सातवें अध्याञय के अंत में जो बातें दो श्लोकों में कही गई हैं उनके ही करते अर्जुन को प्रश्न करने का मौका लग गया और आठवें अध्याय का श्रीगणेश उसी प्रश्न से होता है। अर्जुन ने क्यों प्रश्न किया और उसका आशय क्या है, आदि बातों पर पूरा प्रकाश, इन श्लोकों की विस्तृत व्याख्या एवं उत्तर का पूर्ण विवेचन पहले ही किया जा चुका है। सारी बातें ठीक-ठीक समझने के लिए वह विवेचन समझ लेना निहायत जरूरी है। यहाँ इतना ही कह देना है कि अंत के दो श्लोकों में जो बातें कही गई हैं वह शास्त्रप्रसिद्ध हैं। पुराने दार्शनिक इन्हें बखूबी जानते थे। इतना ही नहीं। जैसा कि सातवें अध्याय के अंत में हमने इन श्लोकों के ही प्रसंग में कह दिया है, ये बातें स्वयं सातवें अध्या्य में भी आई हैं। यह भी ठीक है कि वहाँ उनके प्रसंग में अध्या त्मज, अधिभूत आदि शब्द नहीं आए हैं। इसीलिए अर्जुन को यह खयाल होना जरूरी था कि यह कौन-सी भाषा बोलते और क्या बातें कह रहे हैं। उसके लिए जैसे यह एकदम निराली चीज थी। इसी के साथ कर्म की बात भी कुछ खटकी। क्योंकि कर्म-अकर्म की बात बहुत बार बड़ी सफाई से कह के चौथे अध्या य में ही यह भी कह दिया है कि कर्म में अकर्म तथा अकर्म में कर्म देखनेवाला ही योगी है और वह सभी कर्म करता है, कर सकता है 'स: युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्' (4। 18)। फिर यह क्या बला आई कि जरामरण से छुटकारे के लिए जो लोग यत्न करते हैं और अधिभूतादि को जानते हैं वही सभी कर्मों को जानते हैं? उसे यह कुछ अजीब-सी बात लगी। इसीलिए खटकी भी।

ब्रह्म की बात यद्यपि कोई नई न थी; तथापि ब्राह्मी स्थिति की जो बात दूसरे अध्यारय में कही जा चुकी है और 'लभंते ब्रह्मनिर्वाणं' (5। 25) तथा 'सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शं' (6। 28) में जो ब्रह्म या ब्रह्मानंद की प्राप्ति कही गई है; उसकी अपेक्षा यह कोई नई चीज ब्रह्म शब्द से तो नहीं कही जा रही है, यह शंका उसे हो सकती थी। क्योंकि समाधि के द्वारा ब्रह्मज्ञान की बात कहने के बाद यहाँ एकाएक यह कह देना कि पूर्ण या कृत्स्न ब्रह्म को ऐसे ही लोग जानते हैं, जरूर घपले में डालनेवाला प्रतीत होता है। यह कृत्स्न रूप से जानने योग्य कोई और ही ब्रह्म है क्या, यह खयाल इसीलिए हो आया। ब्रह्म हैं भी अनेक यह कह चुके हैं। इसलिए भी ऐसा खयाल अनुचित नहीं कहा जा सकता है।

मरणकाल के बारे में भी शंका का होना जरूरी था। भला उस अपार वेदना के समय किसी का चित्त एकदम एकाग्र कभी रह सकता है? यह तो निराली बात होगी। जब तक वह मनुष्य दुनिया से न्यारा कोई अलौकिक पदार्थ न माना जाए तब तक यह नहीं हो सकता। ऐसा होना तो ठीक वैसा ही है जैसा लपट के बीच में बर्फ की ठंडक का अनुभव! इसीलिए खासतौर से जोर दे के पूछना पड़ा कि प्रयाण के समय कैसे यह बात होगी? कैसे मन काबू में रहेगा? अधियज्ञ संबंधी प्रश्न पर तो विशेष प्रकाश पहले ही डाला गया है कि इसका क्या आशय है। इन्हीं सब बातों को मन में रख के -

अर्जुन उवाच

किं तद्ब्रह्म किम ध्या त्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।

अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥ 1 ॥

अधियज्ञ: कथं कोऽत्र देहेऽस्मिनमधुसूदन।

प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभि:॥ 2 ॥

अर्जुन ने पूछा - हे पुरुषोत्तम, हे मधुसूदन, वह ब्रह्म क्या (चीज) है? कर्म क्या है? अधिभूत भी कौन कहा गया है? अधिदैव किसे कहा जाता है? इस शरीर में अधियज्ञ कौन है और क्यों है? मरणकाल में भी मन को काबू रख के लोग आपको कैसे देखते हैं? 1। 2।

