तपशर्चय्या

जहँ बोधि ज्योति प्रकाश भइ थल विलोकन चाहिए
तो चलि 'सहेाराम' सों वायव्य दिशि को जाइए।
करि पार गंग कछार पाँव पहार पैं धारिए वही
जासों निकसि नीरंजना की पातरी धारा बही।
 
अब होत ताके तीर चकरे पात के महुअन तरे,
हिंगोंट औ अंकोट की झड़ीन को मारग धारे,
पटपरन में कढ़ि जाइए जहँ फल्गु फोरि नगावली
चपती चटानन बीच पहुँचति है गया की शुभथली।
 
बलुए पहारन और टीलन सो जड़ो सुषमा भरो
उरुविल्व को ऊसर कटीलो दूर लौं फैलो परो।
लहरात ताके छोर पै बन परत एक लखाय है
अति लहलहे तृण सों रही तल भूमि जाकी छाय है।
 
जुरि कतहूँ सोतन को विमल जल लसत धीर गभीर है,
जहँ अरुण, नील सरोज ढिग वक सारसन की भीर है।
कछु दूर पै दरसात ताड़न बीच छप्पर फूस के,
जहँ कृषक 'सेनग्राम' के सुखनींद सोवत हैं थके।
 
जहँ विजन वन के बीच बसि प्रभु ध्यान धारि सोचत सदा
प्रारब्धा की गति अटपटी औ मनुज की सब आपदा,
परिणाम जीवन के जतन को, कर्म की बढ़ती लड़ी,
आगम निगम सिद्धांत सब औ पशुन की पीड़ा बड़ी,

वा शून्य को सब भेद जहँ सों कढ़त सब दरसात हैं,
पुनि भेद वा तम को जहाँ सब अंत में चलि जात हैं।
या भाँति दोउ अव्यक्त बिच यह व्यक्त जीवन ढरत है
ज्यों मेघ सों लै मेघ लौं नभ इंद्रधनु लखि परत है,
 
नीहार सों औ धाम सो जुरि जासु तन बनि जात है
जो विविध रंग दिखाय कै पुनि शून्य बीच बिलात है,
पुखराज, मरकत, नीलमणि, मानिक छटा छहराय कै,
जो छीन छन छन होत अंत समात है कहुँ जाय कै।
 
यों मास पै चलि मास जात लखात प्रभु वन में जमे,
चिंतन करत सब तत्व को निज ध्यान में ऐसे रमे,
सुधि रहति भोजन की न, उठि अपराह्न में देखैं तहीं
रीतो परो है पात्र वामें एक हू कन है नहीं।
 
बिनि खात बनफल जाहि बलिमुख देत डार हिलाय हैं
औ हरित शुक जो लाल ठोरन मारि देत गिराय हैं।
द्युति मंद मुख की परि गई, सब अंग चिंता सों दहे,
बत्तीस लक्षण मिटि गए जो बुद्ध के तन पै रहे।
 
झूरे झरत जो पात तहँ जहँ बुद्ध तप में चूर हैं,
ऋतुराज के ते लहलहेपन सों न एते दूर हैं
जेते भए प्रभु भिन्न हैं निज रूप सों वा पाछिले
निज राज के जब वे रहे युवराज यौवन सों खिले।
 
घोर तप सों छीन ह्नै प्रभु एक दिन मुरछाय
गिरे धारती पै मृतक से सकल चेत विहाय।
जानि परति न साँस औ ना रक्त को संचार।
परी पीरी देह निश्चल परो राजकुमार।
 
कढ़यो वा मग सों गड़रियो एक वाही काल,
लख्यो सो सिद्धार्थ को तहँ परो विकल विहाल,
मुँदे दोऊ नयन, पीरा अधार पै दरसाति,
धूप सिर पै परि रही मधयाह्न की अति ताति।
 
देखि यह सो हरी जामुनडार तहँ बहु लाय,
गाँछि तिनको छाय मुख पै छाँह कीनी आय।
दूर सों मुख में दियो दुहि उष्ण दूध सकात-
शूद्र कैसे करै साहस छुवन को शुचि गात?
 
तुरत जामुन डार पनपी नयो जीवन पाय,
उठीं कोमल दलन सों गुछि, फूल फल सों छाय,
मनो चिकने पाट को है तनो चित्र वितान,
रँग बिरंगी झालरन सों सजो एक समान।
 
करी बहु अजपाल पूजा देव गुनि कोउ ताहि।
स्वस्थ ह्नै उठि कह्यो प्रभु 'दे दूध लोटे माहिं।'
कह्यो सो कर जोरि 'कैसे देहुँ कृपानिधन?
शूद्र हौं मैं अधाम, देखत आप हैं, भगवान्!'
 
कह्यो जगदाराधय 'कैसी कहत हौ यह बात?
याचना औ दया नाते जीव सब हैं भ्रात।
वर्णभेद न रक्त में है बहत एकहि रंग,
अश्रु में नहिं जाति, खारो ढरत एकहि ढंग
 
नाहिं जनमत कोउ दीने तिलक अपने भाल,
रहत काँधो पै जनेऊ नाहिं जनमत काल।
करत जो सत्कर्म साँचो सोइ द्विज जग माहिं,
करत जो दुष्कर्म सो है वृषल, संशय नाहिं।
 
देहि भैया! दूध मो को त्यागि भेद विचार,
सफल ह्नै हौं, अवसि तेरो होयहै उपकार।'
सुनत प्रभु के बचन ऐसे तुरत सो अजपाल,
दियो लोटो टारि प्रभु पै, भयो परम निहाल।

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