में करके ज्ञानविज्ञान का निरूपण एक प्रकार से पूरा कर दिया गया है। अठारहवें में समस्त गीता का उपसंहार है। इसीलिए स्वभावत: ज्ञानविज्ञानी की भी बातें आई ही हैं, जैसा कि त्रिगुणात्मक पदार्थों के निरूपण से स्पष्ट है।

हाँ, विभूति संबंधी पदार्थों को देखने और जानने के बाद जो पहला सवाल किसी भी समझदार के मन में हो सकता है वह यही कि आखिर इन सभी भौतिक या प्राकृतिक पदार्थों का निर्लेप आत्मा से ताल्लुक क्या है और क्यों है? यदि कुछेक का संबंध रहे भी, तो भी सभी महाभूतों और पर्वतादि भीषण पदार्थों से क्या ताल्लुक? अगर यह भी मान लें कि क्लिष्ट से क्लिष्ट और भीषण से भीषण हिम-प्रदेशों तक में भी जीवों की सृष्टि तो मिलती ही है, उस जीव से सुना तो कोई पदार्थ हई नहीं, तो सवाल होता है कि काजी को शहर की फिक्र से दुबले होने तथा मरने की क्या जरूरत? अर्जुन चला था अपनी शंकाएँ मिटाने। उसे थी अपनी आत्मा के कल्याण की चिंता। फिर सारे संसार के इस पँवारे की क्या जरूरत? और अगर यही मान लें कि आत्मा तो एक ही है और उसी के ये अनंत रूप हैं; इसीलिए सभी की फिक्र करनी ही पड़ती है, तो प्रश्न होता है कि ये अनंत रूप हुए क्यों और कैसे? यह आत्मा इस भारी बला में आ फँसी क्योंकर? इन वाहियात पदार्थों से इसका मेल भी क्या है कि इनमें आ फँसी? यदि ये पूर्व जाने वाले हैं तो वह पच्छिम। फिर यह क्या हो गया कि दोनों की जुटान आ जुटी और सारी विडंबना खड़ी हो गई? इस तरह के प्रश्नों का उठना निहायत अनिवार्य है। कृष्ण इसे बखूबी समझते थे। यही कारण है कि बिना पूछे ही इनका उत्तर देना तेरहवें अध्यािय के पहले श्लोक से ही शुरू कर दिया।

सचमुच गीता का यह अध्यायय बहुत ही सुंदर है। इसकी व्यावहारिक उपयोगिता होने के साथ ही निरूपण की शैली कितनी सरस और चित्तकर्षक है! देखिए तो सही, आखिर खेतों का और खेतिहर किसान का भी क्या ताल्लुक होता है किसान जब चाहे छोड़ के भाग जा सकता है। उसी ने तो खेतों को अपनाया है। और उनके हानि-लाभ की जवाबदेही माथे पर अपने मन से ही ली है। परिणाम यह होता है कि वह खेतों के साथ बँध जाता है, उसका उनके साथ अपनापन हो जाता है, उन्हें वह अपना - निजी - मान बैठता है। हालाँकि जमींदार और सरकार पद-पद पर उसे उनसे बेदखल करने को तैयार रहती है। बेदखल कर भी देती है। फिर भी उसका अपमान पिंड नहीं छोड़ता और वह छाती पीट के मरता है। बेदखली के पहले भी न सिर्फ उनकी उपज के ही लिए जवाबदेह होता है; किंतु उनसे होने वाले हानि-लाभ का भी उत्तरदायित्व उसी पर होता है। वह उसी के पीछे मरता रहता है। इतना ही नहीं। यों तो उसने अपने मन से उन्हें हथियाया था। मगर अगर यों ही उन्हें छोड़ भागना चाहे तो जाने कितनी ही कानूनी-गैरकानूनी अड़चनें खड़ी हो जाती हैं, जिनके करते छोड़ के भाग भी नहीं सकता। इस बुरी गति के लिए बेशक उसकी नादानी, बेअक्ली और पस्तहिम्मती ही जवाबदेह हैं। यह बात हमारी नजरों के सामने रोज ही गुजरती है।

बस ठीक यही हालत आत्मा की है। वह खेतिहर है, खेती करने वाला है, खेतों की सारी बातें जानता है कि खेत कैसे हैं, किनमें क्या पैदा होता है, हो सकता है। वगैरह-वगैरह। वह क्षेत्रज्ञ है, क्षेत्र है। और ये इंद्रियादि भौतिक पदार्थ? यही तो खेत हैं, क्षेत्र हैं। यही तो लंबे-चौड़े चारों ओर फैले हैं और जाने हजारों तरह की बुरी-भली फसलें पैदा करते रहते हैं। इन्हीं के मालिक आत्माराम हैं। वह इन्हीं को ले के परेशान हैं, पामाल हो रहे हैं, जल-मर रहे हैं। इन खेतों के भी दो विभाग हैं, व्यष्टि और समष्टि। व्यष्टि या टुकड़े-टुकड़े के भीतर सभी के जुदे-जुदे शरीर वगैरह आ जाते हैं। समष्टि, जो एक जगह मिलीमिलाई चीज है, के भीतर, प्रधान या मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार आदि आ जाते हैं। यह बात हम पहले ही बखूबी बता चुके हैं। वहीं कह चुके हैं कि महत्; महत्तत्त्व या महान नाम समष्टि बुद्धि का ही है। इसी बात को इस तेरहवें के शुरू में ही अच्छी तरह लिख दिया है। आत्मा के शरीर के ही भीतर इस स्थूल शरीर और प्रकृति को लिखा है। उसके बाद इससे संबंध रखने वाली सभी चीजों का ब्योरा भी दिया है। इस तरह समूचे संसार को शरीर और शरीर वाले या शरीरी - देही - के रूप में दो हिस्सों में बाँट दिया है और कह दिया है कि यह सब ब्रह्म, आत्मा या परमात्मा का ही - मेरा ही - पसारा है। जब शरीर की सारी बातों की जवाबदेही शरीरी पर ही है यह रोज ही देखते हैं; इसीलिए शरीर के सुख-दु:खों को भी उसे ही भोगना पड़ता है, तो फिर समूचे संसार की बला भी उसी के माथे क्यों न आए? जैसे रस्सी का काम है किसी पदार्थ को कहीं बाँध देना, फँसा देना; रस्सी को गुण या गोन भी कहते है; ठीक उसी तरह तीनों गुणों ने इस खेतिहर आत्माराम को शरीर में बाँध और फाँस दिया है। यही बात 'कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु' (13। 21) में कही गई है। जिस तरह वेश्या किसी भोले-भाले को फँसा के उसे खराब कर डालती है, वैसे ही प्रकृति अपनी अनेक वेषभूषा बना के आत्मा को फँसा लेती और तबाह कर डालती है। यही बात 'पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृतिजान् गुणान्' (13। 21) में कही गई है।