श्रीभगवानुवाच

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽ ध्या त्ममुच्यते।

भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसंज्ञित:॥ 3 ॥

अधिभूतं क्षरो भाव: पुरुषश्चाधिदैवतम्।

अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥ 4 ॥

श्रीभगवान बोले - हे देहधारियों में श्रेष्ठ, जो किसी भी दशा में नष्ट नहीं होता वही ब्रह्म है, पदार्थों का जो अपना रूप है वही अध्या त्मि कहा जाता है, पदार्थों की उत्पत्ति, स्थिति (आदि) जिससे हो उसी त्याग या क्रिया को कर्म नाम दिया गया है, पदार्थों की विनाशिता ही अधिभूत है और व्यापक परमात्मा ही अधिदैवत है। इस शरीर में अधियज्ञ तो मैं ही हूँ। 3। 4।

प्रश्नों के जो उत्तर दिए गए हैं उन पर भी पहले ही प्रकाश डाला गया है जरूर। मगर एक चीज स्पष्ट नहीं हुई है। इसीलिए उसी के संबंध में कुछ कहना आवश्यक हो जाता है। प्रश्नों के देखने से पता चलता है कि कुल आठ प्रश्न किए गए हैं। यद्यपि सातवें अध्याआय के अंत में कही गई जिन बातों को ले के ये प्रश्न हुए हैं वह सात ही हैं, तथापि अधियज्ञ के बारे में दो प्रश्न होने के कारण ही इनकी संख्या आठ हो जाती है। अधियज्ञ के बारे में औरों की ही तरह सीधे ही यह सामान्य प्रश्न करने के बजाए कि अधियज्ञ क्या है या कौन है; उसने एक तो यह पूछ दिया कि इस शरीर के भीतर अधियज्ञ कौन है? दूसरे यह कि यदि है तो कैसे है, क्योंकर है? इसके बाद ही प्रयाणकाल वाली बात आने के कारण अर्जुन सोचता था कि शरीर में ही अधियज्ञ का जानना जरूरी है। क्योंकि यज्ञचक्र का संबंध सृष्टि से होने के कारण उसका अनुष्ठान हर हालत में अनिवार्य होने से मरण के समय वह बाहर तो हो सकता नहीं। इसलिए शरीर में ही यदि उसका पता लग जाए तो यह बड़ा लाभ हो जाए कि मरणकाल में भी यज्ञक्रिया निर्विघ्न होती रहे। इसीलिए उसने यह भी प्रश्न कर दिया कि यदि ऐसा कोई अधियज्ञ है तो कैसे? इसका अभिप्राय इतना ही है कि पूरा इत्मीनान हो जाए। कभी शक-शुभा न हो सके।

अभी तक दो श्लोकों में जो उत्तर दिए गए हैं वह तो सिर्फ छ: प्रश्नों के ही हैं। जो अधियज्ञ शरीर में है वह कैसे है, का उत्तर अभी बाकी ही है और प्रयाणकाल में परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय भी अभी तक नहीं बताया गया है। इनमें प्रयाणकाल वाले प्रश्न का उत्तर आगे के आठवें श्लोक से शुरू हो के तेरहवें श्लोक में पूरा हुआ है। बात बहुत बड़ी है। वह केवल जानने की ही चीज न हो के करने या अनुष्ठान की वस्तु है। इसीलिए उसकी रीति बताने में कुछ विस्तार करना ही पड़ा है। रह गए बीच के 5 से 7 तक के तीन श्लोक। बस, इन्हीं में कथं या कैसे का उत्तर आया है। अर्जुन ने तर्क-दलील पूछी थी। इसीलिए कृष्ण को युक्तियाँ देनी पड़ीं। फिर तो उत्तर लंबा होना ही था। उत्तर का निचोड़ यही है कि मनुष्य जब अंत समय में मुझी को स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तभी मुक्ति पाता है, तो फिर अधियज्ञ इस देह में नहीं तो और कहाँ है? अंतकाल में बाहर तो जाना-आना हो सकता नहीं। अंत में जिस चीज में मन टिकता है मरने के बाद वही बनना पड़ता है यह भी नियम है। इसलिए मरण के समय मुझ में ही मन को टिकाना जरूरी हो जाता है। नहीं तो सब किए-कराए पर पानी जो फिर जाएगा। परंतु यह तो हो सकता नहीं, यदि यज्ञपुरुष या परमात्मा कहीं बाहर हो। इसलिए मानना पड़ता है कि शरीर के भीतर ही यज्ञपुरुष या अधियज्ञ के रूप में परमात्मा मौजूद है, जिससे उसमें मन आसानी से जोड़ा जा सकता है। जो लोग यह मानने को तैयार न हों उन्हें तो यह स्वीकार करना ही होगा कि आत्मज्ञानी मरने के समय यज्ञचक्र को छोड़ देने से पापी और इंद्रियों का पोषक हो गया। इसीलिए उसका जीवन व्यर्थ गया, 'अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति' (3। 16)। हमारा मतलब उन लोगों से ही यहाँ है जिनके आत्मज्ञान का पूर्ण परिपाक मरण के पूर्व नहीं हो सका है, जिनमें मस्ती नहीं आई। क्योंकि वैसे मस्तों के लिए तो कोई कर्तव्य रही नहीं जाता है।

