सिया लखन संग राम पधारे। गोदावरी के पुण्य किनारे।
युग अतीत वह बीत गया है। सलिल वही क्या शेष रहा है॥41॥

जल का पात्र वहीं का वह है। जलधि समाया पूर्व सलिल है।
पावनता तब से है वैसी। पात्र पुरातन युग के जैसी॥42॥

पूरव सलिल जाता है ज्यों ही। नूतन जल आता है त्यों ही।
इसी भाँति अवतार रीति है। युग-युग में होती प्रतीत है॥43॥

बहु शताब्दियाँ संवत् सर यों। उन शतकों में सन्त प्रवर ज्यों।
हो सलिल सरिस सन्त साकार। ऊर्मिविभूतियां अपरंपार॥44॥

सुरसरिता ज्यों सन्त सु-धारा। आदि महायुग ले अवतार।
सनक सनन्दन सनत कुमार। सन्त वृन्द ज्यों बाढ़ अपारा॥45॥

नारद तुम्बर पुनः पधारे। ध्रुव प्रहलाद बली तन धारे।
शबरी अंगद नल हनुमान। गोप गोपिका बिदुर महाना॥46॥

सन्त सुसरिता बढ़ती जाती। शत-शत धारा जलधि समाती।
बाढ़ें बहु यों युग-युग आती वर्णन नहीं वाणी कर पाती॥47॥

सन्त रूप गोदावरी तट पर। कलियुग के नव मध्य प्रहर पर।
भक्ति-बाढ़ लेकर तुम आये। 'सांईनाथ" सुनाम तुम कहाये॥48॥

चरण कमल द्वय दिव्य ललाम। प्रभु स्वीकारों विनत प्रणाम।
अवगुण प्रभु हैं अनगिन मेरे। चित न धरों प्रभु दोष घनेरे॥49॥

मैं अज्ञानी पहित पुरातन। पापी दल का परम शिरोमणी।
सच में कुटिल महाखलकामी। मत ठुकराओं अन्तरयामी॥50॥

दोषी कैसा भी हो लोहा। पारस स्वर्ण बनाता चोखा।
नाला मल से भरा अपावन। सुरसरिता करती है पावन॥51॥

मेरा मन अति कलुष भरा है। नाथ ह्रदय अति दया भरा है।
कृपाद्रष्टि से निर्मल कर दें। झोली मेरी प्रभुवर भर दें॥52॥

पासस का संग जब मिल जाता। लोह सुवर्ण यदि नहीं बन पाता।
तब तो दोषी पारस होता। विरद वही अपना है खोता॥53॥

पापी रहा यदि प्रभु तव दास। होता आपका ही उपहास।
प्रभु तुम पारस,मैं हूँ लोहा। राखो तुम ही अपनी शोभा॥54॥

अपराध करे बालक अज्ञान। क्रोध न करती जननी महान।
हो प्रभु प्रेम पूर्ण तुम माता। कृपाप्रसाद दीजियें दाता॥55॥

सदगुरू सांई हे प्रभु मेरे। कल्पवृक्ष तुम करूणा प्रेरे।
भवसागर में मेरी नैया। तूं ही भगवान पार करैया॥56॥

कामधेनू सम तूं चिन्ता मणि।ज्ञान-गगन का तूं है दिनमणि।
सर्व गुणों का तूं है आकार। शिरडी पावन स्वर्ग धरा पर॥57॥

पुण्यधाम है अतिशय पावन। शान्तिमूर्ति हैं चिदानन्दघन।
पूर्ण ब्रम्ह तुम प्रणव रूप हें। भेदरहित तुम ज्ञानसूर्य हें॥58॥

विज्ञानमूर्ति अहो पुरूषोत्तम। क्षमा शान्ति के परम निकेतन।
भक्त वृन्द के उर अभिराम। हों प्रसन्न प्रभु पूरण काम॥59॥

सदगुरू नाथ मछिन्दर तूं है। योगी राज जालन्धर तूं है।
निवृत्तिनाथ ज्ञानेश्वर तूं हैं। कबीर एकनाथ प्रभु तूं है॥60॥

