राजा गोपालसिंह के चले जाने के बाद दोनों कुमारों ने बातचीत करते-करते ही रात बिता दी और सुबह को दोनों भाई जरूरी कामों से छुट्टी पाकर फिर उसी बाजे वाले कमरे की तरफ रवाना हुए। जिस राह से इस बाग में आये थे वह दरवाजा अभी तक खुला हुआ था, उसी राह से होते हुए दोनों तिलिस्मी बाजे के पास पहुंचे। इस समय आनन्दसिंह अपने तिलिस्मी खंजर से रोशनी कर रहे थे।

दोनों भाइयों की राय हुई कि इस बाजे में जो कुछ बातें भरी हुई हैं उन्हें एक दफे अच्छी तरह सुनकर याद कर लेना चाहिए, फिर जैसा होगा देखा जायगा। आखिर ऐसा ही किया। बाजे की ताली उनके हाथ लग ही चुकी थी और ताली लगाने की तर्कीब उस तख्ती पर लिखी हुई थी जो ताली के साथ मिली थी। अस्तु इन्द्रजीतसिंह ने बाजे में ताली लगाई और दोनों भाई उसकी आवाज गौर से सुनने लगे। जब बाजे का बोलना बन्द हुआ तो इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा, “मैं बाजे में ताली लगाता हूं और तिलिस्मी खंजर से रोशनी भी करता हूं और तुम इस बाजे में से जो कुछ आवाज निकले संक्षेप रीति से लिखते चले जाओ।” आनन्दसिंह ने इसे कबूल किया और उसी किताब में जिसमें पहिले इन्द्रजीतसिंह इस बाजे की कुछ आवाज लिख चुके थे लिखने लगे। पहिले वह आवाज लिख गये जो अभी बाजे में से निकली थी इसके बाद इन्द्रजीतसिंह ने इस बाजे का एक खटका दबाया और फिर ताली देकर आवाज सुनने तथा आनन्दसिंह लिखने लगे।

इस बाजे में जितनी आवाजें भरी हुई थीं उनका सुनना और लिखना दो-चार घण्टे का काम न था बल्कि कई दिनों का काम था क्योंकि बाजा बहुत धीरे-धीरे चलकर आवाज देता था और जो बात कुमार के समझ में न आती थी उसे दोहराकर सुनना पड़ता था। अस्तु आज चार घण्टे तक दोनों कुमार उस बाजे की आवाज सुनने और लिखने में लगे रहे, इसके बाद फिर उसी बाग में चले आये जिसका जिक्र ऊपर आ चुका है। बाकी का दिन और रात उसी बाग में बिताया और दूसरे दिन सवेरे जरूरी कामों से छुट्टी पाकर फिर तहखाने में घुसे तथा बाजे वाले कमरे में आकर फिर बाजे की आवाज सुनने और लिखने के काम में लगे। इसी तरह दोनों कुमारों को बाजे की आवाज सुनने और लिखने के काम में कई दिन लग गए और इस बीच में दोनों कुमारों ने तीन दफे उस औरत को देखा जिसका हाल पहिले लिखा जा चुका है और जिसकी लिखी एक चीठी राजा गोपालसिंह के हाथ लगी थी। उस औरत के विषय में जो बातें लिखने योग्य हुईं उन्हें हम यहां पर लिखते हैं।

राजा गोपालसिंह के जाने के बाद पहिली दफे जब वह औरत दिखाई दी उस समय दोनों भाई नहर के किनारे बैठे बातचीत कर रहे थे। समय संध्या का था और बाग की हर एक चीज साफ-साफ दिखाई दे रही थी। यकायक वह औरत उसी चमेली की झाड़ी में से निकलती दिखाई दी। वह दोनों कुमारों की तरफ तो नहीं आई मगर उन्हें दिखाकर एक कपड़े का टुकड़ा जमीन पर रखने के बाद पुनः चमेली की झाड़ी में घुसकर गायब हो गई।

इन्द्रजीतसिंह की आज्ञा पाकर आनन्दसिंह वहां गये और उस टुकड़े को उठा लाए, उस पर किसी तरह के रंग से यह लिखा हुआ था -

“सत्पुरुषों के आगमन से दीन-दुखिया प्रसन्न होते हैं और सोचते हैं कि अब हमारा भी कुछ न कुछ भला होगा! मुझ दुखिया को भी इस तिलिस्म में सत्पुरुषों की बाट जोहते और ईश्वर से प्रार्थना करते बहुत दिन बीत गये, परन्तु अब आप लोगों के आने से भलाई की आशा जान पड़ने लगी है। यद्यपि मेरा दिल गवाही देता है कि आप लोगों के हाथ से सिवाय भलाई के मेरी बुराई नहीं हो सकती तथापि इस कारण से कि बिना समझे दोस्त-दुश्मन का निश्चय कर लेना नीति के विरुद्ध है, मैं आपकी सेवा में उपस्थित न हुई। अब आशा है कि आप अनुग्रहपूर्वक अपना परिचय देकर मेरा भ्रम दूर करेंगे।

इन्दिरा।”

इस पत्र के पढ़ने से दोनों कुमारों को बड़ा ताज्जुब हुआ और इन्द्रजीतसिंह की आज्ञानुसार आनन्दसिंह ने उसके पत्र का यह उत्तर लिखा -

“हम लोगों की तरफ से किसी तरह का खुटका न रक्खो। हम लोग राजा वीरेन्द्रसिंह के लड़के हैं और इस तिलिस्म को तोड़ने के लिए यहां आये हैं। तुम बेखटके अपना हाल हमसे कहो, हम लोग निःसन्देह तुम्हारा दुःख दूर करेंगे।”

यह चीठी चमेली की झाड़ी में उसी जगह हिफाजत के साथ रख दी गई जहां से उस औरत की चीठी मिली थी। दो दिन तक वह औरत दिखाई न दी मगर तीसरे दिन जब दोनों कुमार बाजे वाले तहखाने में से लौटे और उस चमेली की टट्टी के पास गए तो ढूंढ़ने पर आनन्दसिंह को अपनी लिखी हुई चीठी का जवाब मिला। यह जवाब भी एक छोटे से कपड़े के टुकड़े पर लिखा हुआ था जिसे आनन्दसिंह ने पढ़ा, मतलब यह था -