प्रश्न होता है कि क्षेत्रज्ञ इन क्षेत्रों में खुद ही बँध तो गया है। अब इनसे पिंड छूटने में दिक्कत भी है। वेश्या ने इस भोले-भाले को अनजान में फँसा लिया है सही। काफी बर्बाद भी कर डाला है। मगर क्या इस आफत से छूटने का कोई उपाय नहीं है? और अगर है तो कौन-सा?

उत्तर है कि उपाय जरूर है । जब हम सारी बातें ठिकाने से समझ जाएँ, अपनी हालत बखूबी जान जाएँ, हमारा क्या अधिकार है, हम क्या कर सकते हैं, फँसने की वजह क्या है, आदि चीजें जान लें, तो हिम्मत कर इन्हें उठा फेंकेंगे। दूसरा रास्ता है नहीं। इसके लिए खेतों का पूरा ब्योरा और शुरू से उनका इतिहास भी जान लेना जरूरी है कि ये कब कैसे तैयार हुए और हम इनमें कैसे-कैसे फँसे। क्योंकि इसी जानकारी से हमें काफी वजहें मिल जाएँगी, जिनके बल पर बाजीदावा दे के हट जाएँ। और माकूल वजह होने पर इसमें अड़चन भी क्यों होगी? यही बात शुरू के 'महाभूतान्यहंकार' प्रभृति श्लोकों में है। इनमें खेतों का कच्चा चिट्ठा है। 'अमानित्वमदंभित्व' आदि में जानकारी के उपाय बताए गए हैं जिससे हम पूरे आगाह हो जाएँ और हिम्मत ला सकें। वेश्या का कच्चा चिट्ठा जान लेने पर ही, उसके सभी गुणों - सभी कारनामों - को बखूबी समझ लेने पर ही, उसके जाल से छूट सकते हैं। इसीलिए प्रकृति का ब्योरा दिया गया है; ताकि जानकर सजग हो सकें। इन्हीं सब बातों को दिमाग में रख के -

श्रीभगवानुवाच

इदं शरीरं कौंतेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।

एतद्यो वेत्ति तं प्राहु: क्षेत्रज्ञ इति तद्विद:॥ 1 ॥

श्रीभगवान कहने लगे (कि) हे कौंतेय, इस शरीर को (ही) क्षेत्र - खेत - कहा जाता है (और) जो इसे बखूबी जानता है उस (आत्मा) को ही उसके जानकार लोग क्षेत्रज्ञ या खेतिहर कहते हैं। 1।

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षे त्रे षु भारत।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥ 2 ॥

हे भारत, सभी क्षेत्रों में (रहने वाला) क्षेत्रज्ञ भी मुझी को जानो। (इस तरह) क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है वही ज्ञान मैं ठीक मानता हूँ। 2।

यहाँ 'भी' के मानी में जो 'च' आया है, और इसी की ओर इशारा करते हुए उत्तरार्द्ध में जो क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ दोनों का उल्लेख है उससे भी, यही मानना पड़ता है कि 'भी' कहने से क्षेत्र ही लिया जाना चाहिए। इस तरह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ दोनों ही परमात्मा या ब्रह्म से जुदा सिद्ध नहीं होते। फलत: अद्वैतवाद स्थापित होता है। इसी अद्वैत ज्ञान को कृष्ण अपना मत, निजी मंतव्य कहते हुए सही बताते हैं। यहाँ सभी क्षेत्रों में के अर्थ में 'सर्वक्षेत्रेषु' कह के 'क्षेत्रज्ञ' जो एक वचन दिया है उसका आशय यही है कि एक ही आत्मा सबमें व्याप्त है। उसी के ये अनंतरूप हैं, शरीर हैं और सब कुछ है। इसीलिए अर्जुन के वास्ते सभी की जानकारी और चिंता जरूरी थी।

तत्क्षे त्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।

स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु॥ 3 ॥

वह क्षेत्र जो कुछ है, जितने प्रकार का है और उसके जितने विकार या कार्य हैं, (साथ ही) वह (क्षेत्रज्ञ) भी जो कुछ है और उसका जो प्रभाव है, सभी कुछ संक्षेप में मुझसे सुन लो। 3।

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छंदो भिर्विवि धै : पृथक।

ब्रह्मसूत्रपदैश्चेव हेतुमदि्भ र्वि निश्चितै:॥ 4 ॥

ऋषियों ने (यही बात) बहुत ढंग से वर्णन की है, वेद के अनेक मंत्रों ने जुदा-जुदा (कही है) और ब्रह्मप्रतिपादक उपनिषद् वाक्यों ने भी तर्कयुक्ति के साथ निश्चित रूप से बताई है। 4।

