गंगा के किनारे दो कुटिया थीं, जिनमें दो सन्यासी रहते थे। दोनों ही सगे भाई थे। 

उसी नदी में एक मणिवाला साँप भी रहता था जो इच्छानुसार कोई भी रुप धारण कर सकता था।

एक दिन वह साँप एक मानव के वेष में नदी किनारे टहल रहा था। तभी उसकी दृष्टि छोटे संन्यासी पर पड़ी जो अपनी कुटिया में बैठा था। साँप उसके पास पहुँचा और नमस्कार कर उससे बातचीत करने लगा। पहले ही दिन से दोनों एक दूसरे के अच्छे मित्र बन गये। फिर तो दोनों के मिलने का सिलसिला बढ़ता गया ; और वे दोनों हर एक दो दिनों में मिलने लगे। और आते-जाते एक दूसरे का आलिंगन भी करते। 

एक दिन सपं अपना मानवी रुप त्याग अपने असली रुप में प्रकट हुआ। उसने अपने कंठ से निकाल अपनी मणि भी उस सन्यासी को दिखाई। साँप के असली रुप को देख कर संन्यासी के होश उड़ गये। डर से उसने अपनी भूख-प्यास भी खो दी।

इससे उसकी अवस्था कुछ ही दिनों में एक चिर-कालीन रोगी की तरह हो गयी। बड़े सन्यासी ने जब उसकी रुणावस्था को देखा तो उससे उसका कारण जानना चाहा। छोटे भाई के भय को जान उसने उसे सलाह दी कि उसे उस सपं की मित्रता से छुटकारा पाना चाहिए। और किसी भी व्यक्ति को दूर रखने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है कि उसकी कोई प्रियतम वस्तु मांगी जाए। अत: वह भी साँप को दूर रखने के लिए उससे उसकी मणि को मांगे।

दूसरे दिन जब वह साँप छोटे संन्यासी की कुटिया में पहुँचा तो संन्यासी ने उससे उसकी मणि मांगी। इसे सुन वह साँप कुछ बहाना बना वहाँ से तुरन्त चला गया। इसके पश्चात् भी संन्यासी की दो बार साँप से मुलाकात हुई ; और उसने हर बार उससे उसकी मणि मांगी। साँप तब उसे दूर से ही नमस्कार कर चला गया ; और फिर कभी भी उसके सामने नहीं आया।

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