“यह जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि आप राजा वीरेन्द्रसिंह के लड़के हैं जिन्हें मैं बहुत अच्छी तरह से जानती हूं, इसलिए आपकी सेवा में बेखटके उपस्थित हो सकती हूं, मगर राजा गोपालसिंह से डरती हूं जो आपके पास आया करते हैं।

इन्दिरा।”

पुनः कुंअर इन्द्रजीतसिंह की तरफ से यह जवाब लिखा गया -

“हम प्रतिज्ञा करते हैं कि राजा गोपालसिंह भी तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट न देंगे।”

यह चीठी भी उसी तरह ठिकाने पर रख दी गई और फिर दो रोज तक इन्दिरा का कुछ हाल मालूम न हुआ। तीसरे दिन संध्या होने के पहिले जब कुछ-कुछ दिन बाकी था और दोनों कुमार उसी बाग में नहर के किनारे बैठे बातचीत कर रहे थे यकायक उसी चमेली की झाड़ी में से हाथ में लालटेन लिए निकलती हुई इन्दिरा दिखाई पड़ी। वह सीधे उस तरफ रवाना हुई जहां दोनों कुमार नहर के किनारे बैठे हुए थे। जब उनके पास पहुंची लालटेन जमीन पर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गई। इसकी सूरत-शक्ल के बारे में हमें जो लिखना था ऊपर लिख चुके हैं। यहां पुनः लिखने की आवश्यकता नहीं है, हां इतना जरूर कहेंगे कि इस समय इसकी पोशाक में फर्क था। इन्द्रजीतसिंह ने बड़े गौर से देखा और कहा, “बैठ जाओ और निडर होकर अपना हाल कहो।”

इन्दिरा - (बैठकर) इसीलिए तो मैं सेवा में उपस्थित हुई हूं कि अपना आश्चर्यजनक हाल आपसे कहूं। आप प्रतापी राजा वीरेन्द्रसिंह के लड़के हैं और इस योग्य हैं कि हमारा मुकद्दमा सुनें, इन्साफ करें, दुष्टों को दण्ड दें और हम लोगों को दुःख के समुन्द्र से निकालकर बाहर करें।

इन्द्र - (आश्चर्य से) हम लोगों! क्या तुम अकेली नहीं हो! क्या तुम्हारे साथ कोई और भी इस तिलिस्म में दुःख भोग रहा है?

इन्दिरा - जी हां, मेरी मां भी इस तिलिस्म के अन्दर बुरी अवस्था में पड़ी है। मैं तो चलने-फिरने योग्य भी हूं परन्तु वह बेचारी तो हर तरह से लाचार है। आप मेरा किस्सा सुनेंगे तो आश्चर्य करेंगे और निःसन्देह आपको हम लोगों पर दया आयेगी।

इन्द्र - हां-हां, हम सुनने के लिए तैयार हैं, कहो और शीघ्र कहो।

इन्दिरा अपना किस्सा शुरू किया ही चाहती थी कि उसकी निगाह यकायक राजा गोपालसिंह पर जा पड़ी जो उसके सामने और दोनों कुमारों के पीछे की तरफ से हाथ में लालटेन लिये हुए आ रहे थे। वह चौंककर उठ खड़ी हुई और उसी समय कुंअर इन्द्रजीतसिंह तथा आनन्दसिंह ने भी घूमकर राजा गोपालसिंह को देखा। जब राजा साहब दोनों कुमारों के पास पहुंचे तो इन्दिरा ने प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह भी बड़े भाई का लिहाज करके खड़े हो गये। इस समय राजा गोपालसिंह का चेहरा खुशी से दमक रहा था और वे हर तरह से प्रसन्न मालूम होते थे।

इन्द्र - (गोपालसिंह से) आपने तो कई दिन लगा दिए।

गोपाल - हां एक ऐसा ही मामला आ पड़ा था कि जिसका पूरा पता लगाये बिना यहां आ न सका। पर आज मैं अपने पेट में ऐसी - ऐसी खबरें भरके लाया हूं कि जिन्हें सुनकर आप लोग बहुत ही प्रसन्न होंगे और साथ ही इसके आश्चर्य भी करेंगे। मैं सब हाल आपसे कहूंगा मगर (इन्दिरा की तरफ इशारा करके) इस लड़की का हाल सुन लेने के बाद। (अच्छी तरह देखकर) निःसन्देह इसकी सूरत उस पुतली की ही तरह है।

आनन्द - कहिए भाईजी, अब तो मैं सच्चा ठहरा न!

गोपाल - बेशक, तो क्या इसने अपना हाल आप लोगों से कहा

इन्द्र - जी यह अपना हाल कहा ही चाहती थी कि आप लोग दिखाई पड़ गये। यह यकायक हम लोगों के पास नहीं आई बल्कि पत्र द्वारा इसने पहिले मुझसे प्रतिज्ञा करा ली कि हम लोग इसका दुःख दूर करेंगे और आप (राजा गोपालसिंह) भी इस पर खफा न होंगे।

गोपाल - (ताज्जुब से) मैं इस पर क्यों खफा होने लगा! (इन्दिरा से) क्यों जी, तुम्हें मुझसे डर क्यों पैदा हुआ?

इन्दिरा - इसलिए कि मेरा किस्सा आपके किस्से से बहुत सम्बन्ध रखता है, और हां इतना भी मैं इसी समय कह देना उचित समझती हूं कि मेरा चेहरा जिसे आप लोग देख रहे हैं असली नहीं बल्कि बनावटी है, यदि आज्ञा हो तो इसी नहर के जल से मैं मुंह धो लूं, तब आश्चर्य नहीं कि आप मुझे पहिचान लें।

गोपाल - (ताज्जुब से) क्या मैं तुम्हें पहिचान लूंगा?