सावता बोधला भी तूं है। रामदास समर्थ प्रभु तूं है।
माणिक प्रभु शुभ सन्त सुख तूं। तुकाराम हे सांई प्रभु तूं॥61॥

आपने धारे ये अवतार। तत्वतः एक भिन्न आकार।
रहस्य आपका अगम अपार। जाति-पाँति के प्रभो उस पार॥62॥

कोई यवन तुम्हें बतलाता। कोई ब्राह्मण तुम्हें जतलाता।
कृष्ण चरित की महिमा जैसी। लीला की है तुमने तैसी॥63॥

गोपीयां कहतीं कृष्ण कन्हैया। कहे 'लाडले' यशुमति मैया।
कोई कहें उन्हें गोपाल। गिरिधर यदूभूषण नंदलाल॥64॥

कहें बंशीधर कोई ग्वाल। देखे कंस कृष्ण में काल।
सखा उद्धव के प्रिय भगवान। गुरूवत अर्जुन केशव जान॥65॥

ह्रदय भाव जिसके हो जैसे। सदगुरू को देखे वह वैसा।
प्रभु तुम अटल रहे हो ऐसे। शिरडी थल में ध्रुव सम बैठे॥66॥

रहा मस्जिद प्रभु का आवास। तव छिद्रहीन कर्ण आभास।
मुस्लिम करते लोग अनुमान। सम थे तुमको राम रहमान॥67॥

धूनी तव अग्नि साधना। होती जिससे हिन्दू भावना।
"अल्ला मालिक" तुम थे जपते। शिवसम तुमको भक्त सुमरते॥68॥

हिन्दू-मुस्लिम ऊपरी भेद। सुभक्त देखते पूर्ण अभेद।
नहीं जानते ज्ञानी विद्वेष। ईश्वर एक पर अनगिन वेष॥69॥

पारब्रम्ह आप स्वाधीन। वर्ण जाति से मुक्त आसीन।
हिन्दू-मुस्लिम सब को प्यारे। चिदानन्द गुरूजन रखवारे॥70॥

करने हिन्दू-मुस्लिम एक। करने दूर सभी मतभेद।
मस्जिद अग्नि जोङ कर नाता। लीला करते जन-सुख-दाता॥71॥

प्रभु धर्म-जाति-बन्ध से हीन। निर्मल तत्व सत्य स्वाधीन।
अनुभवगम्य तुम तर्कातीत। गूंजे अनहद आत्म संगीत॥72॥

समक्ष आपके वाणी हारे। तर्क वितर्क व्यर्थ बेचारे।
परिमति शबद् है भावाभास। हूं मैं अकिंचन प्रभु का दास॥73॥

यदयपि आप हैं शबदाधार। शब्द बिना न प्रगटें गीत।
स्तुति करूं ले शबदाधार। स्वीकारों हें दिव्य अवतार॥74॥

कृपा आपकी पाकर स्वामी। गाता गुण-गण यह अनुगामी।
शबदों का ही माध्यम मेरा। भक्ति प्रेम से है उर प्रेरा॥75॥

सन्तों की महिमा है न्यारी। ईशर की विभूति अनियारी।
सन्त सरसते साम्य सभी से। नहीं रखते बैर किसी से॥76॥

हिरण्यकशिपु रावंअ बलवान। विनाश हुआ इनका जग जान।
देव-द्वेष था इसका कारण। सन्त द्वेष का करें निवारण॥77॥

गोपीचन्द अन्याय कराये। जालन्धर मन में नहीं लाये।
महासन्त के किया क्षमा था। परम शान्ति का वरण किया था॥78॥

बङकर नृप-उद्धार किया था। दीर्घ आयु वरदान दिया था।
सन्तों की महिमा जग-पावन। कौन कर सके गुण गणगायन॥79॥

सन्त भूमि के ज्ञान दिवाकर। कृपा ज्योति देते करुणाकर।
शीतल शशि सम सन्त सुखद हैं। कृपा कौमुदी प्रखर अवनि है॥80॥

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