यह भी बात है कि व्यष्टि और समष्टि या पिंड और ब्रह्मांड दोनों में ही हर चीज को देखते तथा मानते हैं। 'द्वाविमो पुरुषौ' (15। 16) के अनुसार पुरुष तो शरीर में हई तथा अध्या त्मन और अधिभूत भी। सिर्फ अधियज्ञ का पता लगना बाकी है। और वही पूछा भी गया है।

अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।

य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥ 5 ॥

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।

तं तमेवैति कौंतेय सदा तद्भावभावित:॥ 6 ॥

हे कौंतेय, अंतकाल में - मरने के समय - शरीर त्यागते हुए मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को छोड़ के जो प्रयाण करता है - मर जाता है - वह मेरा ही स्वरूप हो जाता है; इसमें संशय नहीं है। (क्योंकि) शरीरांत के समय जिस-जिस पदार्थ को स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है - कारण हमेशा उसी पदार्थ की भावना उसके भीतर रही है - उसी-उसी का रूप बन जाता है। 5। 6।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर यु ध्य च।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥ 7 ॥

इसलिए हर समय मुझी को लगातार याद करो और लड़ते भी रहो। (इस तरह) मुझमें ही मन और बुद्धि को लिपटा देने पर निस्संदेह मुझको ही प्राप्त होंगे। 7।

इन तीन श्लोकों में जो सिद्धांत बताया गया है कि अंत समय में मन जिसमें जम जाता है, फलत: जिसकी स्मृति प्रबल हो उठती है, मरने के बाद आत्मा को वैसा ही शरीर मिलता है, यह पुनर्जन्म का सिद्धांत है। लेकिन यह बात यों ही अकस्मात नहीं हो जाती। मरने के समय कथावार्त्ता सुन-सुना के ही जो लोग काम निकालना चाहते हैं वह भूलते हैं। इसीलिए तो गीता ने 'सदा तद्भावभावित:' और 'मय्यर्पितमनोबुद्धि:' कह दिया है। जिस बात का निरंतर अभ्यास किया है, जिसकी भावना प्रबल है, जिसमें मन और बुद्धि दोनों ही को लगा दिया है, या यों कहिए कि इन दोनों को जिसके हवाले कर दिया है, उसी की प्रबल स्मृति अंतकाल में होगी और मरने पर वही पदार्थ, स्थान या शरीर प्राप्त होगा। आगे के (8-13) श्लोकों में भी यही बात विस्तार के साथ कही गई है। 'प्रयाणकाले' प्रश्न का उत्तर भी इन्हीं में है।

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थनुचिन्तयन्॥ 8 ॥

हे पार्थ, (इसीलिए) अभ्यास रूपी उपाय से एकाग्र तथा अन्य किसी भी पदार्थ में जा नहीं सकने वाले मन से दिव्य परमपुरुष - पुरुषोत्तम परमात्मा - का निरंतर चिंतन करता हुआ (मनुष्य) उसी को प्राप्त करता है। 8।

कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयां समनुस्मरेद्य:।

सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमस: परस्तात्॥ 9 ॥

प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।

भ्रुवोर्म ध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥ 10 ॥

जो (आदमी) प्रयाण - मरण - काल में योग के बल से भौंहों के मध्यष में प्राण को दृढ़ता से टिका के भक्तियुक्त एकाग्र मन से दूरदर्शी - सर्वज्ञ - पुरातन, अनुशासन करने वाले, परमाणु से भी परमाणु - अत्यंत - सूक्ष्म - सब पदार्थों के आधार, अचिंतनीय स्वरूपवाले, सूर्य सदृश प्रकाशमान और अज्ञान से दूर रहने वाले दिव्य परम पुरुष को निरंतर याद करता है वह उसी को प्राप्त होता है। 9। 10।

यदक्षरं वेदविदो व दंति वि शंति यद्यतयो वीतरागा:।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं च रंति त त्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥ 11 ॥

वेदों के ज्ञाता जिसे अक्षर - अविनाशी - कहते हैं, रागद्वेषादि से रहित संन्यासी जिस रूप में मिल जाते हैं (और) जिसकी (प्राप्ति की) इच्छा वाले (आजन्म) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं उसी पद (की प्राप्ति कैसे होती है यह बात) तुम्हें संक्षेप में अभी बताता हूँ। 11।