इन्दिरा - यदि ऐसा हो तो आश्चर्य नहीं।

गोपाल - अच्छा अपना मुंह धो डालो।

इतना कहकर राजा गोपालसिंह लालटेन जमीन पर रखकर बैठ गए और कुंअर इन्द्रजीतसिंह तथा आनन्दसिंह को भी बैठने के लिए कहा। जब इन्दिरा अपना चेहरा साफ करने के लिए नहर के किनारे चलकर कुछ आगे बढ़ गई तब इन तीनों में यों बातचीत होने लगी -

इन्द्र - हां यह तो कहिए आप क्या खबर लाए हैं?

गोपाल - वह किस्सा बहुत बड़ा है, पहिले इस लड़की का हाल सुन लें तब कहें, हां इसने अपना नाम क्या बताया था?

इन्द्र - इन्दिरा।

गोपाल - (चौंककर) इन्दिरा!

इन्द्र - जी हां।

गोपाल - (सोचते हुए, धीरे से) कौन-सी इन्दिरा वह इन्दिरा तो नहीं मालूम पड़ती, कोई दूसरी होगी, मगर शायद वही हो, हां वह तो कह चुकी है कि मेरी सूरत बनावटी है, आश्चर्य नहीं कि चेहरा साफ करने पर वही निकले, अगर वही हो तो बहुत अच्छा है।

इन्द्र - खैर वह आती ही है, सब हाल मालूम हो जायेगा तब तक अपनी अनूठी खबरों में से दो - एक सुनाइये।

गोपाल - यहां से जाने के बाद मुझे रोहतासगढ़ का पूरा-पूरा हाल मालूम हुआ है क्योंकि आजकल राजा वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, भैरोसिंह, तारासिंह, किशोरी, कामिनी, कमलिनी, लाडिली और मेरी स्त्री लक्ष्मीदेवी इत्यादि सब कोई वहां ही जुटे हुए हैं और एक अजीबोगरीब मुकद्दमा पेश है।

इन्द्र - (चौंककर) लक्ष्मीदेवी! क्या इनका पता लग गया?

गोपाल - हां, लक्ष्मीदेवी वही तारा निकली जो कमलिनी के यहां उसकी सखी बनके रहती थी और जिसे आप जानते हैं।

इन्द्र - (आश्चर्य से) वही लक्ष्मीदेवी थीं!

गोपाल - हां वह लक्ष्मीदेवी ही थी जो बहुत दिनों से अपने को छिपाये हुए दुश्मनों से बदला लेने का मौका ढूंढ़ रही थी और समय पाकर अनूठे ढंग से यकायक प्रकट हो गई। उसका किस्सा भी बड़ा ही अनूठा है।

आनन्द - तो क्या आप रोहतासगढ़ गये थे?

गोपाल - नहीं।

इन्द्र - सो क्यों, इतना सब हाल सुनने पर भी आप लक्ष्मीदेवी को देखने के लिए वहां क्यों नहीं गये?

गोपाल - वहां न जाने का सबब भी बतावेंगे।

इन्द्र - खैर यह बताइये कि लक्ष्मीदेवी यकायक किस अनूठे ढंग से प्रकट हो गईं और रोहतासगढ़ में कौन-सा अजीबोगरीब मुकद्दमा पेश है?

गोपाल - मैं सब हाल आपसे कहूंगा, देखिए वह इन्दिरा आ रही है, पर कोई चिन्ता नहीं अगर यह वही इन्दिरा है जो मैं सोचे हुआ हूं तो उसके सामने भी सब हाल बेखटके कह दूंगा।

इतने ही में अपना चेहरा साफ करके इन्दिरा भी वहां आ पहुंची, चेहरा धोने और साफ करने से उसकी खूबसूरती में किसी तरह की कमी नहीं आई थी बल्कि वह पहिले से ज्यादे खूबसूरत मालूम पड़ती थी, हां अगर कुछ फरक पड़ा था तो केवल इतना ही कि बनिस्बत पहिले के अब वह कम उम्र की मालूम होती थी।

इन्दिरा के पास आते ही और उसकी सूरत देखते ही गोपालसिंह झट से उठ खड़े हुए और उसका हाथ पकड़कर बोले, “हैं, इन्दिरा! बेशक तू वही इन्दिरा है जिसके होने की मैं आशा करता था। यद्यपि कई वर्षों के बाद आज किस्मत ने तेरी सूरत दिखाई है और जब मैंने आखिरी मर्तबे तेरी सूरत देखी थी तब तू निरी लड़की थी मगर फिर भी आज मैं तुझे पहिचाने बिना नहीं रह सकता। तू मुझसे डर मत और अपने दिल में किसी तरह का खुटका भी मत ला। मुझे खूब मालूम हो गया है कि मेरे मामले में तू बिल्कुल बेकसूर है। मैं तुझे धर्म की लड़की समझता हूं और समझूंगा, मेरे सामने बैठ जा और अपना अनूठा किस्सा कह। हां पहिले यह तो बता कि तेरी मां कहां है कैद से छूटने पर मैंने उसकी बहुत खोज की मगर कुछ भी पता न लगा। निःसन्देह तेरा किस्सा बड़ा ही अनूठा होगा।

इन्दिरा - (बैठने के बाद आंसू से भरी हुई आंखों को आंचल से पोंछती हुई) मेरी मां बेचारी भी इसी तिलिस्म में कैद है!

