अभिसंबोधन
बीतत पहिलो पहर मार की सेना भागी।
गई शांति अति छाय, वायु मृदु डोलन लागी।
प्रभु ने 'सम्यक् दृष्टि' प्रथम यामहि में पाई,
सकल चराचर की जासों गति परी लखाई।
'पूर्वानुस्मृति ज्ञान' दूसरे पहर पाय पुनि
जातिस्मर ह्नै गए पूर्ण भगवान् शाक्यमुनि।
तुरत सहेन जन्मन की सुधि तिनको आई,
जब जब जन्मे जहाँ जहाँ जिन जोनिन जाई!
ज्यों फिरि पाछे कोउ निहारत दीठि पसारी
बहुत दूर चलि पहुँचि शिखर पै गिरि के भारी,
देखत पथ में परे मोहिं कैसे कैसे थल!
ऊँचे नीचे ढूह, खोह, नारे औ दलदल,
बीहड़ वन घन, देखि परत जौ सिमटे ऐसे
महि अंचल पै टँकी हरी चकती है जैसे,
गहरे गहरेर् गत्ता गह्यो जिन माहिं पसीनो,
जिनसों निकसन हेतु साँस भरि भरि श्रम कीनो,
ऊँचे अगम कगार छुटी झाईं जहँ चढ़तहि
खिसलत खिसलत पाँव गयो बहु बार जहाँ रहि,
हरी हरी दूबन सों छाए पटपर सुंदर,
निर्मल निर्झर, दरी और अति सुभग सरोवर,
औ धुँधाले नग अंचल समतल जिनपै जाई
लपक्यो पहुँचन हेतु नीले नभ कर फैलाई।
बहु जन्मन की दीर्घ शृंखला प्रभु लखि पाई।
क्रम क्रम ऊँची होति चली सीढ़ी सी आई,
अधाम वृत्ति की अधोभूमि सों चढ़ति निरंतर
उच्च भूमि पै पहुँची निर्मल, पावन सुंदर,
लसत जहाँ 'दश शील' जीव को लै जैबे हित
अति ऊँचे निर्वाणपंथ की ओर अविचलित।
देख्यो पुनि भगवान् जीव कैसे तन पाई
पूर्व जन्म से जो बोयो काटत सो आई।
चलत दूसरो जन्म एक को अंत होत जब
जुरत मूर में लाभ, जात कढ़ि खोयो जो सब।
लख्यो जन्म पै जन्म जात ज्यों ज्यों बिहात हैं
बढ़त पुण्य सों पुण्य, पाप सों पाप जात हैं।
बीच बीच में मरणकाल के अंतर माहीं,
लेखो सब को होत जात है तुरत सदाहीं।
या अचूक लेखे में बिंदुहु छूटत नाहीं,
संस्कार की छाप जाति लगि जीवन माहीं।
या विधि जब जब नयो जन्म प्राणी हैं पावत
पूर्व जन्म के कर्मबीच सँग लीने आवत।
भई 'अभिज्ञा' प्राप्त तीसरे पहर प्रभुहि पुनि,
पायो 'आश्रय ज्ञान' तबै भगवान् शाक्य मुनि।
लोक लोक में दृष्टि तासु जब पहुँची जाई
हस्तामलक समान विश्व सब परयो लखाई।
लखे भुवन पै भुवन, सूर्य्य पै सूर्य्य करोरन,
बँधी चाल सों घूमत लीने अपने ग्रहगन
ज्यों हीरक के द्वीप नीलमणि, अंबुधि माहीं,
ओर छोर नहिं जासु, थाह कहुँ जाकी नाहीं,
बढ़त घटत नहिं कबहुँ, क्षुब्धा जो रहत निरंतर,
जामें रूपतरंग उठत रहि रहि छन छन पर।
अमित प्रभाकर पिंड किए प्रभु यों अवलोकन,
अलक सूत्र सों बाँधि नचावत जो बहु लोकन,
करत परिक्रम आपहुँ अपने सों बढ़ि केरी,
सोउ अपने सों महज्ज्योति की डारत फेरी।
परंपरा यह जगी ज्योति की प्रभुहि लखानी
अमित, अखंड, न अंत सकत कहुँ जाको मानी।
लगत केंद्र सो जो सोऊ है डारत फेरे,
बढ़त चक्र पै चक्र गए या विधि बहुतेरे
दिव्य दृष्टि सों देख्यो प्रभु लोकन को यावत्
अपनो अपनो कालचक्र जो घूमि पुरावत।