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुद्धय च।

मूर्ध्न्याधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥ 12 ।

ॐ इत्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहारन्मामनुस्मरन्।

य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥ 13 ॥

सभी (इंद्रियों के) छिद्रों को रोक के, मन को हृदय में ही अटका के और अपने प्राणों को मस्तक में ले जा के योग की धारणा में लगा हुआ जो (आदमी) ओंकार रूपी एकाक्षर ब्रह्म का (मन से ही) उच्चारण करता और मुझ परमात्मा को ही निरंतर याद करता हुआ शरीर छोड़ के प्रयाण करता है। वही परमगति - मुक्ति - प्राप्त करता है। 12। 13।

यहाँ इन चार श्लोकों के बारे में कुछ बातें जानने योग्य हैं। पहली बात यह है कि यहाँ योगबल का अर्थ पातंजल योग ही है, जिसमें प्रधानरूप से प्राणायाम आ जाता है। इसीलिए योगधारणा का भी उल्लेख है। योग के आठ अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्याान, धारणा, समाधि में सातवाँ अंग धारणा है, जैसा कि 'यमनियमासन प्राणायाम प्रत्याहार ध्याान धारणा समाधयोऽष्टावंगानि' (पातं. 2। 29) से स्पष्ट है। इसके बिना मरणकाल में यह बात असंभव है।

दूसरी बात यह है कि 10वें श्लोक में जो भौंहों के बीच में प्राण को टिकाने की बात कही गई है वह आगे 12वें श्लोक में लिखी धारणा की पहली सीढ़ी है। योगियों ने प्राण के टिकाने के कई अड्डे माने हैं जिनसे घूमता हुआ वह अंत में मस्तक में पहुँच के वहीं रुक जाता है। इस तरह समाधि पूर्ण हो जाती है। इन्हीं अड्डों को वे लोग चक्र कहते हैं। नाभि से ही प्राण को ऊपर ले चलते हैं। प्राण का सनातन अड्डा नाभि को ही मानते हैं। इसी से इसे मूलाधार चक्र भी कहते हैं। यहाँ से आखिरी स्थान मस्तक या ब्रह्मरन्ध्र में पहुँचने के पहले और भी चार स्थानों से उसे गुजरना होता है। इन चारों में आखिरी स्थान भौंहों के बीच है। अभ्यास की पुष्टि के ही लिए यह एक तरह की कसरत ही समझिए। यहीं से ब्रह्मरंध्र में जाके काम पूरा होता है। यही कारण है कि भौंहों की बात कह के आगे की बात कहने से पूर्व 11वें श्लोक में सजग कर दिया है कि लो, उसे भी सुनाए देता हूँ। असल में वह सूक्ष्म और कठिन बात है। इसीलिए सजग कर दिया है। यहाँ 'प्रवक्ष्ये' का भी वही अर्थ है जो सातवें अध्या्य में कहा है। यानी अभी कहे देता हूँ। न कि भविष्यकाल इसके मानी हैं।

जो लोग दसवें श्लोक की बात से बारहवें वाली को स्वतंत्र मानते हैं वह दरअसल यह चीज जानते ही नहीं। ये दोनों ही एक दूसरे से मिली-जुली आगे-पीछे की सीढ़ियाँ हैं। इसीलिए 11वें में पद का अर्थ ॐकार अक्षर या पद करना भी ठीक नहीं है। अक्षर ब्रह्म तो इस अध्याय के शुरू में ही आया है। आगे जो ॐकार के उच्चारण की बात कही गई है उससे लोगों को कुछ भ्रम हो जाता है जरूर। मगर वहाँ भी समझने की बात है। एक तो यही बात बुद्धि में नहीं समाती कि प्रयाणकाल में ॐकार का जबान से उच्चारण कैसे होगा। उस समय यह शक्ति रहती ही है कहाँ? यदि शक्ति रहे भी तो दूसरी बात यह है कि जब प्राण को भौंहों के बीच दृढ़ता से टिकाने के बाद ब्रह्मरन्ध्र में पहुँचा देते हैं, धारणा या समाधि की दशा में मन को भी वहीं टिकाए अचल रखते हैं और इसी के लिए इंद्रियों के सभी द्वार बंद कर दिए जाते हैं, तो फिर जबान हिलेगी कैसे? इसीलिए वहाँ बात ही दूसरी है।

