शिक्षा
आठ वर्ष के भे कुमार जब नृप मन माहिं विचारो,
राजकुमारहिं चहिय पढ़ावन राजधर्म अब सारो।
चमत्कार गुनि सकल महीपति आगम कथन विचारै,
चाहत नहिं ह्नै बुद्ध पुत्र मम जग में ज्ञान पसारै।
भरी सभा के बीच एक दिन भूपति बैठयो जाई,
पूछयो सब मंत्रिन सों अपने सादर निकट बुलाई।
"कहौ, सचिववर! कौन नरन में अति विद्वान कहावै,
राजपुत्र के जोग सकल गुण जो मम सुतहिं सिखावै।"
कह्यो एक स्वर सों सब मिलि के "सुनो नृपति! यह बानी,
विश्वामित्रा समान न कोऊ बुद्धिमान औ ज्ञानी।
वेद विषय पारंगत सब विधि, शास्त्रज्ञान में रूरो,
धनुर्वेद में चतुर लसत सो, सकल कला में पूरो"।
विश्वामित्रा आय नृप आज्ञा सुनी, अमित सुख पायो।
शुभ दिन औ शुभ घरी माहि पुनि कुँवर पढ़न को आयो।
रत्ननजरी रँगी चंदन की पाटी काँख दबाई
लिए लेखनी गुरु समीप भे ठाढ़े दीठि नवाई।
तब बोले आचार्य्य 'वत्स! तुम लिखौ मंत्र यह सारो'।
यों कहि पावन गायत्री को मूल मंत्र उच्चारो
धीमे स्वर सों, सुनै न जासों कोउ निषिद्ध नर नारी
सुनिबे के केवल हैं जाके तीन वर्ण अधिकारी।
'लिखत अबै, आचार्य्य!' कुँवर बोल्यो विनीत स्वर
लिख्यो अनेकन लिपिन मंत्र पावन पाटी पर।
ब्राह्मी, दक्षिण, देव, उग्र, मांगल्य, अंग लिपि,
दरद, खास्य, मधयाक्षर विस्तर, मगधा, बंग लिपि,
औ खरोष्ट्री, यक्ष, नाग, किन्नर, सागर पुनि
लिखि दिखराए कुँवर सबन के अक्षर चुनि चुनि।
मग शक आदिक के अक्षर हू छूटे नाही,
सरूय्य अग्नि की जो उपासना करत सदाहीं।
बोलिन में बहु चल्यो मंत्र सावित्री पुनि भनि
कह्यो गुरु 'बस करौ, चलो अब तो गनती गनि।
कहत चलौ मम साथ नाम संख्यन को तौलौं
पहुँची जायँ हम, कुँवर! लाख पर्य्यंत न जौ लौं।
कहत एक, द्वै, तीन, चार तें दस लौं जाओ,
दस तें सौ लौं, पुनि सौ तें चलि सहस गनाओ।'
ता पाछे गनि गयो कुँवर एकाइ दहाइ,
शत सहे औ अयुत लक्ष लौं पहुँच्यो जाइ,
गनत गयो कहुं रुक्यो नाहि सो कुँवर सयानो
'ताके आगे प्रयुत कोटि औ अर्बुद मानो।
परं इखर्व और महाखर्व औ महापद्म पुनि'
असंख्येय लौं गनत गयौ, सुनि चकित भए मुनि।
बोले मुनि 'है बहुत ठीक हे कँवर हमारे
अब आयत परिमाण बताऊँ तुमको सारे'।
यह सुनि राजकुमार वचन बोल्यो विनीत अति
'श्रवण करौ, आचार्य्य! कहत हौं सकल यथामति।
दस परमाणुन को मिलाय परिसूक्ष्म कहत हैं
जोरे दस परिसूक्ष्म एक त्रासरेणु लहत हैं।
देत सप्त त्रासरेणु योग अणु एक बवाई
भवनरंध्रभृत रविकर में जो परत लखाई।
सात अगुण को योग एक केशाग्र कहावत,
जो दस मिलि कै लिख्या की हैं संज्ञा पावत।
दस लिख्या को एक यूक सब मानत आवैं,
दस यूकन को एक यवोदर सबै बतावैं।
दस जौ जोरे होत एक अंगुल यों मानत,
1. यह मान वैशेषिक आदि में माने हुए मान से भिन्न है।
बारह अंगुल को वितस्त सिगरो जग जानत।
ताके आगे हस्त, दंड, धनु लट्ठा आवैं।
लट्ठन को लै बीस श्वास दूरी ठहरावैं।
तेती दूरी श्वास होति जेती के बाहर
एक साँस में चलो जाय बिनु थमे कोउ नर।
चालिस श्वासन की दूरी को गो ठहरावत।
होत चार गो को योजन यह सबै बतावत।
यदि आयसु तव होय कहौं अब मैं, हे गुरुवर!