इस श्लोक में इस विषय के प्रमाणों को कह चुकने के बाद अगले श्लोक में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ की पूर्वोक्त सारी बातें कहना शुरू करेंगे और इस प्रकार तीसरे श्लोक में छिड़ी बातों को बताएँगे। यही बात 18वें श्लोक तक जाएगी। उसके बाद इन्हीं का विशेष विश्लेषण चलेगा। यहाँ ऐसा कहने का प्रयोजन यही है कि यह एकदम कोई नई बात नहीं है। जिसे पहले पहल कृष्ण ही कह रहे हों। क्योंकि सृष्टि और उससे आत्मा का संबंध यह चीज बहुत ही पुरानी है। इसीलिए इस पर ऋषि-मुनियों, वैदिक मंत्रों और उपनिषदों का ध्याबन जाना जरूरी था। और अगर फिर भी न गया है, तो हो न हो कुछ बात है, ऐसा खयाल हो सकता था। फलत: आगे के उपदेशों में अश्रद्धा की गुंजाइश भी हो सकती थी। इसलिए पहले ही कह दिया कि ये बातें अपने-अपने ढंग से पहले भी सबने खूब ही लिखी हैं। कर्म-अकर्म या कर्मयोग की बात तो जुदी है। इसलिए उसमें मतभेद या नवीनता की गुंजाइश हो सकती है। वह मानी भी जा सकती है। मगर जिस आत्मज्ञान के आधार पर वह बात कही गई है उसमें ही यदि गड़बड़ हो तो समूचा आधार ही खत्म समझिए। यह भी नहीं कि इसमें भी मतभेद रहेगा ही। यह तो कर्तव्य की बात न हो के वस्तुस्थिति या ठोस चीज (hard fact) की बात है न? और अगर इसमें ही मतभेद या नवीनता चले तो सर्वत्र अविश्वास ही अविश्वास हो जाएगा। इसीलिए यह कह देना जरूरी था कि इसमें सभी की एक ही राय है। हाँ कहने का तरीका जुदा-जुदा जरूर है।

इस श्लोक में ऋषियों, वैदिक मंत्रों और ब्राह्मणों या उपनिषदों के वचनों का निर्देश है। वैदिक मंत्रों के द्रष्टा या बनाने वाले बहुतेरे ऋषियों को तो मानते ही हैं। उन्हीं की ओर इशारा करते हुए उपनिषदों तथा ब्राह्मण ग्रंथों में प्राय: जगह-जगह लिखा पाया जाता है कि 'ऐसा तो ऋषि ने भी कहा है' 'तदुक्तमृषिणा' वेदमंत्रों के रूप में ही सही या और रूप में भी सही। हर हालत में ऋषियों ने पहले बहुत कुछ कहा है जरूर। वह लोग स्वतंत्र रूप से आत्मा और सृष्टि का विवेचन न करते, भला यह कैसे संभव था? उनका तो यही काम ही था। इस तरह एक तो उनका स्वतंत्र कथन है। दूसरे वैदिक मंत्रों में भी 'नासदीय सूक्त' में जो ऋग्वेद के दसवें मंडल का 129वाँ सूक्त माना जाता है तथा अन्यान्य बीसियों मंत्रों में ब्रह्म से इस सृष्टि के विस्तार का उल्लेख है। वैदिक मंत्रों को ही यहाँ छंद पद से लिया है। 'एकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति' (ऋग्वेद 10। 114। 5), 'एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति' (ऋ. 1। 164। 46), 'देवानां पूर्येव्युगेऽसत: सदजायत' (ऋ. 10। 72। 2), तथा 'द्वासुपर्णा सयुजा' (1। 164। 20) आदि में कितना सुंदर और वाद-विवादात्मक वर्णन है! पुरुषसूक्त में, जो यजुर्वेद में भी पाया जाता है, यही बात कितनी विशद रूप में है। वैदिक मंत्रों के सिवाय वेद के ही ब्राह्मण भाग में जो उपनिषद् माने जाते हैं उनमें तो इस सृष्टि का वर्णन तर्क और युक्तियों के साथ आया ही है। यदि केवल छंदोग्य के छठे अध्यानय को ही देखें तो तबीयत खुश हो जाए। यों तो प्रश्न, श्वेताश्वतर आदि में भी यही बातें आती हैं। वहाँ भी पूरा वाद-विवाद एवं गंभीर विवेचन पाया जाता है। मुंडकोपनिषद् (3। 1। 1) में तो ऋग्वेद का 'द्वासुपर्णा सयुजा' मंत्र ही ज्यों का त्यों आया है।

छांदोग्य के छठे अध्या य के दूसरे ही खंड में पहले कहा है कि सृष्टि के पहले केवल सत् या ब्रह्म था और उसी से सृष्टि हुई 'सदेवसोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्'। उसके बाद ही कुछ मतवादों का उल्लेख करके और यह कह के कि वह तो पहले असत् या शून्य ही मानते और उसी से सृष्टि का पसारा स्वीकार करते हैं, यह सुंदर तर्क दिया है कि भला यह कैसे होगा? भला, असत् से यह विरोधी सत् पदार्थ कभी पैदा हो सकते हैं? 'कुतस्तु खलु सोम्यैवं स्यादिति होवाचकथमसत: सज्जायत'? भला, इससे बढ़के निश्चित और तर्कयुक्त बात और क्या हो सकती है? इसी अध्यााय में पूर्वोक्त वटबीज का दृष्टांत दे के समझाया गया है। यह भी कहा गया है कि जल, अग्नि आदि से ही उसके मूल कारण ब्रह्म का पता लगता है। ऐसी ही हजारों युक्तियाँ दे के और विश्लेषण-विवेचन करके ब्रह्म का तर्क-दलील के साथ अत्यंत निश्चित प्रतिपादन किया गया है। इन्हीं वचनों का इस श्लोक में ब्रह्मसूत्रपद या ब्रह्म के सूचक एवं प्रतिपादक वाक्य कहा है। इस पर विशेष विचार पहले ही हो चुका है।

महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।

इंद्रियाणि दशैकं च पंच चेंद्रिय गोचरा:॥ 5 ॥

इच्छा द्वेष: सुखं दु:खं संघातश्चेतना धृ ति:।

एतत्क्षे त्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्॥ 6 ॥

पाँच महाभूत, जिन्हें पंचतन्मात्रा या सूक्ष्म भूत कहते हैं, अहंकार समष्टि बुद्धि या महत्तत्त्व, प्रकृति, ग्यारह इंद्रियाँ, इंद्रियों के पाँच विषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दु:ख, शरीर, जो इंद्रियों के संबंध से सुख-दु:ख का अनुभव करता है, चेतनता या बुद्धि और धैर्य-संक्षेप में यही क्षेत्र और उसके विकार - कार्य - कहे गए हैं। 5। 6।