दरअसल बात यों है कि योगियों का यह कहना है कि मूर्द्धा या ब्रह्मरन्ध्र में निरंतर ओं ओं की गंभीर धवनि होती रहती ही है। किंतु हम लोग उसे सुन पाते नहीं। कान मूँदने पर घर्र-घर्र की जो आवाज मालूम होती है वह उसी का विकृतरूप माना जाता है। हाँ, प्राण को ब्रह्मरन्ध्र में पहुँचा के समाधि करने पर वह अखंड ॐकारनाद सुनाई पड़ता रहता है। यही उसका उच्चारण है। उच्चारण तीन प्रकार का माना भी जाता है - बोल के, केवल जबान हिला के और केवल मन से। सो वहाँ मानसिक ही है। मन वहीं एकाग्र है और वह नाद उसी को सुनाई देता है। इतने से ही उसे मानसिक उच्चारण कहते हैं। योगी यह भी मानते हैं कि वह नाद इतना मधुर है कि मन और प्राण दोनों ही उसी में भूल जाते हैं, लुब्धा हो जाते, रम जाते हैं। उस ॐकार को ब्रह्म का प्रतीक या सूचक मान के उसे तथा ब्रह्म को एक भी कह देते हैं, जैसा कि विष्णु के प्रतीक शालिग्राम को ही विष्णु कह देते हैं।

लेकिन ये सारे काम उन्हीं के लिए हैं जिनके ज्ञान का परिपाक नहीं हुआ है। फलत: जिन्हें मस्ती नहीं आई है। क्योंकि जब तक कोर-कसर न रहे यह प्रपंच करने की जरूरत ही क्या है? इसीलिए पूर्ण ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार वाले को यह सब नहीं करना होता है। यही बात आगे के श्लोक में यों लिखी है -

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।

तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥ 14 ॥

हे पार्थ, अनन्य चित्त से - मन को अन्य पदार्थों में जाने न देकर - जो मुझ परमात्मा को नित्य ही याद करता है उस सदा योगारूढ़ योगी के लिए तो मैं सुलभ ही हूँ। 14।

मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम्।

नाप्नुवन्ति महात्मान: संसिद्धिं परमां गता:॥ 15 ॥

परम संसिद्धि - जीवन्मुक्ति - की दशावाले महात्मा जन मुझ परमात्मा का ही रूप हो के दु:ख के घर (और) बार-बार होने वाले (इस) पुनर्जन्म से रहित हो जाते हैं। 15।

आब्रह्मभुवनाल्लो का: पुन राव र्त्तिनोऽर्जुन।

मामुपेत्य तु कौंतेय पुनर्जन्म न विद्यते॥ 16 ॥

हे अर्जुन, हे कौंतेय, ब्रह्मलोक तक के सभी स्थानों से पुन: लौटना - जन्म लेना - पड़ता ही है। केवल मुझे प्राप्त होने पर ही पुनर्जन्म नहीं होता। 16।

यहाँ यह न भूलना चाहिए कि गीता में जो बार-बार स्मरण या याद करने की बात आती रहती है और भक्ति की भी, वह माला जपने और नाचने-कूदनेवाली नहीं है। ज्ञानी को भी भक्त ही कहा है और वही सर्वोत्तम है। मगर वह तो नाचता-कूदता नहीं। भक्ति का तो अर्थ ही है समाधि या मन को आत्मा में ही डुबो देना, टिका देना। इसीलिए स्मरण का भी अर्थ है तदाकार वृत्ति या मन के सामने आत्मा के अलावे और किसी का न होना ही।