गोपाल - (ताज्जुब से) इसी तिलिस्म में कैद है।

इन्दिरा - जी हां, इसी तिलिस्म में कैद है, बड़ी कठिनाइयों से उसका पता लगाती हुई मैं यहां तक पहुंची। अगर मैं यहां तक पहुंचकर उससे न मिलती तो निःसन्देह वह अब तक मर गई होती। मगर न तो मैं उसे कैद से छुड़ा सकती हूं और न स्वयं इस तिलिस्म के बाहर ही निकल सकती हूं। दस-पन्द्रह दिन के लगभग हुए होंगे कि अकस्मात् एक किताब मेरे हाथ लग गई जिसके पढ़ने से इस तिलिस्म का कुछ हाल मुझे मालूम हो गया है और मैं यहां घूमने-फिरने लायक भी हो गई हूं, मगर इस तिलिस्म के बाहर नहीं निकल सकती। क्या कहूं उस किताब का मतलब पूरा-पूरा समझ में नहीं आता, यदि मैं उसे अच्छी तरह समझ सकती तो निःसन्देह यहां से बाहर जा सकती और आश्चर्य नहीं कि अपनी मां को भी छुड़ा लेती।

गोपाल - वह किताब कौन-सी है और कहां है

इन्दिरा - (कपड़े के अन्दर से एक छोटी-सी किताब निकालकर और गोपालसिंह के हाथ में देकर) लीजिए यही है।

यह किताब लम्बाई-चौड़ाई में बहुत छोटी थी और उसके अक्षर भी बड़े ही महीन थे मगर इसे देखते ही गोपालसिंह का चेहरा खुशी से दमक उठा और उन्होंने इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की तरफ देखकर कहा, “यही मेरी वह किताब है जो खो गई थी। (किताब चूमकर) आह, इसके खो जाने से तो मैं अधमुआ-सा हो गया था! (इन्दिरा से) यह तेरे हाथ कैसे लग गई!”

इन्दिरा - इसका हाल भी बड़ा विचित्र है, अपना किस्सा जब मैं कहूंगी तो उसी के बीच में वह भी आ जायगा।

इन्द्र - (गोपालसिंह से) मालूम होता है कि इन्दिरा का किस्सा बहुत बड़ा है, इसलिए आप पहिले रोहतासगढ़ का हाल सुना दीजिये तो एक तरफ से दिलजमई हो जाय।

कमलिनी के मकान की तबाही, किशोरी, कामिनी और तारा की तकलीफ, नकली बलभद्रसिंह के कारण भूतनाथ की परेशानी, लक्ष्मीदेवी, दारोगा और शेरअलीखां का रोहतासगढ़ में गिरफ्तार होना, राजा वीरेन्द्रसिंह का वहां पहुंचना, भूतनाथ के मुकद्दमे की पेशी, कृष्णा जिन्न का पहुंचकर इन्दिरा वाले कलमदान को पेश करना और असली बलभद्रसिंह का पता लगाने के लिए भूतनाथ को छुट्टी दिला देना इत्यादि जो कुछ बातें हम ऊपर लिख आए हैं वह सब हाल राजा गोपालसिंह ने इन्दिरा के सामने ही दोनों कुमारों से बयान किया और सभी ने बड़े गौर से सुना।

इन्दिरा - बड़े आश्चर्य की बात है कि वह कलमदान जिस पर मेरा नाम लिखा हुआ था कृष्णा जिन्न के हाथ क्योंकर लगा! हां, उस कलमदान का हमारे कब्जे से निकल जाना बहुत ही बुरा हुआ। यदि वह आज मेरे पास होता तो मैं बात की बात में भूतनाथ के मुकद्दमे का फैसला कर देती मगर अब क्या हो सकता है!

गोपाल - इस समय वह कलमदान राजा वीरेन्द्रसिंह के कब्जे में है इसलिए उसका तुम्हारे हाथ लगना कोई बड़ी बात नहीं है।

इन्दिरा - ठीक है मगर उन चीजों का मिलना तो अब कठिन हो गया जो उसके अन्दर थीं और उन्हीं चीजों का मिलना सबसे ज्यादा जरूरी था।

गोपाल - ताज्जुब नहीं कि वे चीजें भी कृष्णा जिन्न के पास हों और वह महाराज के कहने से तुम्हें दे दें।

इन्द्र - या उन चीजों से स्वयम् कृष्णा जिन्न वह काम निकाले जो तुम कर सकती हो!

इन्दिरा - नहीं, उन चीजों का मतलब जितना मैं बता सकती हूं उतना कोई दूसरा नहीं बता सकता!

गोपाल - खैर जो कुछ होगा देखा जायेगा।

आनन्द - (गोपालसिंह से) यह सब हाल आपको कैसे मालूम हुआ क्या आपने कोई आदमी रोहतासगढ़ भेजा था या खुद पिताजी ने यह सब हाल कहला भेजा है?

गोपाल - भूतनाथ स्वयम् मेरे पास मदद लेने के लिए आया था मगर मैंने मदद देने से इनकार किया।

इन्द्र - (ताज्जुब से) ऐसा क्यों किया?

गोपाल - (ऊंची सांस लेकर) विधाता के हाथों से मैं बहुत सताया गया हूं। सच तो यों है कि अभी तक मेरे होशहवास ठिकाने नहीं हुए, इसलिए मैं कुछ मदद करने लायक नहीं हूं, इसके अतिरिक्त मैं खुद अपनी तिलिस्मी किताब खो जाने के गम में पड़ा हुआ था, मुझे किसी की बात कब अच्छी लगती थी।

इन्द्र - (मुस्कुराकर) जी नहीं, ऐसा करने का सबब कुछ दूसरा ही है, मैं कुछ-कुछ समझ गया, खैर देखा जायगा, अब इन्दिरा का किस्सा सुनना चाहिए।

गोपाल - (इन्दिरा से) अब तुम अपना हाल कहो, यद्यपि तुम्हारा और तुम्हारी मां का हाल मैं बहुत कुछ जानता हूं मगर इन दोनों भाइयों को उसकी कुछ भी खबर नहीं है, बल्कि तुम दोनों का कभी नाम भी शायद इन्होंने न सुना होगा।

इन्द्र - बेशक ऐसा ही है।

गोपाल - इसलिए तुम्हें चाहिए कि अपना और अपनी मां का हाल शुरू से कह सुनाओ, मैं समझता हूं कि तुम्हें अपनी मां का कुछ हाल मालूम होगा?

इन्दिरा - जी हां मैं अपनी मां का हाल खुद उसकी जुबानी और कुछ इधर-उधर से भी पूरी तरह सुन चुकी हूं।

गोपाल - अच्छा तो अब कहना आरम्भ करो।

इस समय रात घण्टे भर से कुछ ज्यादा जा चुकी थी। इन्दिरा ने पहिले अपनी मां का और फिर अपना हाल इस तरह बयान किया -

इन्दिरा - मेरी मां का नाम सर्यू और पिता का नाम इन्द्रदेव है।

इन्द्र - (ताज्जुब से) कौन इन्द्रदेव?