इस पर यहाँ ज्यादा लिखने की जरूरत नहीं। पहले ही पूर्ण प्रकाश डाल चुके हैं। सांख्य दर्शन में प्रकृति, महान, अहंकार और पंचतन्मात्रा ये आठ-दस इंद्रियाँ और अंत:करण ये ग्यारह और इंद्रियों के रूप, रस आदि पाँच विषयों को मिला के सोलह, इस प्रकार कुल चौबीस पदार्थ मान के प्रकृति या प्रधान को मूल माना है। वही यहाँ तीसरी श्लोक का क्षेत्र है। जिन सात को उसके बाद गिनाया है ये प्रकृति-विकृति कहाते हैं। प्रकृति से पैदा होने से विकृति या विकार और कार्य कहे जाते हैं। खुद इंद्रियादि को पैदा करने के कारण ही प्रकृति या कारण भी कहे जाते हैं। तीसरे श्लोक में जो क्षेत्र के प्रकार का उल्लेख है वह यही सात हैं। प्रकृति-विकृति की जगह यादृक् या जितने प्रकार का कह दिया है। शेष सोलह और इच्छादि सात कुल तेईस को यहाँ विकार, विकृति या कार्य कहा है। सांख्य के सोलह की संख्या को कुछ और भी बढ़ा दिया है। दूसरा फर्क नहीं है। इसका और भी विस्तार हो सकता है। इसीलिए कह दिया है कि संक्षेप में ही इतने गिनाए हैं।

तीसरे श्लोक में 'जिससे जो बनता या होता है' - 'यतश्चयत्' - भी एक बात कही गई है। उसका उत्तर या विवरण आगे के पाँच श्लोकों में है। तीसरे श्लोक में इसके बाद ही क्षेत्रज्ञ की बात आ गई है, जिसका विवरण इन पाँच श्लोकों के बाद ही 12वें से 17वें तक में आया है। फिर 18वें में सभी का उपसंहार कर लिया है। यहाँ तक तो तीसरे श्लोक की बातें संक्षेप में ही कह दी गई हैं। इसीलिए 19वें से फिर विशेष विवरण और निरूपण क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के ही बारे में चला है, न कि अन्य ब्योरे के बारे में। 18वें में लिखा है कि क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय - क्षेत्रज्ञ - को कह चुके। उससे पता चलता है कि पाँच श्लोकों में जो ज्ञान की बात आई है वही 'यतश्चयत्' का उत्तर या विवरण है। इन शब्दों का मोटा अर्थ यह है कि 'जिससे जो हो सके'। साढ़े चार श्लोकों में जो कुछ गिनाया है वह ज्ञानोत्पत्ति के साधन हैं। उनके बिना ज्ञान होई नहीं सकता। उनमें हरेक ज्ञान के लिए अनिवार्य रूप से अपेक्षित है, जैसा कि उनके नामों से ही स्पष्ट है। कुल 21 बातें गिनाई गई हैं और सभी ऐसी ही हैं। यों तो 'जन्म-मृत्युजराव्याधि' (13। 8) में चारों के अलग-अलग दु:ख एवं दोष देखने से आठ हो जा सकते हैं। फलत: 21 की जगह 27 हो जाएँगे। शेष आधे या 11वें के उत्तरार्द्ध में कह दिया है कि ये ज्ञान हैं और इनसे उलटी बातें हैं अज्ञान हैं। ज्ञान के साधन होने से ही इन्हें ज्ञान कह दिया है। इसी तरह अज्ञान के साधन या पैदा करने वाले अभिमान, दंभ, हिंसा आदि को अज्ञान भी इसीलिए कह दिया है। इससे साफ हो गया है कि किनसे ज्ञान पैदा होता है और किनसे अज्ञान। इस तरह जिससे जो पैदा होता है यह जो तीसरे श्लोक में कहा गया है उसका विवरण इन पाँचों में पूरा हो गया। पाँचों ने कह दिया कि अभिमान-शून्यता आदि से ज्ञान होता है और अभिमान आदि से अज्ञान।

अमानित्वमदंभित्वमहिंसा क्षांतिरार्जवम्।

आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रह:॥ 7 ॥

इंद्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च।

जन्ममृत्युजराव्याधि दु:खदोषानुदर्शनम्॥ 8 ॥

असक्तिरनभिष्वंग: पुत्रदारगृहादिषु।

नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥ 9 ॥

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।

विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥ 10 ॥

अध्या्त्ममज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।

एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा॥ 11 ॥

अभिमान-शून्यता, दंभ या दिखावटी काम की शून्यता, अहिंसा, क्षमा, नम्रता, आचार्य या उपदेश की सेवा-शुश्रूषा, पवित्रता, स्थिरता, मन पर काबू, इंद्रियों के विषयों से वैराग्य, अहंकार का त्याग, जन्म-मृत्यु-बुढ़ापा-रोग इन चारों के दु:खों और बुराइयों का निरंतर खयाल, पुत्र-स्त्री -घर-बार आदि में आसक्ति का त्याग तथा इनमें तन्मयता का न होना, बुरी-भली बातें हो जाने पर भी हमेशा चित्त में उनका असर होने न देना, भगवान या आत्मा में ऐसी अनन्य भक्ति जो कभी डिग न सके, एकांत स्थान का सेवन, लोगों के भीड़-भड़क्के में रुचि का न होना, अध्या त्मजशास्त्र में निरंतर लगे रहना और तत्त्वज्ञान या आत्मसाक्षात्कार के प्रयोजन पर नजर रखे रहना, यही ज्ञान के साधन हैं। इनके विरुद्ध अभिमान, दंभ आदि अज्ञान को पैदा करते और बढ़ाते हैं। 7। 8। 9। 10। 11।

ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।

अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥ 12 ॥

सर्वत: पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।

सर्वत: श्रुतिमल्लो के सर्वमावृ त्त्य तिष्ठति॥ 13 ॥

स र्वेंद्रिय गुणाभासं स र्वेंद्रिय विवर्जितम्।

असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च॥ 14 ॥

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।

सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चांति के च तत्॥ 15 ॥

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।

भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च॥ 16 ॥

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमस: परमुच्यते।

ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्॥ 17 ॥

जो जानने योग्य - क्षेत्रज्ञ - है और जिसके ज्ञान से मोक्ष मिलता है वही वस्तु अभी-अभी कहे देता हूँ। (वह वस्तु) आदि शून्य परब्रह्म ही है। वह न तो स्थूल और कार्य कहा जाता है और न सूक्ष्म और कारण ही। उसके हाथ, पाँव, आँख, सिर और मुँह सभी जगह हैं - अर्थात वह सर्वत्र मौजूद है। उसके कान (भी) सर्वत्र हैं। वह सभी पदार्थों को घेरे पड़ा है। सभी इंद्रियों के कामों में वह लिपटा-सा रहता है (जरूर)। (मगर वस्तुत:) सभी इंद्रियों से रहित है। कहीं भी चिपका नहीं है। (फिर भी) सबों को कायम रखता है। निर्गुण है। (साथ ही) गुणों (के कामों और फलों) को भोगता (भी) है। सभी पदार्थों के बाहर भी है और भीतर भी। (स्वयमेव) चर, अचर (पदार्थ रूपी भी) है। सूक्ष्म होने से ही बखूबी जाना नहीं जा सकता। दूर भी है (और) नजदीक भी। पदार्थों के बँटा न हो के सबमें एकरस है। (मगर) अलग-अलग जैसा लगता है। पदार्थों का भरण-पोषण करने वाला उसी को जानना चाहिए। वही सबको ग्रस लेने वाला और बनाने वाला भी है। वही ज्योतियों को भी ज्योति देने वाला (तथा) अँधेरे से परे माना जाता है। (वही) पूर्वोक्त ज्ञान है और ज्ञेय भी। ज्ञान के द्वारा प्राप्त करने योग्य भी वही है। वही सबों के हृदय में मौजूद है। 12। 13। 14। 15। 16। 17।

इन श्लोकों में जो कुछ भी वर्णन है वह आलंकारिक होने के साथ ही वास्तविक स्थिति से पूरा ताल्लुक रखता है। यही इसकी खूबी है। आत्मा के बारे में जो कुछ हमने पहले लिखा है यदि उसे अच्छी तरह से हृदयंगम कर लिया जाए तो ये सारी बातें बखूबी समझ में आएँ। इन्हें पढ़ के मजा भी आए। हाँ, एक बात कह देना जरूरी है। आत्मा तो ऐसी ठसाठस भरी हुई जैसी है कि उसमें विभाग करने या उसे अलग-अलग देखने की गुंजाइश हई नहीं, बशर्ते कि हमारी दृष्टि ठीक हो आखिर इंच भर भी, अणु या बाल भर भी कोई जगह है नहीं जो खाली हो। जहाँ कुछ नहीं वहाँ अनंत परमाणु ही मौजूद हैं, या अगर और नहीं तो दिशा और काल (Space and time) तो हईं, और वह है इन सबों की आत्मा। इसीलिए बीच-बीच में फाँक पड़ने की संभावना ही कहा है? फलत: चाहे हम कुछ बोलें, कहीं जाएँ, कहीं हाथ बढ़ाएँ किधर भी मुँह, सिर या आँखें करके इशारा करें, सर्वत्र सब कुछ जानने-सुनने के लिए वह मौजूद ही है। उसके बिना टिके कौन? और न टिकने में भी तो निषेध रूप से (Negatively) उसे रहना ही पड़ता है।

यहाँ ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञानगम्य ये तीन बातें कही गई हैं। इनमें दो तो पहले ही आ चुकी हैं - ज्ञान और ज्ञेय। इसीलिए उचित समझते हैं कि उन्हीं का उल्लेख इन श्लोकों में माना जाए, न कि सर्वसाधारण ज्ञान और ज्ञेय का। 18वें श्लोक में भी, जो आगे आ रहा है, उसी ज्ञान और ज्ञेय का नाम लिया है। अतएव बीच में दूसरे ज्ञान और ज्ञेय को लेना हमने उचित नहीं समझा। तब तो जबर्दस्ती-सी हो जाती - अकांड तांडव बन जाता। एक बात और भी इस ज्ञान और ज्ञेय के ही संबंध में जान लेने की है। पहले भी 'क्षेत्रक्षेत्रयोर्ज्ञानं' (13। 2) में ज्ञान की बात आई है। वहाँ ज्ञेय की जगह क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ आए हैं। बेशक 'अमानित्व' आदि में जो ज्ञान शब्द है वह ज्ञान के साधनों के ही लिए आया है। मगर इसके यह मानी हर्गिज नहीं कि उससे उन साधनों का ही बोध होता है, न कि ज्ञान का भी। उसका तो असली मतलब यही है कि इन्हीं साधनों से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वही क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ का यथार्थ ज्ञान हो सकता है, उसी से हम इन दोनों की हकीकत जान सकते हैं। फिर भी 'क्षेत्रक्षेत्रज्ञयो:' इस षष्ठी के रहने के कारण उन दोनों के ज्ञेय या ज्ञान के विषय होने पर भी उस ज्ञेय और इस ज्ञेय में फर्क है। वहाँ ज्ञान ही प्रधान और वही दोनों अप्रधान हैं। क्योंकि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के जो रूप हैं और जिनका ज्ञान होता है वह तो मायामय हैं, कल्पित हैं। उनकी भी हकीकत तो ब्रह्मात्मा ही है। इसीलिए षष्ठी लिख के उन्हें अप्रधान या अमुख्य बना दिया है। मगर यहाँ तो साफ ही 'ज्ञेयम्' लिखा है। इसलिए यह मुख्य है। अतएव 'ज्ञानगम्यं' विशेषण यहाँ लगा दिया है। इसका आशय यह है कि ज्ञान के द्वारा अंत में हमें वहीं पहुँचना है। फिर वह असल और हकीकत क्यों न हो? ऊपर के श्लोकों में जिन अनेक रूपों में इस ब्रह्मात्मा को दिखाया है कहीं लोग उन रूपों को ही ठीक न मान बैठें इसलिए भी 'ज्ञानगम्यं' कह दिया, जिससे स्पष्ट हो गया कि ये सब रूप या ढंग केवल उसे जानने, देखने या नजर में लाने के लिए ही हैं न कि वही वस्तुगत्या इन रूपोंवाला है। इस तरह उसके प्रभाव की भी जानकारी हो जाती है। यह बात 'यत्प्रभावश्च' में पहले ही आई थी भी।