यहाँ जो कह दिया कि ब्रह्मलोक तक भी जा के वापस आना और जन्म लेना पड़ता है वह कुछ नई-सी बात हो गई। क्योंकि साधारणतया यही माना जाता है कि ब्रह्मलोक जाने वाले मुक्त हो जाते हैं। इसीलिए अब जरूरत पड़ गई कि जरा विस्तार से यह बात समझा दी जाए। फलत: खुद ब्रह्मा की भी आयु की ओर इशारा करते हुए इस बात का स्पष्टीकरण आगे के तीन श्लोक करते हैं। ब्रह्म को ही हिरण्यगर्भ और प्रजापति भी कहते हैं। यहाँ अव्यक्त शब्द आया है, जो ब्रह्मा की ही नींद की अवस्था के अर्थ में है - अर्थात जब ब्रह्मा कुछ करते दीखते नहीं। जो लोग अव्यक्त का यहाँ प्रकृति या प्रधान अर्थ करते हैं वह भूल जाते हैं कि रोज-रोज के प्रलय में आकाशादि महाभूत, महान तथा अहंकार तो रहते ही हैं। महान इसी ब्रह्मा का ही दूसरा नाम है। अव्यक्त का अर्थ है जो दीखे नहीं। इसी तरह अदृश्य बह्म की वह निद्रावस्था, प्रधान या प्रकृति और स्वयं अविनाशी ब्रह्म तीनों ही अव्यक्त कहे जाते हैं। आगे के श्लोक यह बात स्पष्ट दिखाते हैं कि ब्रह्मा का तो यह टकसाल ही है। दिन भर कुम्हार के बरतनों की तरह सृष्टि बनाना और रात में उसका खात्मा हो जाने पर पुन: प्रात: वही काम करना। ब्रह्मा के दिन-रात बड़े हैं यह भी बताया है। यह ठीक है कि यहाँ ब्रह्मा की मृत्यु की बात नहीं कही गई है और न ब्रह्मलोक से लौटने की ही। मगर जब उनकी भी दिन-रात है तो इसका अभिप्राय अर्थत: वही है। आखिर दिन-रात तो काम ही है आयु का हिसाब लगाना-बताना, और जब आयु पूरी होगी तो ब्रह्मलोक से हटना तो होगा ही। यह हटना ही हुआ वहाँ से लौटना। क्योंकि ब्रह्मा को फिर शरीर नहीं मिलता। आयु के अंत में ज्ञान के द्वारा वह मुक्त हो जाते हैं और उन्हीं के साथ दूसरे भी, जो वहाँ रहते हैं। यह बात आगे 'यत्रकालेत्वनावृत्तिं' (8। 23-26) आदि चार श्लोकों में लिखी है। फिर नए ब्रह्मा आते और नया कारबार चलता है। ब्रह्मा की आयु पूरा होने को महाप्रलय और रोज-रोज रात में उनके सोने को खंड प्रलय कहते हैं। कहा जाता है, इस तरह पूरे सौ साल तक ब्रह्मा भी कायम रहते हैं। तब कहीं जा के मुक्त होते हैं। इस प्रकार ब्रह्म लोक में जाने पर तत्काल मुक्ति न हो के देर से होती है। इस देर के करते ही उसे लौटना मानते हैं। लौटने में भी तो आखिर देर ही होती है न?

सहस्रयुगपर्यंतमहर्यद्ब्रह्मणो विदु:।

रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जना:॥ 17 ॥

ब्रह्मा की दिन-रात (का हिसाब) जानने वाले जानते हैं कि (सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि इन चार) युगों के हजार बार गुजरने पर ब्रह्मा का एक दिन और उतने ही की रात होती है। 17।

यहाँ 'तेऽहोरात्रविद:' में 'ते' का 'वे' अर्थ नहीं है। यह तो यों ही आ गया है। जब किसी खास व्यक्ति को न कह के अनिश्चित रूप से कहते हैं तभी ऐसा बोलते हैं। अंग्रेजी में भी 'दे से' (they say) बोलते हैं 'ऐसा कहते हैं' इसी अर्थ में।

अव्यक्ताद्वयक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे।

रा त्र्या गमे प्रलीयंते त त्रै वाव्यक्तसंज्ञके॥ 18 ॥

भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।

रा त्र्या गमेऽवश: पार्थ प्रभवन्त्यहरागमे॥ 19 ॥

दिन आते ही - शुरू होते ही - अव्यक्त - ब्रह्मा की निद्रावस्था - से ही सारे व्यक्त पदार्थ पैदा होते हैं। रात आने पर फिर उसी अव्यक्त नामक दशा में विलीन हो जाते हैं। हे पार्थ, भौतिक पदार्थों का यह वही समूह बार-बार पैदा हो के रात आते ही मजबूरन नष्ट हो जाता और दिन आते ही फिर बन जाता है। 18। 19।

पहले भी 'अव्यक्तादीनि' (2। 28) में यही बात कही जा चुकी है। यहाँ भी वही आशय है।

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:।

य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥ 20 ॥

उस अव्यक्त या स्वापावस्था वाले ब्रह्मा से भी परे - बढ़कर - जो अव्यक्त है वही सभी पदार्थों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है। 20।

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम्।

यं प्राप्य न निर्वित्तन्ते तद्धाम परमं मम॥ 21 ॥

इसी (दूसरे) अव्यक्त को ही अक्षर या अविनाशी कहा गया है। वही परम गति (भी) है, जिससे प्राप्त हो जाने पर लौटना नहीं होता। वही मेरा परम धाम (भी) है। 21।

पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।

यस्यान्त:स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥ 22 ॥

हे पार्थ, जिसके ही भीतर ये सभी पदार्थ मौजूद हैं और जो इन सबों में व्याप्त है वह परम पुरुष केवल अनन्य भक्ति के द्वारा प्राप्त हो सकता है। 22।