केते अणु ऍंटि सकत एक योजन के भीतर।
यों कहि तुरत कुमार दियो अणुयोग बताई,
सुनतहि विश्वामित्रा परे चरनन पै जाई।
बोले मुनि 'तू सकल गुरुन को गुरु जग माहीं।
तू मेरो गुरु, मैं तेरो गुरु निश्चय नाहीं।
बंदत हौ सर्वज्ञ कुँवर! तेरो पद पावन,
मम चटसारहिं आयो तू केवल दरसावन-
बिनु पोथिन ही सकल तत्व तू आपहि छानत,
तापै गुरुजन को आदर हू पूरो जानत।'
करत श्री भगवान गुरुजन को सदा सम्मान,
वचन कहत विनीत यद्यपि परम ज्ञाननिधन।
राजतेज लखात मुख पै, तदपि मृदु व्यवहार,
हृदय परम सुशील कोमल, यदपि शूर अपार।
कबहूँ जात अहेर को जब सखा लै संग माहिं
साहसी असवार तिन सम कोउ निकसत नाहिं।
राजभवन समीप कबहुँ होड़ जो लगि जाय
रथ चलावन माहिं कोऊ तिन्हैं सकत न पाय।
करत रहत अहेर सहसा ठिठकि जात कुमार,
जान देत कुरंग को भजि, लगत करन विचार।
कबहुँ जब घुरदौर में हय हाँकि छाँड़त साँस,
हार अपनी हेरि वा जब सखा होत उदास।
लगत कोऊ बात अथवा गुनन मन में आनि
जीति आधी कुँवर बाजी खोय देतो जानि।
बढ़त ज्यों ज्यों गयो प्रभु की वयस् लहि दिन राति
बढ़ति दिन दिन गई तिनकी दया याहि भाँति।
यथा कोमल पात द्वै तें, होत विटप विशाल,
करत छाया दूर लौं बहु जो गए कछु काल।
किंतु जानत नाहिं अब लौं रह्यो राजकुमार
क्लेश, पीड़ा, शोक काको कहत है संसार।
इन्हैं ऐसी वस्तु कोऊ गुनत सो मन माहिं
राजकुल में कबहुँ अनुभव होते जिनको नाहिं।
एक दिवस वसंत ऋतु में भई ऐसी बात,
रहे उपवन बीच सों ह्नै हंस उड़ि कै जात।
जात उत्तर ओर निज निज नीड़ दिशि ते धाय,
शुभ्र हिमगिरि अंक में जो लसत ऊपर जाय।
प्रेम के सुर भरत, बाँधों धावल सुंदर पाँति
उड़े जात विहंग कलरव करत नाना भाँति।
देवदत्ता कुमार चाप उठाय, शर संधानि
लक्ष्य अगिले हंस को करि मारि दीनो तानि।
जाय बैठयो पंख में सो हंस के सुकुमार,
रह्यो फैल्यो करन हित जो नील नभ को पार।
गिरयो खग भहराय, तन में बिधयो विशिख कराल,
रक्तरंजित ह्नै गयो सब श्वेत पंख विशाल।
देखि यह सिद्धार्थ लीनो धाय ताहि उठाय,
गोद में लै जाय बैठयो प इरआंसन लाय।
फेरि कर लघु जीव को भय दिया सकल छुड़ाय,
और धारकत हृदय को यों दियो धीर धाराय।
नवल कोमल कदलिदल सम करन सों सहराय,
प्रेम सों पुचकारि ताकत तासु मुख दुख पाय।
खैंचि लीनो निठुर शर करि यत्न बारंबार।
घाव पै धारि जड़ी बूटी कियो बहु उपचार।
देखिबे हित पीर कैसी होति लागे तीर
लियो कुँवर धाँसाय सो शर आप खोलि शरीर।
चौंकि सो चट परयो पीरा परी दारुण जानि,
छाय पयनन नीर खग पै लग्यो फेरन पानि।
पास ताके एक सेवक तुरत बोल्यो आय
अबै मेरे कुँवर ने है हंस दियो गिराय।
गिरयो पाटल बीच बिधि के ठौर पै सो याहि।
मिलै मोको, प्रभो! मेरो कुँवर माँगत ताहि।'
बात ताकी सुनत बोल्यो तुरत राजकुमार
जाय कै कहि देहु दैहौं नाहिं काहु प्रकार।
मरत जो खग अवसि पावत ताहि मारनहार
जियत है जब तासु तापै नाहिं कछु अधिकार।
दियो मेरे बंधु ने बस तासु गति को मारि
रही जो इन श्वेत पंखन की उठावनहारि।'
देवदत्ता कुमार बोल्यो 'जियै वा मरि जाय
होत पंछी तासु है जो देत वाहि गिराय।
नाहिं काहू को रह्यौ जौ लौं रह्यो नभ माहिं,
गिरि परयो तब भयो मेरो, देत हौ क्यों नाहिं?'