अब आगे के श्लोक में यहाँ तक कही गई सभी बातों का उपसंहार करते हुए इसकी आवश्यकता भी बता देते हैं। किंतु उसके बाद पुनरपि क्षेत्र या प्रकृति का विशेष ब्योरा जानना जरूरी है। क्योंकि उसके गुणों और चालों को जाने बिना उससे पार पा नहीं सकते। साथ ही, क्षेत्रज्ञ, उसमें किस तरह फँसता है यह भी जान लेना जरूरी होने के कारण उसका भी कुछ ब्योरा आगे दिया गया है। इस तरह 'यो यत्प्रभावश्च' इन दोनों का विशेष विवरण भी हो जाता है। खासकर 'य:' या 'जो' का विवरण बहुत जरूरी है। क्योंकि वह अभी अच्छी तरह बताया जा सका है नहीं।

इति क्षे त्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासत:।

मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते॥ 18 ॥

संक्षेप में क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय यही कहे गए हैं। मेरा भक्त इसे ठीक-ठीक जान के मेरा ही रूप हो जाता है। 18।

उत्तरार्द्ध से तो यह भी स्पष्ट है कि जिस भक्ति की बात बारहवें अध्या य में आई है वह साधन ही है। उसका भी नतीजा अंत में यह ज्ञान ही है, जिसे विज्ञान या आत्मसाक्षात्कार कहते हैं। आखिर भक्त कहने के बाद और मेरा स्वरूप बनने के पहले पूर्वकालिक क्रिया के रूप में जो 'विज्ञाय' बीच में आ गया है उसका स्वरसिक अभिप्राय और होई क्या सकता है? यदि हठ या पक्षपात छोड़ के देखें तो मानना होगा कि पहले भक्ति होने से भक्त बने, फिर विज्ञान हुआ और उसके बाद अंत में मुक्ति हुई। हाँ, यह विज्ञानी भी भक्त होता है। मगर वह तो 'चतुर्विधा:' (7। 16-19) के 'तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त:' शब्दों में ही कहा जा चुका है।

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि।

विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृति संभ वान्॥ 19 ॥

प्रकृति और पुरुष यह क्षेत्र एवं आत्मा इन दोनों को ही अनादि समझो। (इनमें भी) (सभी पूर्वोक्त) विकारों और गुणों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जानो। 19।

यहाँ अनादि कह देने से यह प्रश्न जाता रहा कि आत्मा के फँसने या प्रकृति के संसर्ग में आने की क्या जरूरत थी। क्योंकि यह चीज तो कभी शुरू हुई नहीं कि इसकी वजह बताई जाए। यह तो सदा से ऐसी ही बनी है।

कार्यकरणक र्त्तृत्त्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते।

पुरुष: सुखदु:खानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥ 20 ॥

कार्य और करण को बनाने में कारण प्रकृति ही है। पुरुष (तो सिर्फ) सुख-दु:खों के भोगने में ही कारण है। 20।

पूर्व के श्लोक के उत्तरार्द्ध में जो कहा गया है कि सभी विकारों या कार्यों और गुणों को प्रकृति ही पैदा करती है, उसी का स्पष्टीकरण इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में है। इसीलिए कार्य शब्द का अर्थ है व्यष्टि तथा समष्टि शरीर। इसी प्रकार करण के मानी हैं व्यष्टि-समष्टि सभी इंद्रियाँ, जिनमें बुद्धि आदि आ जाती हैं। इन्हीं से सब संसार चलता है। कहीं-कहीं कार्यकारण पाठ है। उस दशा में पूर्वोक्त महत्तत्वादि सात को कारण और शेष इंद्रियादि को कार्य कहने में ही तात्पर्य है। गुण शब्द के मानी हैं गौण या पीछे बनी इंद्रियादि और तीनों गुण भी। हर हालत में समस्त संसार ही आ जाता है। केवल एक ही बात की कमी रह जाती है जिसे सुख-दु:खादि का भोग कहते हैं। क्योंकि उसके बिना संसार पूरा कैसे होगा? यदि सुख-दु:खादि किसी को भोगना न हो तो संसार कैसा? तब तो सारा मामला ही फीका हो जाए। इसीलिए उसकी पूर्ति उत्तरार्द्ध कर देता है कि पुरुष या आत्मा के ही चलते भोग होते हैं। यदि वह न हो तो इंद्रियादि जड़ पदार्थ कुछ करी न सकें। इसीलिए तो पुरुष की सत्ता भी मानना जरूरी हो जाती है। प्रकृति एवं उससे बने पदार्थ तो जड़ हैं। अंधे हैं। वह भोग का काम करी नहीं सकते, सभी बातों को नियंत्रण के द्वारा मिला-जुला के (Coordinate) रख नहीं सकते और बिना इसके भोग हो नहीं सकता। भोग के मानी ही हैं सभी चीजों को जोड़-जाड़ के सामने लाना। जैसे समष्टि के नियमन आदि (Coordination) के लिए अगत्या ईश्वर की सत्ता माननी पड़ती है, वैसे ही व्यष्टि के लिए आत्मा की। आगे यही तर्क दिया भी है।

पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृतिजान् गुणान्।

कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥ 21 ॥

क्योंकि पुरुष ही प्रकृति के संबंध से ही उससे उत्पन्न त्रिगुण पदार्थों को भोगता है। (इस तरह जो) इन गुणों में उसकी आसक्ति है वही उसके भले-बुरे जन्मों का कारण है। 21।