यहाँ पर हम यदि गौर से देखें तो पता चलेगा कि ब्रह्मलोक से लौटने की जो बात चली थी उसी के प्रसंग में पुनरपि निर्वाण मुक्ति की बात तीन (20-22) श्लोकों में कह दी गई है। ताकि लोग दोनों का आमने-सामने मुकाबिला करके देखें कि कौन-सी चीज अच्छी है - आया ब्रह्मलोक का मार्ग पकड़ के वहाँ जाना और लंबी प्रतीक्षा के बाद ब्रह्मा के साथ मुक्त होना, जो वस्तुगत्या पुनर्जन्म के बाद मुक्त होने के समान ही है, या आत्मसाक्षात्कार के द्वारा तत्काल मुक्त होना, जिसमें यह आना-जाना और लंबी प्रतीक्षा की गुंजाइश नहीं है।

इसलिए फिर उसी ब्रह्मलोक वाली बात पर ही आ के उसके संबंध की शेष बातें आगे के श्लोकों में बताते और अध्याबय का उपसंहार करते हैं। यहाँ पर अब तक जो कुछ गीता के श्लोकों में कहा गया है उससे तो यही पता चलता है कि ब्रह्मलोक में भी जा के लोग वापस ही आते हैं, जन्म लेते हैं। मगर परंपरा से जो बात मानी जाती है उसके साथ इस कथन का कुछ विरोध हो जाता है। माना तो यही जाता है कि स्वर्गादि लोकों में जा के वहाँ से वापस आना और जन्म लेना पड़ता है। गीता में भी 'त्रैविद्या मां सोमपा:' (9। 20-21। 12) आदि दो श्लोकों में यही माना गया है। विपरीत इसके ब्रह्मलोक के बारे में कुछ और ही धारणा पाई जाती है। ऐसा माना जाता है कि वहाँ बड़े-बड़े तपस्वी, उपासक आदि ही जाते हैं, जिनका ज्ञान पूर्णतया परिपक्व नहीं हुआ रहता है। छांदोग्य, बृहदारण्यक प्रभृति उपनिषदों में जो पंचाग्नि विद्या का प्रकरण है, जिसका विचार हम पहले कर भी चुके हैं, उसमें भी यही लिखा है कि ऐसे लोगों को कोई मानस या अमानव पुरुष ब्रह्मलोक में ले जाता है, जहाँ से वे फिर वापस नहीं आते, 'पुरुषो मानस एत्य ब्रह्मलोकानृगमयति तेषु ब्रह्मलोकेषु परा: परावतो वसन्ति तेषां न पुनरावृत्ति:' (वृह. 6। 2। 15)। इस प्रकार पुरानी परंपरा एवं उपनिषदों के साथ गीता का साफ ही विरोध हो जाता है।

इसीलिए पूर्व कथन का स्पष्टीकरण करते हुए यही बात आगे के श्लोक स्वीकार करते हैं। वे मानते हैं कि ब्रह्मलोक जा के मुक्त होने में देर होती है और लंबा रास्ता तय करना पड़ता है। इसीलिए उसे साक्षात मुक्ति न मान के क्रम-मुक्ति कहते हैं। क्रमश: अर्थात देर से मुक्ति होती जो है। यही आशय है वहाँ से लौटने की बात कहने का भी। आगे जो उत्तरायण-दक्षिणायन या शुक्ल-कृष्ण मार्ग कहे गए हैं उनका पूरा विवरण कर्मवाद के विवेचन में दिया जा चुका है। श्लोकों का अर्थ भी वहीं समझाया गया है।

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिन:।

प्रयाता यांति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ॥ 23 ॥

हे भरतर्षभ, योगीजन जिस काल में मरने पर - प्रयाण करने पर - नहीं लौटते और लौटते भी हैं वह काल अभी बताए देता हूँ। 23।

यहाँ भी वक्ष्यामि का अर्थ पहले जैसा ही है, न कि भविष्यकाल।

अग्निर्ज्योतिरह: शुक्ल:षण्मासा उत्तरायणम्।

तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना:॥ 24 ॥

अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छ: महीने, इनमें प्रयाण करने वाले ब्रह्म के उपासक जन (क्रमश:) ब्रह्म को प्राप्त करते हैं। 24।

यहाँ 'ब्रह्मविद:' का अर्थ ब्रह्मज्ञानी न होके बह्म के उपासक और अपूर्ण ज्ञानी ही है। इसीलिए ब्रह्म की प्राप्ति में क्रमश: लिख दिया है।

धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण:षण्मासा दक्षिणायनम्।

तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्त्तते॥ 25 ॥

धूम, रात, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन के छ: महीने, इनमें प्रयाण करने वाला योगी चंद्रमा की ज्योति तक पहुँच के वापस आता है। 25।

शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगत: शाश्वते मते।

एकया यात्यनावृत्तिमन्य याव र्त्तते पुन:॥ 26 ॥

इस प्रकार जगत के ये शुक्ल-कृष्ण मार्ग चिरंतन माने जाते हैं। (इनमें) एक से (जाने पर) आना-जाना पुन: नहीं होता है। (मगर) दूसरे से होता है। 26।