गोपाल - वही इन्द्रदेव जो दारोगा का गुरुभाई है, जिसने लक्ष्मीदेवी की जान बचाई थी, और जिसका जिक्र मैं अभी कर चुका हूं।

इन्द्र - अच्छा तब।

इन्दिरा - मेरे नाना बहुत अमीर आदमी थे। लाखों रुपये की मौरूसी जायदाद उनके हाथ लगी थी और वह खुद भी बहुत पैदा करते थे, सिवाय मेरी मां के उनको और कोई औलाद न थी, इसीलिए वह मेरी मां को बहुत प्यार करते थे और धन-दौलत भी बहुत ज्यादे दिया करते थे। इसी कारण मेरी मां का रहना बनिस्बत ससुराल के नैहर में ज्यादे होता था। जिस जमाने का मैं जिक्र करती हूं उस जमाने में मेरी उम्र लगभग सात-आठ वर्ष के होगी मगर मैं बातचीत और समझ-बूझ में होशियार थी और उस समय की बात आज भी मुझे इस तरह याद है जैसे कल ही की बातें हों।

जाड़े का मौसम था जब से मेरा किस्सा शुरू होता है। मैं अपने ननिहाल में थी। आधी रात का समय था, मैं अपनी मां के पास पलंग पर सोई हुई थी। यकायक दरवाजा खुलने की आवाज आई और किसी आदमी को कमरे में आते देख मेरी मां उठ बैठी, साथ ही इसके मेरी नींद भी टूट गई। कमरे के अन्दर इस तरह यकायक आने वाले मेरे नाना थे जिन्हें देख मेरी मां को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वह पलंग के नीचे उतरकर खड़ी हो गई।

आनन्द - तुम्हारे नाना का क्या नाम था?

इन्दिरा - मेरे नाना का नाम दामोदरसिंह था और वे इसी शहर जमानिया में रहा करते थे।

आनन्द - अच्छा तब क्या हुआ?

इन्दिरा - मेरी मां को घबड़ाई हुई देखकर नाना साहब ने कहा, “सर्यू इस समय यकायक मेरे आने से तुझे ताज्जुब होगा और निःसन्देह यह ताज्जुब की बात है भी, मगर क्या करूं किस्मत और लाचारी मुझसे ऐसा कराती है। सर्यू, इस बात को मैं खूब जानता हूं कि लड़की को अपनी मर्जी से ससुराल की तरफ बिदा कर देना सभ्यता के विरुद्ध और लज्जा की बात ही है मगर क्या करूं आज ईश्वर ही ने ऐसा करने के लिए मजबूर किया है। बेटी, आज मैं जबर्दस्ती अपने हाथ से अपने कलेजे को निकालकर बाहर फेंकता हूं अर्थात् अपनी एकमात्र औलाद को (तुझको) जिसे देखे बिना कल नहीं पड़ती थी जबर्दस्ती उसके ससुराल की तरफ बिदा करता हूं। मैंने सभों की चोरी बालाजी को बुलावा भेजा है और मुझे खबर लगी है कि दो-घंटे के अन्दर ही वह आया चाहते हैं। इस समय तुझे यह इत्तिला देने आया हूं कि इसी घंटे-दो घंटे के अन्दर तू भी अपने जाने की तैयारी कर ले!” इतना कहते-कहते नाना साहब का जी उमड़ आया, गला भर गया, और उनकी आंखों से टपाटप आंसू की बूंदें गिरने लगीं।

इन्द्र - बालाजी किसका नाम है?

इन्दिरा - मेरे पिता को मेरे ननिहाल में सब कोई बालाजी कहकर पुकारा करते थे।

इन्द्र - अच्छा फिर?

इन्दिरा - उस समय अपने पिता की ऐसी अवस्था देखकर मेरी मां बदहवास हो गई और उखड़ी हुई आवाज में बोली, “पिताजी, यह क्या आपकी ऐसी अवस्था क्यों हो रही है मैं यह बात क्यों देख रही हूं जो बात मैंने आज तक नहीं सुनी थी वह क्यों सुन रही हूं। मैंने ऐसा क्या कसूर किया है जो आज इस घर से निकाली जाती हूं?'

दामोदरसिंह ने कहा, “बेटी, तूने कुछ कसूर नहीं किया, सब कसूर मेरा है। जो कुछ मैंने किया है उसी का फल भोग रहा हूं बस इससे ज्यादे और मैं कुछ नहीं कहा चाहता, हां तुझसे मैं एक बात की अभिलाषा रखता हूं, आशा है कि तू अपने बाप की बात कभी न टालेगी। तू खूब जानती है कि इस दुनिया में तुझसे बढ़कर मैं किसी को नहीं मानता हूं और न तुमसे बढ़कर किसी पर मेरा स्नेह है, अतएव इसके बदले में केवल इतना ही चाहता हूं कि इस अन्तिम समय में जो कुछ मैं तुझे कहता हूं उसे तू अवश्य पूरा करे और मेरी याद अपने दिल में बनाये रहे...?”

इतना कहते-कहते मेरे नाना की बुरी हालत हो गई। आंसुओं ने उनके रोआबदार चेहरे को तर कर दिया और गला ऐसा भर गया कि कुछ कहना कठिन हो गया। मेरी मां भी अपने पिता की विचित्र बातें सुनकर अधमुई-सी हो गई। पिता स्नेह ने उसका कलेजा हिला दिया, न रुकने वाले आंसुओं को पोंछकर और मुश्किल से अपने दिल को सम्हालकर वह बोली, “पिताजी, कहो, शीघ्र कहो कि आप मुझसे क्या चाहते हैं मैं आपके चरणों पर जान देने के लिए तैयार हूं।”