महाकल्प वा कल्प आदि भर भोग पुराई,
ज्योतिहीन ह्नै, छीजि, अंत में जात बिलाई।
ऊँचे नीचे चारों दिशि प्रभु डारयो छानी,
नीलराशि सो लखि अनंत मति रही भुलानी।
सब रूपन सों परे, लोक लोकन सों न्यारे,
और जगत् की प्राणशक्ति सों दूर किनारे,
अलख भाव सों चलत नियत आदेश सनातन,
करत तिमिर को जो प्रकाश औ जड़ को चेतन,
करत शून्य को पूर्ण, घटित अघटित को जो है
औ सुंदर को औरहु सुंदर करि जग मोहै।
या अटल आदेश में कहुँ शब्द आखर नाहिं।
नाहिं आज्ञा करनहारो कोउ या विधि माहिं।
सकल देवन सों परे यह लसत नित्य विधन
अटल और अकथ्य, सब सों प्रबल और महान्।
शक्ति यह जग रचति नासति, रचति बारंबार,
करति विविध विधन सब निज धर्मविधि अनुसार।
सर्गमुख गति माहिं जाके त्रिगुण हैं बिलगात,
रजस् सों ह्नै सत्व की दिशि लक्ष्य जासु लखात।
भले वेई चलैं जे या शक्तिगति अनुकूल।
चलैं जे विपरीत वेई करत भारी भूल।
करत कीटहु भलो अपनो जातिधर्म पुराय,
बाज नीको करत गेदन हित लवा लै जाय।
मिलि परस्पर विपुल विश्वविधन में दै योग
ओसकण उडुगण दमकि निज करत पूरो भोग।
मरन हित जो मनुज जीयत, मरत पावन हेत
जन्म उत्तम, चलै सो यदि धर्म पथ पग देत,
रहै कल्मषहीन, सब संकल्प दृढ़ ह्वै जायँ,
बड़े छोटे जहाँ लौं भव भोग करत लखायँ
करै तिनको पथ सुगम नहिं कबहुँ बाधा देय।
लोक में परलोक में सब भाँति यों यश लेय।
लख्यो चौथे पहर प्रभु पुनि 'दु:खसत्य' महान्
पाप सों मिलि घोर कटु जो करत विश्वविधन,
चलति भाथी माहिं जैसे सीड़ लगि लगि जाय
जाति दहकति आगि जासों बार बार झ्रवाय।
'आर्य्य सत्यन' माहिं जो यह 'दु:खसत्य' प्रधन,
पाय तासु निदान देख्यो ध्यान में भगवान्
दु:ख छायारूप लाग्यो रहत जीवन संग
जहाँ जीवन तहाँ सोऊ रहत काहू ढंग।
छुटै सो नहिं कबहुँ जौ लौं, छुटै जीवन नाहिं
निज दशान समेत पलटति रहति जो पल माहिं-
छुटै जब लौं याहिं सत्ता और कर्मविकार,
जाति, वृद्धि, विनाश, सुख, दु:ख, राग, द्वेष अपार
सुखसमन्वित शोक सब और दु:खमय आनंद
छुटत नहिं, नहिं होत जब लौं ज्ञान 'ये हैं फंद।'
किंतु जानत जो 'अविद्या के सबै ये जाल'
त्यागि जीवनमोह पावत मोक्ष सो तत्काल।
व्यापक ताकी दृष्टि होति सो लखत आप तब
याहि 'अविद्या' सों जनमत हैं 'संस्कार' सब,
'संस्कार' सों उपजत हैं 'विज्ञान' घनेरे
'नामरूप' उत्पन्न होत जिनसों बहुतेरे।
'नामरूप' सों 'षडायतन' उपजत जाको लहि
जीव विवश ह्नै दर्पण सम बहु दृश्य रहत गहि।
'षडायतन' सों फेरि 'वेदना' उद्भव पावति
जो झूठे सुख औ दारुण दु:ख बहु दरसावति।
यहै वेदना वा 'तृष्णा' की जननि पुरानी
भवसागर में धाँसत जात जाके वश प्रानी,
चल तरंग बिच खारी ताके रहत टिकाई
सुख संपति, बहु साधा, मान और् कीत्ति, बड़ाई,
प्रीति, विजय, अधिकार, वसनसुंदर, बहु व्यंजन,