उपद्रष्टानु मंता च भ र्त्ता भोक्ता महेश्वर:।

परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन् पुरुष: पर:॥ 22 ॥

(असल बात यह है कि) इस देह में (यह जो) परमपुरुष है वह तो अलग हो के सभी बातों को सिर्फ देखता (और इसी रूप में) अनुमोदन करता है, कायम रखता है और (अंत में उन्हें) भोगता भी है। (वही) महेश्वर और परमात्मा भी कहा गया है। 22।

साक्षी होने से ही उपद्रष्टा कहा गया है। चेतन के बिना जड़ पदार्थों का काम हो नहीं सकता। कहीं न कहीं मूल में चेतन चाहिए ही। यही अनुमोदन है जिसे हमने सम्मेलन और नियंत्रण (Coordination) कहा है। यदि ऐसी शक्ति न हो तो सभी चीजें तखड़-पखड़ हो जाएँ। भर्त्ता कहने का भी यही आशय है। इस तरह के दूर के संसर्ग से ही वह भोगने वाला बन जाता है। क्योंकि शीशे में दूरस्थ रक्तपुष्प का प्रतिबिंब पड़ के वह भी लाल नजर आता ही है उसी तरह इंद्रियादि के सारे अनर्थ उसमें प्रतिबिंबित होते हैं। यही भोग है। लेकिन यह प्रतिबिंब जैसा ही है। इसीलिए वस्तुत: यह आत्मा महेश्वर ही है, परमात्मा ही है।

य एवं वेत्ति पुरुष प्रकृतिं च गुणै: सह।

सर्वथा वर्त्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते॥ 23 ॥

(इसीलिए) जो पुरुष को और प्रकृति को भी गुणों के साथ इस तरह ठीक-ठीक जान जाता है वह चाहे किसी भी दशा में रहे, (फिर भी) पुनर्जन्म नहीं पाता। 23।

ध्यानेनात्मनि पश्यंति केचिदात्मानमात्मना।

अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगे न चापरे॥ 24 ॥

अन्ये त्वेवमजा नंत : श्रुत्वान्येभ्य उपासते।

तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:॥ 25 ॥

कुछ लोग ध्यानन से ही अपने ही भीतर अपने आप आत्मा को (इस प्रकार) देखते हैं - साक्षात करते हैं। दूसरे लोग सांख्ययोग से ही (ऐसा करते हैं) तथा तीसरे (दलवाले) कर्मयोग से ही। लेकिन इस प्रकार नहीं जान सकने वाले कुछ लोग तो दूसरों से सुन के ही उपासना करते हैं। सुनने के अनुसार ही पूरा अमल करने वाले वे भी जन्ममरण से छुट्टी पाई जाते हैं। 24। 25।

ये दोनों श्लोक कुछ अजीब से हैं। विशेष विचार न कर सकने वाले इनसे धोखे में पड़ के आत्मज्ञान के चार स्वतंत्र मार्गों का प्रतिपादन इन श्लोकों में मान बैठते हैं; हालाँकि 'लोकेऽस्मिन् द्विविधा' (3। 3) के अनुसार पहले वही लोग दोई स्वतंत्र मार्ग मानते हैं। इस तरह इन श्लोकों के करते उन्हें भी घपले में पड़ना पड़ा है। लेकिन सच पूछा जाए तो इनमें ऐसी कोई बात है नहीं।

24वें के पूर्वार्द्ध में उसी समाधि का वर्णन है जिसका सविस्तार निरूपण छठे अध्यांय में और उससे पहले भी आया है। यही तो ज्ञानप्राप्ति की अंतिम सीढ़ी है। मगर जो वहाँ तक न पहुँच सके हों उनके ही लिए उसी श्लोक के उत्तरार्द्ध में नीचे की दो सीढ़ियाँ कही हैं। ऐसे लोग दो तरह के होते हैं, जैसा कि 'तत्स्वयं योगसंसिद्ध:' (4। 38) और 'संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये' (5। 11) में कहा गया है, उसी के अनुसार कर्मों के करते-करते जिनका मन शुद्ध हो चुका है ऐसे लोग एक दल में हैं। अभी तक जिनके मन की शुद्धि शेष ही है वही दूसरे हैं दल में। फलत: पहले ऊपर और दूसरे नीचे हैं। तदनुसार ही पहले दलवाले सांख्य की रीति के अनुसार गुणों का विवेचन आत्मा से करके उसे निश्चय करते हैं। क्योंकि जब तक ऐसा निश्चय न हो जाए समाधि होगी किसकी? बस यही है सांख्ययोग या सांख्य की रीति। परंतु जो दूसरे दलवाले ऐसे नहीं हैं वह कर्म करते रहते हैं जिसे कर्मयोग कहा है। वह कर्म की ही रीति या मार्ग है जिससे धीरे-धीरे मन शुद्ध होता है। यह भी बात है कि यह सभी बातें पूरी जानकारी से ही हो सकती हैं। यहाँ तक कि कर्मों का मार्ग भी बीहड़ होने के नाते बहुत जानकारी चाहता है। लेकिन जिन्हें यह जानकारी होई नहीं, वह क्या करें? ऐसे लोग ही तो दुर्भाग्यवश ज्यादा होते हैं। इसीलिए उन्हीं के खयाल से 25वें श्लोक में सबसे नीचे की सीढ़ी कही है। ऐसे लोग दूसरे जानकारों से सुन-सुना के ही धीरे-धीरे इस काम में लगते हैं और आगे बढ़ते हैं। कहने का आशय यही है कि कर्म करने वालों में भी वे लोग नीचे दर्जे के ही होते हैं। बेशक वे ऐसे नहीं जो गीता की गिनती में आएँ ही न । वैसों की तो यहाँ चर्चा ही नहीं है। तीसरे अध्याेय के शुरू में ही गीता की गिनती में जिन्हें लिया है उन्हीं में ये भी आ जाते हैं। अतएव ये चारों स्वतंत्र मार्ग न हो के एक ही मार्ग की नीचे-ऊपर की सिर्फ सीढ़ियाँ हैं।