लियो तब खगकंठ को प्रभु निज कपोलन लाय
पुनि परम गंभीर स्वर सों कह्यो ताहि बुझाय
'उचित है यह नाहिं जो कछु कहत हौ तुम बात,
गयो ह्नै यह विहग मेरो नाहिं दैहौं, तात!
जीव बहु अपनायहौं या भाँति या संसार
दया को औ प्रेम को निज करि प्रभुत्व प्रसार।
दयाधर्म सिखायहौं मैं मनुजगन को टेरि
मूक खग पशु के हृदय की बात कहिहौं हेरि।
रोकिहौं भवताप की यह बढ़ती धार कराल
परे जामें मनुज तें लै सकल जीव बिहाल।
किंतु चाहैं कुँवर तो चलि विज्ञजन के तीर
कहैं अपनी बात चाहैं न्याय धारि जिय धीर।'
भयो अंत विचार नृप के सभामंडप माहिं
कोउ ऐसो कहत, कोऊ कहत ऐसो नाहिं।
कह्यो याही बीच उठि अज्ञात पंडित एक
प्राण है यदि वस्तु कोऊ करौ नैकु विवेक।
"जीव पै है जीवरक्षक को सकल अधिकार
स्वत्व वाको नाहिं चाह्यो बधन जो करि वार।
बधाक नासत औ मिटावत रखत रच्छनहार
हंस है सिद्धार्थ को यह, सोइ पावनहार"।
लग्यो सारी सभा को यह उचित न्याय विधन।
भई मुनि की खोज, पे सो भए अंतध्र्दान।
ब्याल रेंगत लख्यो सब तहँ और काहुहि नाहिं
देवगण या रूप आवत कबहुँ भूतल माहिं।
दया के शुभ कार्य्य को आरंभ याहि प्रकार
कियो श्री भगवान ने लखि दु:खी यह संसार।
छाँड़ि पीर विहंग की उड़ि मिल्यो जो निज गोत
और क्लेश न कुँवर जानत कहाँ कैसे होत।
कह्यो नृप एक वसंत के वासर वत्स! चलौ पुर बाहर आज।
जहाँ सुखमा सरसाति धानि, धारती अपनो धन खोलि अनाज।
बिछावति काटनहार समीप, चलौ अपनो यह देखन राज।
भरै नृप के नित कोषहिं जो चलि आवत पालत लोकसमाजड्ड
चढ़े रथ पै दोउ जात चले, वन, बाग, तड़ाग लसैं चहूँ ओर।
लसे नव पल्लव सों लहरैं लहि कै तरु मंद समीर झकोर।
कहूँ नव किंशुकजाल सों लाल लखात घने बनखंड के छोर।
परैं तहँ खेत सुनात तहाँ श्रमलीन किसानन को कल रोर।
लिपे खरिहानन में सुथरे पथपार पयार के ढूह लखात।
मढ़े नव मंजुल मौरन सों सहकार न अंगन माँहिं समात।
भरि छबि सो छलकाय रहे, मृदु सौरभ लै बगरावत बात।
चरैं बहु ढोर कछारन में जहँ गावत ग्वाल नचावत गात।
लदे कलियान और फूलन सों कचनार रहे कहूँ डार नवाय।
भरो जहँ नीर धारा रस भीजि कै दीनी है दूब की गोट चढ़ाय।
रह्यो कलगान विहंगन को अति मोद भरो चहुँ ओर सों आय।
कढ़ैं लघु जंतु अनेक, भगैं पुनि पास की झाड़िन को झहराय।
डोलत हैं बहु भृंग पतंग सरीसृप मंगल मोद मनाय।
भागत झाड़िन सों कढ़ि तीतर पास कहूँ कछु आहट पाय।
बागन के फल के फल पै कहुँ कीर हैं भागत चोंच चलाय।
धावत हैं धारिबे हित कीटन चाष धानी चित चाह चढ़ाय।
कूकि उठै कबहूँ कल कंठ सों कोकिल कानन में रस नाय।
गीधा गिरैं छिति पै कछु देखत, चील रहीं नभ में मँड़राय।
श्यामल रेख धारे तन पै इत सों उत दौरि कै जाति गिलाय।
निर्मल ताल के तीर कहूँ बक बैठे हैं मीन पै ध्यान लगाय।
चित्रित मंदिर पै चढ़ि मोर रह्यो निज चित्रित पंख दिखाय।