इसके जवाब में दामोदरसिंह ने यह कहकर कि “मैं भी तुमसे यही आशा रखता हूं' अपने कपड़ों के अन्दर से एक कलमदान निकाला और मेरी मां को देकर कहा, “इसे अपने पास हिफाजत से रखियो और जब तक मैं इस दुनिया में कायम रहूं इसे कभी मत खोलियो। देख, इस कलमदान के ऊपर तीन तस्वीरें बनी हुई हैं। बिचली तस्वीर के नीचे इन्दिरा का नाम लिखा हुआ है। जब तेरा पति इस कलमदान के अन्दर का हाल पूछे तो कह दीजियो कि मेरे पिता ने यह कलमदान इन्दिरा को दिया है और इस पर उसका नाम भी लिख दिया है तथा ताकीद कर दी है कि जब तक इन्दिरा की शादी न हो जाय यह कलमदान खोला न जाय अस्तु। जिस तरह हो यह कलमदान खुलने न पावे। यह तकलीफ तुझे ज्यादे दिन तक भोगनी न पड़ेगी क्योंकि मेरी जिन्दगी का अब कोई ठिकाना नहीं रहा। मैं इस समय खूंखार दुश्मनों से घिरा हुआ हूं, नहीं कह सकता कि आज मरूं या कल, मगर तू मेरे मरने का अच्छी तरह से निश्चय कर लीजियो तब इस कलमदान को खोलियो। इसकी ताली मैं तुझे नहीं देता, जब इसके खोलने का समय आवे तब जिस तरह हो सके खोल डालियो।” इतना कहकर मेरे नाना वहां से चले गए और रोती हुई मेरी मां को उसी तरह छोड़ गए।

इन्द्र - मैं समझता हूं कि यह वही कलमदान था जो कृष्णा जिन्न ने महाराज के सामने पेश किया था और जिसका हाल अभी तुम्हारे सामने भाई साहब ने बयान किया है!

इन्दिरा - जी हां।

इन्द्र - निःसन्देह यह अनूठा किस्सा है, अच्छा तब क्या हुआ?

इन्दिरा - घंटे भर तक मेरी मां तरह-तरह की बातें सोचती और रोती रही। इसके बाद दामोदरसिंह पुनः इस कमरे में आये और मेरी मां को रोती हुई देखकर बोले, “सर्यू, तू अभी तक बैठी रो रही है। अरी बेटी, तुझे तो अब अपने प्यारे बाप के लिए जन्म भर रोना है। इस समय तू अपने दिल को सम्हाल और जाने की शीघ्र तैयारी कर, अगर तू विलम्ब करेगी तो मुझे बड़ा कष्ट होगा और मुझे कष्ट देना तेरा धर्म नहीं है। बस अब अपने को सम्हाल। हां मैं एक दफे पुनः तुझसे पूछता हूं कि उस कलमदान के विषय में जो मैंने कहा है तू वैसा ही करेगी न' इसके जवाब में मेरी मां ने सिसककर कहा, “जो कुछ आपने आज्ञा की है मैं उसका पालन करूंगी, परन्तु मेरे पिता, यह तो बताओ कि तुम ऐसा क्यों कर रहे हो?'

मेरी मां ने बहुत कुछ मिन्नत और आजिजी की मगर नाना साहब ने अपनी बदहवासी का सबब कुछ भी बयान न किया और बाहर चले गये। थोड़ी ही देर बाद एक लौंडी ने आकर खबर दी कि बालाजी (मेरे पिता इन्द्रदेव) आ गये। उस समय मेरी मां को नाना साहब की बातों का निश्चय हो गया और वह समझ गई कि अब इस समय यहां से रवाना हो जाना पड़ेगा।

थोड़ी ही देर बाद मेरे पिता घर में आये। मां ने उनसे उनके आने का सबब पूछा जिसके जवाब में उन्होंने कहा कि तुम्हारे पिता ने एक विश्वासी आदमी के हाथ मुझे पत्र भेजा जिसमें केवल इतना ही लिखा था कि इस पत्र को देखते ही चल पड़ो और जितनी जल्दी हो सके हमारे पास पहुंचो। मैं पत्र पढ़ते ही घबड़ा गया, उस आदमी से पूछा कि घर में कुशल तो है उसने कहा कि सब कुशल है। मैं बहुत तेज घोड़े पर सवार कराके तुम्हारे पास भेजा गया हूं, अब मेरा घोड़ा लौट जाने लायक नहीं है मगर तुम बहुत जल्द उनके पास जाओ। मैं घबड़ाया हुआ एक तेज घोड़े पर सवार होकर उसी वक्त चल पड़ा मगर इस समय यहां पहुंचने पर उनसे ऐसा करने का सबब पूछा तो कोई भी जवाब न मिला। उन्होंने एक कागज मेरे हाथ में देकर कहा कि इसे हिफाजत से रखना। इस कागज में मैंने अपनी कुल जायदाद इन्दिरा के नाम लिख दी है। मेरी जिन्दगी का अब कोई ठिकाना नहीं। तुम इस कागज को अपने पास रक्खो और अपनी स्त्री तथा लड़की को लेकर इसी समय यहां से चले जाओ, क्योंकि अब जमानिया में बड़ा भारी उपद्रव उठा चाहता है। बस इससे ज्यादे और कुछ न कहेंगे। तुम्हारी बिदाई का सब बन्दोबस्त हो चुका है, सवारी इत्यादि तैयार है।'

इतना कहकर मेरे पिता चुप हो गये और दम भर के बाद उन्होंने मेरी मां से पूछा कि इन सब बातों का सबब यदि तुम्हें कुछ मालूम हो तो कहो। मेरी मां ने भी थोड़ी देर पहिले जो कुछ हो चुका था कह सुनाया मगर कलमदान के बारे में केवल इतना ही कहा कि पिताजी यह कलमदान इन्दिरा के लिए दे गये हैं। यह कह गये हैं कि कोई इसे खोलने न पावे, जब इन्दिरा की शादी हो जाये तो वह अपने हाथ से इसे खोले।

इसके बाद मेरी पिताजी मिलने के लिए मेरी नानी के पास गये और देखा कि रोते-रोते उनकी अजीब हालत हो गई है। मेरे पिता को देखकर वह और भी रोने लगी मगर इसका सबब कुछ भी न बता सकी कि उसके मालिक को आज क्या हो गया है, वे इतने बदहवास क्यों हैं, और अपनी लड़की को इसी समय यहां से बिदा करने पर क्यों मजबूर हो रहे हैं, क्योंकि उस बेचारी को भी इसका कुछ मालूम न था।

