छठा अध्याय
भूमिकी सतह
( १ ) नारदपुराण ( पूर्व० ५६।५४२ ) - में आया है कि पूर्व, उत्तर और ईशान दिशामें नीची भूमि सब मनुष्येंकि लिये अत्यन्त वृद्धिकारक होती है । अन्य दिशाओंमें नीची भूमि सबके लिये हानिकारक होती है ।
सुग्रीवके राज्याभिषेकके बाद भगवान् श्रीरामने प्रस्त्रवणगिरिके शिखरपर अपने रहनेके लिये एक गुफा चुनी । उस गुफाके विषयमें वे लक्ष्मणसे कहते हैं -
प्रागुदक्प्रवणे देशे गुहा साधु भविष्यति ।
पश्चाच्चैवोन्नता सौम्य निवातेयं भविषति ॥
( वाल्मीकि०, किष्किंधा० २६।१२ )
' सौम्य ! यहाँका स्थान ईशान्यकोणकी ओरसे नीचा है; अतः यह गुफा हमारे निवासके लिये बहुत अच्छी रहेगी । नैऋत्य ओरसे ऊँची यह गुफा हवा और वर्षासे बचानेके लिये अच्छी होगी ।'
( २ ) पूर्वमें ऊँची भूमि पुत्र और धनका नाश करनेवाली है ।
आग्नेय
में ऊँची भुमि धन देनेवाली है ।दक्षिण
में ऊँची भूमि सब कामनाओंको पूर्ण करनेवाली तथा नीरोग करनेवाली है ।नैऋत्यमे
ऊँची भूमि धनदायक है ।पश्चिम
में ऊँची भुमि पुत्रप्रद तथा धन-धान्यकी वृद्धि करनेवाली है ।वायव्य
में ऊँची भूमि धनदायक है ।उत्तर
में ऊँची भूमि पुत्र और धनका नाश करनेवाली है ।ईशान
में ऊँची भूमि महाक्लेशकारक है ।( ३ ) पूर्वमें नीची भूमि पुत्रदायक तथा धनकी वृद्धि करनेवाली है ।
आग्नेय
में नीची भूमि धनका नाश करनेवाली, मृत्यु तथा शोक देनेवाली और अग्निभय करनेवाली है ।दक्षिण
में नीची भूमि मृत्युदायक, रोगदायक, पुत्र - पौत्रविनाशक, क्षयकारक और अनेक दोष करनेवाली है ।नैऋत्यमे
नीची भूमि धनकी हानि करनेवालीम महान् भयदायक, रोगदायक और चोरभय करनेवाली है ।पश्चिम
में नीची भूमि धननाशक, धान्यनाशक, कीर्तिनाशक, शोकदायक, पुत्रक्षयकारक तथा कलहकारक है ।वायव्य
में नीची भूमि परदेशवास करानेवाली, उद्वेगकारक, मृत्युदायक, कलहकारक, रोगदायक तथा धान्यनाशक है ।उत्तर
में नीची भूमि धन - धान्यप्रद और वंशवृद्धि करनेवाली अर्थात् पुत्रदायक है ।ईशान्य
में नीची भूमि विद्या देनेवाली, धनदायक, रत्नसंचय करनेवाली और सुखदायक है ।मध्य
में नीची भूमि रोगप्रद तथा सर्वनाश करनेवाली है ।( ४ ) पूर्व व आग्नेयके मध्य ऊँची और पश्चिम व वायव्यके मध्य नीची भूमि ' पितामह वास्तु ' कहलाती है । यह सुख देनेवाली है ।
दक्षिण व आग्नेयके मध्य ऊँची और उत्तर व वायव्यके मध्य नीची भूमि ' सुपथ वास्तु ' कहलाती है । यह सब कार्योंमें शुभ है ।
उत्तर व ईशानके मध्य नीची और नैऋत्यऋत्य व दक्षिणके मध्य ऊँची भूमि ' दीर्घायु वास्तु ' कहलाती है । यह कुलकी वृद्धि करनेवाली है ।
पूर्व व ईशानमें नीची और पश्चिम व नैऋत्यऋत्य ऊँची भूमि ' पुण्यक वास्तु ' कहलाती है । यह द्विजोंके लिये शुभ है ।
पूर्व व आग्नेयके मध्य नीची और वायव्य व पश्चिमके मध्य ऊँची भूमि ' अपथ वास्तु ' कहलाती है । यह वैर तथा कलह करानेवाली है ।
दक्षिण व आग्नेयके मध्य नीची और उत्तर व वायव्यके मध्य ऊँची भूमि ' रोगकर वास्तु ' कहलाती है । यह रोग पैदा करनेवाली है ।
दक्षिण व नैऋत्य मध्य नीची और उत्तर व ईशानके मध्य ऊँची भूमि " अर्गल वास्तु ' कहलाती है । यह पापोंका नाश करनेवाली है ।
पूर्व व ईशानके मध्य ऊँची और पश्चिम व नैऋत्य मध्य नीची भूमि ' श्मशान वास्तु ' कहलाती है । यह कुलका नाश करनेवाली है ।
आग्नेयमें नीची और नैऋत्य ईशान तथा वायव्यमें ऊँची भूमि ' शोक वास्तु ' कहलाती है । यह मृत्युकारक है ।
ईशान, आग्नेय व पश्चिममें ऊँची और नैऋत्य नीची भूमि ' श्वमुख वास्तु ' कहलाती है । यह दरिद्र करनेवाली है ।
नैऋत्य आग्नेय व ईशानमें ऊँची तथा पूर्व व वायव्यमें नीची भूमि ' ब्रह्मघ्न वास्तु ' कहलाती है । यह निवास करनेयोग्य नहीं है ।
आग्नेयमें ऊँची और नैऋत्य ईशान तथा वायव्यमें नीची भूमि ' स्थावर वास्तु ' कहलाती है । यह शुभ है ।
नैऋत्य ऊँची और आग्नेय, वायव्य व ईशानमें नीची भूमि ' स्थण्डिल वास्तु ' कहलाती है । यह शुभ है ।
ईशानमें ऊँची और वायव्य, आग्नेय व नैऋत्य नीची भूमि ' शाण्डुल वास्तु ' कहलाती है । यह अशुभ है ।
( ५ ) दक्षिण, पश्चिम, नैऋत्य और वायव्यकी ओर ऊँची भूमि ' गजपृष्ठ भूमि ' कहलाती है । यह धन, आयु और वंशकी वृद्धि करनेवाली है ।
मध्यमें ऊँची तथा चारों ओर नीची भूमि ' कूर्मपृष्ठ भूमि ' कहलाती है । यह उत्साह, धन - धान्य तथा सुख देनेवाली है ।
पूर्व, आग्नेय तथा ईशानमें ऊँची और पश्चिममें नीची भूमि ' दैत्यपृष्ठ भूमि ' कहलाती है, यह धन, पुत्र, पशु आदिकी हानि करनेवाली तथा प्रेत - उपद्रव करनेवाली है ।
पूर्व - पश्चिमकी ओर लम्बी तथा उत्तर - दक्षिणमें ऊँची भूमि ' नागपृष्ठ भूमि ' कहलाती है । यह उच्चाटन, मृत्युभय, स्त्री - पुत्रादिकी हानि, शत्रुव्रुद्धि, मानहानि तथा धनहानि करनेवाली है ।