इन श्लोकों में योगी उसे कहते हैं जो पूर्ण तत्त्वज्ञानी न हो और या तो कर्ममार्ग में ही दत्तचित्त हो या उससे आगे बढ़ के ज्ञान की ओर झुका हो एवं तदनुकूल ही उपाय करता हो। ये दोनों रास्ते चिरंतन हैं। सृष्टि के साथ ही इनका ताल्लुक है यह बात बखूबी बता चुके हैं।

नैते सृती पार्थ जानन् योगी मुह्यति कश्चन।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥ 27 ॥

वेदेषु यज्ञेषु तप: सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।

अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥ 28 ॥

हे पार्थ, जो कोई भी योगी इन मार्गों को भीतरी दृष्टि से देख लेता है वह (कभी फिर) मोह में नहीं फँसता। इसीलिए हे अर्जुन, तुम हमेशा ही योगयुक्त हो जाओ। (क्योंकि) वेदों (के पढ़ने), यज्ञों (के करने), तपस्याओं और दानों के जितने उत्तम फल कहे गए हैं, उन सबों से बढ़कर फल इस बात के पूर्ण जानकार योगी को मिलता है। (वह तो) मूल - लक्ष्य - स्थान पर ही पहुँच जाता है। 27। 28।

इन श्लोकों के योगयुक्त, विदित्वा, जानन आदि शब्दों के अर्थों पर गौर करने से योगी का अर्थ है पूर्ण आत्मज्ञानी और आत्मसाक्षात्कार वाला मस्तराम। जिसे ऐसा ज्ञान हो जाता है वही तो हस्तामलक की तरह इन सभी मार्गों को रत्तीा-रत्तीि देखता है। उसकी दृष्टि के सामने ये सारी चीजें झलक जाती हैं। भीतर ही भीतर हँसता हुआ वह यह भी सोचता है कि हमने यह क्या पँवारा फैला दिया है। हम तो मकड़ी या रेशम के कीड़े की ही तरह अपने ही बनाए तार में खुद-ब-खुद अब तक फँसे छटपटा रहे थे!

पोथी-पत्रा पढ़ के या दूसरों से सुन के जो भी जानकारी इन मार्गों की होती है उससे यहाँ तात्पर्य हई नहीं। क्योंकि उस जानकारी से मूल स्थान या परब्रह्म की प्राप्ति कैसे होगी? ऐसा जानने वाला मोह से छुटकारा कैसे पा जाएगा? अगर क्रममुक्ति ही इसका भी मतलब माना जाए तो वह तो कही जा चुकी ही है। फिर दुहराने का क्या प्रयोजन? उसमें मोह की निवृत्ति का भी क्या सवाल? जब पहले मोह से छुटकारे की बात नहीं कही गई जब कि उसका पूरा निरूपण किया गया है, तो यहाँ कहने का क्या अवसर? इसके अलावे हमेशा योगयुक्त होने का भी तो उपदेश यहाँ दिया गया है। ठीक इसी प्रकार 'तस्मात्सर्वेषु कालेषु' (8। 7) में भी आया है और वहाँ तो निर्विवाद रूप से मन को आत्मा में ही लीन करने की बात है, जिसका अर्थ आत्मसाक्षात्कार ही है। इसीलिए यहाँ भी वही अर्थ उचित है।

अंतिम श्लोक में वेदेषु प्रभृति शब्दों का अर्थ वेदों का पढ़ना आदि मान के हमने वैसा ही लिखा है। केवल वेदों से तो कोई पुण्य होता नहीं, जब तक उन्हें पढ़ा न जाए। नहीं तो कोई उन्हें पढ़ेगा क्यों? वेद तो हईं और सभी लोगों को महान पुण्य यों ही मिल जाएगा!

इस अध्याईय का श्रीगणेश ही हुआ है सातवें अध्याएय के अंत की बात को लेकर। वह बात ब्रह्म से ही शुरू होकर कइयों को शामिल कर लेती है। उसी ब्रह्म को अक्षर भी कहा है। समूचे अध्याोय में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अक्षर ब्रह्म का ही निरूपण है। उसी के ज्ञान का अंत में उपसंहार भी है। अतएव ठीक ही अक्षर ब्रह्म ही इस अध्या्य का विषय है। उसी अक्षर ब्रह्म को तारक ब्रह्म भी कहते हैं। तारने से ही तारक कहा जाता है।

इति श्री. अक्षरब्रह्मयोगो नामाष्टमोऽ ध्या य:॥ 8 ॥

श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका अक्षर ब्रह्मयोग नामक आठवाँ अध्या्य यही है।

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