यह सब बातें जो मैं ऊपर कह आई हूं सिवाय हम पांच आदमियों के और किसी को मालूम न थीं। उस घर का और कोई भी यह नहीं जानता था कि आज दामोदरसिंह बदहवास हो रहे हैं और अपनी लड़की को किसी लाचारी से इसी समय बिदा कर रहे हैं।

थोड़ी देर बाद हम लोग बिदा कर दिये गये। मेरी मां रोती हुई मुझे साथ लेकर रथ में रवाना हुई जिसमें मजबूत घोड़े जुते हुए थे, और इसी तरह के दूसरे रथ पर बहुत-सा सामान लेकर मेरे पिता सवार हुए और हम लोग वहां से रवाना हुए। हिफाजत के लिए कई हथियारबन्द सवार भी हम लोगों के साथ थे।

जमानिया से मेरे पिता का मकान केवल तीस-पैंतीस कोस की दूरी पर होगा। जिस वक्त हम लोग घर से रवाना हुए उस वक्त दो घंटे रात बाकी थी और जिस समय हम लोग घर पहुंचे उस समय पहर भर से भी ज्यादे दिन बाकी था। मेरी मां तमाम रास्ते रोती गई और घर पहुंचने पर भी कई दिनों तक उसका रोना बन्द न हुआ। मेरे पिता के रहने का स्थान बड़ा ही सुन्दर और रमणीक है मगर उसके अन्दर जाने का रास्ता बहुत ही गुप्त रक्खा गया है।

इस जगह इन्दिरा ने इन्द्रदेव के मकान और रास्ते का थोड़ा-सा हाल बयान किया और उसके बाद फिर अपना किस्सा कहने लगी -

इन्दिरा - मेरे पिता तिलिस्मी दारोगा हैं और यद्यपि खुद भी बड़े भारी ऐयार हैं तथापि उनके यहां कई ऐयार नौकर हैं। उन्होंने अपने दो ऐयारों को इसलिए जमानिया भेजा कि वे एक साथ मिलकर या अलग-अलग होकर दामोदरसिंहजी की बदहवासी और परेशानी का पता गुप्त रीति से लगावें और यह मालूम करें कि वह कौन से दुश्मनों की चालबाजियों के शिकार हो रहे हैं। इस बीच मेरे पिता ने पुनः मेरी मां से कलमदान का हाल पूछा जो उसके पिता ने उसे दिया था और मेरी मां ने उसका हाल साफ-साफ कह दिया अर्थात् जो कुछ उस कलमदान के विषय में दामोदरसिंहजी ने नसीहत इत्यादि की थी वह साफ-साफ कह सुनाया।

जिस दिन मैं अपनी मां के साथ पिता के घर गई उसके ठीक पन्द्रहवें दिन संध्या के समय मेरे पिता के एक ऐयार ने खबर पहुंचाई कि जमानिया में प्रातःकाल सरकारी महल के पास वाले चौमुहाने पर दामोदरसिंहजी की लाश पाई गई जो लहू से भरी हुई थी और सिर का पता न था। महाराज ने उस लाश को अपने पास उठवा मंगाया और तहकीकात हो रही है। इस खबर को सुनते ही मेरी मां जोर-जोर से रोने और अपना माथा पीटने लगी। थोड़ी ही देर बाद मेरे ननिहाल का भी एक दूत आ पहुंचा और उसने भी वही खबर सुनाई। पिताजी ने मेरी मां को बहुत समझाया और कहा कि कलमदान देते समय तुम्हारे पिता ने तुमसे कहा था कि मेरे मरने के बाद इस कलमदान को खोलना मगर मेरे मरने का अच्छी तरह निश्चय कर लेना। उनका ऐसा कहना बेसबब न था। 'मरने का निश्चय कर लेना' यह बात उन्होंने निःसन्देह इसीलिए कही होगी कि उनके मरने के विषय में लोग हम सभों को धोखा देंगे यह बात उन्हें अच्छी तरह मालूम थी, अस्तु अभी से रो-रोकर अपने को हलकान मत करो और पहिले मुझे जमानिया जाकर उनके मरने के विषय में निश्चय कर लेने दो। यह जरूर ताज्जुब और शक की बात है कि उन्हें मारकर कोई उनका सिर ले जाय और धड़ उसी तरह रहने दे। इसके अतिरिक्त तुम्हारी मां का भी बन्दोबस्त करना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि वह किसी दूसरे ही की लाश के साथ सती हो जाये।मेरी मां ने जमानिया जाने की इच्छा प्रकट की परन्तु पिता ने स्वीकार न करके कहा कि यह बात तुम्हारे पिता को भी स्वीकार न थी, नहीं तो अपनी जिन्दगी में ही तुम्हें यहां बिदा न कर देते, इत्यादि बहुत कुछ समझा-बुझाकर उसे शान्त किया और स्वयं उसी समय दो-तीन ऐयारों को साथ लेकर जमानिया की तरफ रवाना हो गए।

इतना कहकर इन्दिरा रुक गई और एक लम्बी सांस लेकर फिर बोली -

इन्दिरा - उस समय मेरे पिता पर जो कुछ मुसीबत बीती थी उसका हाल उन्हीं की जुबानी सुनना अच्छा मालूम होगा तथापि जो कुछ मुझे मालूम है मैं बयान करती हूं। मेरे पिता जब जमानिया पहुंचे तो सीधे घर चले गए। वहां पर देखा तो मेरी नानी को अपने पति की लाश के साथ सती होने की तैयारी करते पाया क्योंकि देखभाल करने के बाद राजा साहब ने उनकी लाश उनके घर भेजवा दी थी। मेरे पिता ने मेरी नानी को बहुत समझाया और कहा कि इस लाश के साथ तुम्हारा सती होना उचित नहीं है। कौन ठिकाना, यह कार्रवाई धोखा देने के लिए की गई हो और यदि यह दूसरे की लाश निकली तो तुम स्वयं विचार सकती हो कि तुम्हारा सती होना कितना बुरा होगा, अस्तु तुम इसकी दाह-क्रिया होने दो और इस बीच में मैं इस मामले का असल पता लगा लूंगा, अगर यह लाश वास्तव में उन्हीं की होगी तो खूनी का या उनके सिर का पता लगाना कोई कठिन न होगा! इत्यादि बहुत-सी बातें समझाकर उनको सती होने से रोका, स्वयं खूनियों का पता लगाने का उद्योग करने लगे।