कुलगौरव अभिमान, भवन ऊँचे मनरंजन
दीर्घ आयु कामना तथा जीबे हिय संगर,
पातक संगरजनित, कोउ कटु, कोऊ रुचिकर।
या विधि तृष्णा बूझति सदा इन घूँटन पाई
जो वाको करि दूनी औरहु देत बढ़ाई।
पै ज्ञानी हैं दूर करत मन सों या तृष्णहिं,
झूठे दृश्यन सों इंद्रिन को तृप्त करत नहिं।
राखत मन दृढ़ विचलि न काहू ओर डुलावत
करत जतन जंजाल नाहिं, नहिं दु:ख पहुँचावत
पूर्वकर्म अनुसार परत जो कछु तन ऊपर
सो सब हैं सहि लेत अविचलित चित्त निरंतर।
काम, क्रोध, रागादि दमन सबको करि डारत,
दिन दिन करि कै छीन याहि बिधि तिनको मारत।
अंत माहिं यों पूर्वजन्म को सार भारमय,
जन्म जन्म को जीवात्मा को जो सब संचय-
मन में जो कुछ गुन्यो और जो कीनो तन सों,
अहंभाव को जटिल जाल जो बिन्यो जुगन सों
काल कर्म को तानो बानो तानि अगोचर-
सो सब कल्मषहीन शुद्ध ह्नै जात निरंतर।
फिर तो जीवहिं धारन परत नहिं देहहि या तो
अथवा ऐसो विमल ज्ञान ताको ह्वै जातो।
धारत देह जो फेरि कतहुँ नव जन्महिं पाई
हरुओ ह्नै भव भार ताहिं नहिं परत जनाई।
चलत जात आरोहपन्थ पै या प्रकार सों
मुक्त 'स्कंधन' सों छूटत मायाप्रताप सों
उपादान के बंधन औ भवचक्र हटाई
पूर्णप्रज्ञ ह्नै जगत् मनो दु:स्वप्न बिहाई,
अंत लहत पद भूपन सों, सब देवन सो बढ़ि।
जीवन की सब हाय मिटि जाति दूर कढ़ि।
गहत मुक्त शुभ जीवन, जो नहिं या जीवन सम,
लहत चरम आनंद, शांति, निर्वाण शून्यतम।
निर्विकार अविचल विराम को यहै ठौर है,
यहै परम गति, जाको नहिं परिणाम और है।
इत बुद्ध ने संबोधि पाई प्रगट उत ऊषा भई।
प्राची दिशा में ज्योति अभिनव दिवस की जो जगि गई,
सो जात सरकत यामिनीपट बीच कारे ढरि रही,
भगवान् की या विजय की मृदु घोषणा सी करि रही
नव अरुण- आभा रेख अब धाँधाले दिगंचल पै कढ़ी।
नभनीलिमा ज्यों ज्यों निखरि कै जाति ऊपर को बढ़ी
त्यों त्यों सहमि कै शुक्र अपनो तेज खोवत जात है,
पीरो परो, फीको भयो, अब लुप्त होत लखात है।
शुभ दरस दिनकर को प्रथम ही पाय नग छायासने
करि परंर्ग- किरीट- भूषित भाल सोहत सामने।
संचरत प्रात समीर को सुखपरस लहि सुमनहु जगे,
बहु रंगरंजित दलदृगंचल नवल निज खोलन लगे।
हिमजटित दूबन पै प्रभा मृदु दौरि जो छन में गई
गत रैन कै ऍंसुवान की बूँदैं बिखरि मोती भईं।
आलोक के आभास सों वा भूमि सारी मढ़ि रही।
उत गगनतट घन पै सुनहरी गोट चमचम चढ़ि रही।
हेमाभ वृंत हिलाय हरषत ताल करत प्रणाम हैं।
गिरिगह्नरन के बीच धाँसि जगमगति किरन ललाम हैं।
जलधार मानिक के तरंगित जाल सी दरसाय है।
जगि ज्योति सारे जीव जंतुन जाय रही जगाय है,
घुसि सघन झापस माहिं वन की रुचिर रम्य थलीन के
है कहति 'दिन अब ह्नै गयो' चकचौंधि चख हरिनीनके,
जो नीड़ में सिर नींद में गड़ि बीच पंखन के परे
चलि कहति तिनके पास गीत प्रभात के गाओ, अरे!