इस तरह ध्याफन या समाधि के फलस्वरूप जो समदर्शन होगा वही ज्ञान का असली रूप है। उसी का वर्णन इस अध्याीय के शेष श्लोकों में है। इसी वर्णन में उसकी महत्ता भी आ गई है और वह कब पूरा होता है यह भी कह दिया है। कुछ तर्क-दलीलें भी दी गई हैं। इसका श्रीगणेश कहाँ से होता है। यह भी बताया गया है। क्योंकि जब तक यह न जान लें कि क्या मर्ज है। तब तक औषधि क्या करेंगे? इसीलिए क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ या प्रकृति और पुरुष के पूर्वोक्त आलंकारिक संबंध से ही इसका निरूपण यों शुरू करते हैं जिसका उल्लेख शुरू में ही है, ताकि अंत में भी वह चीज याद आ जाए -

यावत्संजायते किंचित्सत्वं स्थावरजंगमम्।

क्षेत्रक्षेत्रसंगोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ॥ 26 ॥

हे भरतवंश में श्रेष्ठ, जो कुछ भी स्थावर और जंगम पदार्थ हैं या बनते हैं वह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संबंध से ही होते हैं यह जान रखो। 26।

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।

विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति॥ 27 ॥

(इसीलिए) सभी पदार्थों में एकरस रहने वाले तथा उनके नष्ट होने पर भी नष्ट न होने वाले परमेश्वर (रूपी आत्मा) को जो देखता है - साक्षात करता है - (दरअसल) वही देखता है - यथार्थदृष्टिवाला है। 27।

यहाँ निषेध दृष्टि से (Negatively) ही आत्मा की सत्ता मानी गई है, जिसे उपनिषदों में नेति-नेति की दृष्टि या मार्ग बताया है।

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।

न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परांगतिम्॥ 28 ॥

क्योंकि सर्वत्र एकरस रहने वाले ईश्वर को ही जो देखता रहता है वह स्वयं आत्मा को नष्ट नहीं करता - उसका असली रूप जान जाता है। इसीलिए वह परमगति - मुक्ति - पा जाता है। 28।

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश:।

य: पश्यति तथात्मानमक र्ता रं स पश्यति॥ 29 ॥

(इसीलिए) जो यह देखता है कि सभी कर्म तो प्रकृति के द्वारा ही किए जाते हैं; आत्मा को (इसी से) जो अकर्त्ता - कुछ भी न करने वाला - देखता है, वही (तो) देखने वाला है - जानकार है। 29।

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनु पश्यति।

तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा॥ 30 ॥

जब (मनुष्य) जुदे-जुदे दीखनेवाले पदार्थों को एक ही रूप - आत्मरूप - में देखता है और उसी से इनका पसारा देखता है तभी ब्रह्मरूप हो जाता है। 30।

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्यय:।

शरीरस्थोऽपि कौंतेय न करोति न लिप्यते॥ 31 ॥

हे कौंतेय, अनादि एवं निर्गुण होने के कारण ही यह विकारशून्य परमात्मा (रूपी पुरुष या जीव) शरीर में रहने पर भी न तो कुछ करता है और न किसी में सटता है। 31।

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।

सर्व त्रा वस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते॥ 32 ॥

यथा प्रकाशयत्येक: कृत्स्नं लोकमिमं रवि:।

क्षे त्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत॥ 33 ॥

जिस तरह सर्वत्र रहने पर भी अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण ही आकाश किसी से भी नहीं चिपकता, उसी तरह सभी शरीरों में रहने वाली आत्मा भी किसी से लिप्त नहीं होती। जिस तरह एक ही सूर्य सारे संसार को प्रकाशित करता है, उसी तरह (एक ही) क्षेत्रपति - खेतिहर या क्षेत्रज्ञ - सभी क्षेत्रों को प्रकाशित करता है। 32। 33।

यहाँ दो-एक महत्त्वपूर्ण बातें कही गई हैं। एक तो आत्मा को एक ही माना है। सूर्य का दृष्टांत भी साफ-साफ इसी मानी में दिया है। क्योंकि 'एक ही सूर्य' ऐसा कह दिया है। यों तो आकाश के दृष्टांत से भी आत्मा की एकता ही - अद्वैतवाद ही - सिद्ध है। दूसरी बात है निर्लेपता की। आकाश इतना बारीक है, सूक्ष्म है कि उसे कोई भी गंदगी या मैल पकड़ सकती ही नहीं। मगर जो आत्मा आकाश में भी है वह कितनी सूक्ष्म होगी यह तो आसानी से जाना जा सकता है फिर वह क्यों न निर्लेप हो? इस पर प्रश्न होता है कि सभी शरीरों का पथदर्शन या हिलना-डोलना एक ही आत्मा से कैसे होगा? उत्तर है कि एक ही सूर्य तो संसार को चलाता है, रास्ता बताता है। फिर जो सूर्य का भी सूर्य हो - उसकी भी आत्मा हो - वह सारी अंधी प्रकृति को क्यों न चलाए?

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा। भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम॥ 34 ॥

इस तरह क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ में क्या विलक्षणताएँ हैं, फर्क हैं यह बात और जड़ प्रकृति का अंत या नाश भी ज्ञानदृष्टि से जो लोग जानते हैं वही परब्रह्म तक पहुँचते हैं। 34।

पहले सातवें अध्या य में प्रकृति दो प्रकार की कही गई है, परा और अपरा। यहाँ अपरा प्रकृति से ही मतलब है। उसी की पहचान के लिए उसे भूतप्रकृति यानी पंचभूतों की जननी कह दिया है। आत्मा तो ऐसी है नहीं। जो सांख्यवादी प्रकृति का नाश नहीं मानते वे गलत हैं यही जनाने के लिए कह दिया है कि प्रकृति का मोक्ष या नाश होता ही है। मिथ्या जो ठहरी। नाश के बाद ही तो मुक्ति होती है।

इस अध्या य में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के रूप में ही संसार का विवेचन होने से वही इस अध्या्य का विषय है।

इति श्री. क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोगो नाम त्रयोदशोऽध्याय:॥ 13 ॥

श्रीम. जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोग नामक तेरहवाँ अध्याय यही है।

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