ब्याह के बाजन बाजन की धुनि दूर के गाँव में देति सुनाय।
वस्तुन सों सब शांति समृद्धि रही बहु रूपन में दरसाय।
देखि इतो सुख साज कुमार रह्यो हिय में अति ही हरखाय।
सूक्ष्म रूप सों पै वाने कीनो विचार जब
देखे जीवन कुसुम बीच कारे कंटक तब।
कैसो दीन किसान पसीनो अपनो गारत
केवल जीयन हेतु कठिन श्रम करत न हारत।
गोदि लकुट सों दीर्घविलोचन बैलन हाँकत
जरत घाम में रहत धूरि खेतन की फाँकत।
देख्यो फेरि कुमार खात दादुर पतंग गहि,
सर्प ताहि भखि जात, मोर सों बचत सर्प नहिं।
श्यामा पकरत कीट, बाज झपटत श्यामा पर,
चाहा पकरत मीन, ताहि धारि खाय जात नर।
यों इक बधिकहिं बधात एक, बधि जात आप पुनि,
मरण एक को दूजे को जीवन, देख्यो गुनि।
जीवन के वा सुखद दृश्य तर ताहि लखानो
एक दूसरे के बधा को षट्चक्र लुकानो।
परे कीट तें लै मनुष्य जामें भ्रम खाई
चेतन प्राणी मनुज बधात सो बंधुहिं जाई।
भूखे दुर्बल बैल को नाधि फिरावत,
जूए सों छिलि छात कंधा पै मनहिं न लावत।
जीबे की धुन माहिं जगत् के जीव मरत लरि
लखि यह सब सिद्धार्थ कुँवर बोल्यो उसास भरि-
'लोक कहा यह कोइ लगत जो परम सुहावन,
अवलोकन हित जाहि परयो मोको ह्याँ आवन?
कड़े पसीने की किसान की रूखी रोटी,
कैसो कड़वो काम करति बैलन की जोटी!
सबल निबल को समर चलत जल थल में ऐसो!
ह्नै तटस्थ टुक धारौं ध्यान, देखौं जग कैसो।'
यों कहि श्रीभगवान् एक जम्बू तर जाई
बैठे मूर्ति समान अचल पराइंसन लाई।
लागे चिंतन करन महा भवव्याधि भयंकर!
कहा मूल है याको और उपचार कहाँ पर?
उमगी दया अपार, प्रीति पसरी जीवन प्रति
क्लेश निवारण को जिय में अभिलाष जग्यो अति।
ध्यानमग्न ह्नै गयो कुँवर यों मनन करत जब
रही न तन सुधि आत्मभाव बहि गए दूर सब।
लह्यो चतुर्विधा ध्यान तहाँ भगवान बुद्ध तब
धर्म मार्ग को कहत प्रथम सोपान जाहि सब।
पंचदेव तिहि काल रहे कहुँ जात सिधाए
तिनके रुके विमान जबै तरु ऊपर आए।
परम चकित ह्नै लागे बूझन ताकि परस्पर
कौन अलौकिक शक्ति हमैं खैंचति या तरु तर?'
गई दीठि जो तरे परे भगवान् लखाई
ललित ज्योति सिर लसत, विचारत लोक भलाई।
चीन्हि तिन्हैं ते देव लगे शुभ गाथा गावन-
"तापशमन हित मानसरोवर चाहत आवन,
नाशन हित अज्ञान तिमिर दीपक जगिहै अब
मंगल को आभास लखौ ह्नै मुदित लोक सब।"
खोजत खोजत एक दूत नृप को तहँ आयो
पहुँच्यो वाही ठौर कुँवर जहँ ध्यान लगायो।
पहर तीसरो चढ़यो ध्यान नहिं भंग भयो पर
अस्ताचल की ओर बढ़े भगवान् भास्कर।
छाया घूमीं सकल किंतु जामुन की छाहीं
रही एक दिशि अड़ी, टरी प्रभु पर तें नाहीं।
जामें प्रभु के पावन सिर पै परै न आई
रवि की तिरछी किरन, ताप प्रभु ओर चढ़ाई।
लख्यो दूत यह चरित हिये अति अचरज मानी।
जामुन की मंजरिन बीच फूटी यह बानी-
'रहिहै इनके हृदय ध्यान की छाया जौ लौं
नाहिं सरकिहै कतहुँ हमारी छाया तौ लौं।