कलरव पखेरुन को सुनाई परत अब जाओ जहाँ,
मृदु कूक कोयल की, पपीहन की बँधी रट 'पी कहाँ',
तितरौं की 'उठ देख', 'चुह चुह' चपल फूलचुहीन की
टें टें सुअन की, धुन सुरीली सारीका सूहीन की,
किलकिलन की किलकार, 'काँ काँ' काककंठ कठोर की,
'टर टर' करेटुन की करारी, कतहुँ केका मोर की,
पुलकित परेवन की परम प्रिय प्रेमगाथा रसभरी
जो चुकनहारी नाहिं जौं लौं चुकतिनहिं जीवनघरी।
ऐसो पुनीत प्रभाव प्रभु के परम विजयप्रभात को
घर घर बिराजी शांति, झगरो नाहिं काहू घात को।
झट फेंकि दीनी दूर छूरी बधिक तजि बधाकाज को।
लै फेरि धन बटपार दीनो, बणिक छाँड़यो ब्याज को।
भे क्रूर कोमल, हृदय कोमल औरहू कोमल भए
पीयूष सो संचार दिव्य प्रभात को वा लहि नए।
रण थामि दीनो तुरत नरपति लरत जो रिस सों परे।
बहु दिनन के रोगी हँसतमुख उछरि खाटन सों परे।
नर मरन के जो निकट सहसा सोउ प्रमुदित ह्नै गए
लखि उदित होत प्रभात मानो देश सों काहू नए।
पिय सेज ढिग जो दीन हीन यशोधरा बैठी रही,
हिय बीच ताहू के हरख की धार सी सहसा बही,
मन माहिं ताके उठति आपहि आप ऐसी बात है
'जो प्रेम साँचो होय कबहूँ नाहिं निष्फल जात है।
या घोर दु:ख को अंत यों सुख भए बिनु रहि जायहै
ह्नै सकत ऐसो नाहिं, आगम परत कछुक जनाय है।'
छायो उछाह अपार यद्यपि न कोउ जानत का भयो।
सुनसान बंजर बीच हू संगीत को सुर भरि गयो।
आगम तथागत को निरखि निज मुक्ति आस बँधाय कै।
मिलि भूत, प्रेत, पिशाच गावत पवन में हरखाय कै।
'जगकाज पूरो ह्नै गयो' देववाणी यह भई,
अति चकित पुरजन बीच पंडित खड़े बीथिन में कई
लख्रि स्वर्णज्योति प्रवाह सो जौ गगन बोरत जात है,
यों कहत 'भाई! भइ अलौकिक अवसि कोऊ बात है।'
बन, ग्राम के सब जीव बैर बिहाय बिहरत लखि परे।
जहँ दूध बाघिन प्यावती तहँ चित्रमृग सोहत खरे।
बृक मेष मिलाप सों हैं चरत एकहि बाट पै।
गो सिंह पानी पियत हैं मिलि जाय एकहि घाट पै।
भितराय गरल भुजंग मणिधार फन रहे लहराय हैं,
बसि पास चोंचन सो गरुड़ निज पंख रहे खुजाय हैं।
कढ़ि सामने सों जात बाजन के लवा, कछु भय नहीं।
बैठे मगन बक ध्यान में, बहु मीन खेलत हैं वहीं।
बैठे भुजंगे डार पै कहूँ रहे पूँछ हिलाय हैं,
पै आज झपटत नेकु नहिं तितलीन पै दरसायँ हैं,
या फूल तें वा फूल पै जौ चपल गति सों धावतीं,
सित, पीत, नील, सुरंग, चित्रित पंख को फरकावतीं।
धारि दिव्य तेज दिनेश सों बढ़ि नाशहित भवभार के,
लहि अमित विजय विभूति जीवन हित सकल संसारके।
वा बोधितरु तर ध्यान में भगवान् हैं बैठे अबै
पै तासु आत्मप्रभाव परस्यो मनुज पशु पंछिन सबै।
अब बोधितरु तर सों उठे हरखाय कै
प्रभु दिव्य तेज, अनंत शक्तिहि पाय कै।
यह बोलि वाणी उठे अति ऊँचे स्वरै,
सब देश में सब काल में जो सुनि परै-
'अनेक जाति संसारं संधाविसमनिब्बसं।
गहकारकं गवेसंतो दु:खजाति पुन: पुन:।
गहकारक दिट्ठोसि पुन गेहं न काहसि।
सब्बा ते फासका भग्गा, गहकूटं विसंकितं।
विसंखारगतं चित्तां, तण्हानं खयमज्झगा।'
'गहत अनेक जन्म भव के दु:ख भोगत बहु चलि आयो।
खोजत रह्यो याहि गृहकारहिं, आज हेरि हौं पायो।
हे गृहकार! फेरि अब सकिहै तू नहिं भवन उठाई।
साज बंद सब तोरि धौरहर तेरो दियो ढहाई।
संस्कार सों रहित सर्वथा चित्त भयो अब मेरो!
तृष्णा को क्षय भयो, यह जन्म जन्म को फेरो।'