आधी रात का समय था, सर्दी खूब पड़ रही थी। लोग लेहाफ के अन्दर मुंह छिपाये अपने-अपने घरों में सो रहे थे। मेरे पिता सूरत बदले और चेहरे पर नकाब डाले घूमते-फिरते उसी चौमुहाने पर जा पहुंचे जहां मेरे नाना की लाश पाई गई थी। उस समय चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। वे एक दुकान की आड़ में खड़े होकर कुछ सोच रहे थे कि दाहिनी तरफ से एक आदमी को आते देखा। वह आदमी भी अपने चेहरे को नकाब से छुपाए हुए था। मेरे पिता के देखते ही देखते वह उस चौमुहाने पर कुछ रखकर पीछे की तरफ मुड़ गया। मेरे पिता ने पास जाकर देखा तो एक लिफाफे पर नजर पड़ी, उसे उठा लिया और घर लौट आये। शमादान के सामने लिफाफा खोला, उसके अन्दर एक चीठी थी, उसमें यह लिखा था -

“दामोदरसिंह के खूनी का जो कोई पता लगाना चाहे उसे अपनी तरफ से भी होशियार रहना चाहिए। ताज्जुब नहीं कि उसकी भी वही दशा हो जो दामोदरसिंह की हुई।”

इस पत्र को पढ़कर मेरे पिता तरद्दुद में पड़ गये और सबेरा होने तक तरह-तरह की बातें सोचते-विचारते रहे। उन्हें आशा थी कि सबेरा होने पर उनके ऐयार लोग घर लौट आयेंगे और रात भर में जो कुछ उन्होंने किया है उसका हाल कहेंगे क्योंकि ऐसा करने के लिए उन्होंने अपने ऐयारों को ताकीद कर दी थी, मगर उनका विचार ठीक न निकला अर्थात् उनके ऐयार लौटकर न आये। दूसरा दिन भी बीत गया और तीसरे दिन भी दो पहर रात जाते-जाते तक मेरे पिता ने उन लोगों का इन्तजार किया मगर सब व्यर्थ था, उन ऐयारों का हाल कुछ भी मालूम न हुआ। आखिर लाचार होकर स्वयं उनकी खोज में जाने के लिए तैयार हो गए और घर से बाहर निकला ही चाहते थे कि कमरे का दरवाजा खुला और महाराज के एक चोबदार को साथ लिए नाना साहब का एक सिपाही कमरे के अन्दर दाखिल हुआ। पिता को बड़ा ताज्जुब हुआ और उन्होंने चोबदार से वहां आने का सबब पूछा। चोबदार ने जवाब दिया कि आपको कुंअर साहब (गोपालसिंह) ने शीघ्र बुलाया है और अपने साथ लाने के लिए मुझे सख्त ताकीद की है।

गोपाल - हां ठीक है, मैंने उन्हें अपनी मदद के लिए बुलाया था क्योंकि मेरे और इन्द्रदेव के बीच दोस्ती थी और उस समय मैं दिली तकलीफों से बहुत बेचैन था। इन्द्रदेव से और मुझसे अब भी वैसी ही दोस्ती है, वह मेरा सच्चा दोस्त है, चाहे वर्षों हम दोनों में पत्रव्यवहार न हो दोस्ती में किसी तरह की कमी नहीं आ सकती।

इन्दिरा - बेशक ऐसा ही है! तो उस समय का हाल और उसके बाद मेरे पिता से और आपसे जो-जो बातें हुई थीं सो आप अच्छी तरह बयान कर सकते हैं।

गोपाल - नहीं - नहीं, जिस तरह तुम और हाल कह रही हो उसी तरह वह भी कह जाओ, मैं समझता हूं कि इन्द्रदेव ने यह सब हाल तुमसे कहा होगा।

इन्दिरा - जी हां इस घटना के कई वर्ष बाद पिताजी ने मुझसे सब हाल कहा था जो अभी तक मुझे अच्छी तरह याद है मगर मैं उन बातों को मुख्तसर ही में बयान करती हूं।

गोपाल - क्या हर्ज है तुम मुख्तसर में बयान कर जाओ, जहां भूलोगी मैं बता दूंगा, यदि वह हाल मुझे भी मालूम होगा।

इन्दिरा - जो आज्ञा! मेरे पिता जब चोबदार के साथ राजमहल में गये तो मालूम हुआ कि कुंअर साहब घर में नहीं हैं, कहीं बाहर गये हैं। आश्चर्य में आकर उन्होंने कुंअर साहब के खास खिदमतगार से दरियाफ्त किया तो उसने जवाब दिया कि आपके पास चोबदार भेजने के बाद बहुत देर तक अकेले बैठकर आपका इन्तजार करते रहे मगर जब आपके आने में देर हुई तो घबड़ाकर खुद आपके मकान की तरफ चले गये। यह सुनते ही मेरे पिता घबड़ाकर वहां से लौटे और फौरन ही घर पहुंचे मगर कुंअर साहब से मुलाकात न हुई। दरियाफ्त करने पर पहरेदार ने कहा कि कुंअर साहब यहां नहीं आए हैं। वे पुनः लौटकर राजमहल में गये परन्तु कुंअर साहब का पता न लगना था और न लगा। मेरे पिताजी की वह तमाम रात परेशानी में बीती और उस समय उन्हें नाना साहब की बात याद आई जो उन्हेंने मेरे पिता से कही थी कि अब जमानिया में बड़ा भारी उपद्रव उठा चाहता है।

तमाम रात बीत गई, दूसरा दिन चला गया, तीसरा दिन गुजर गया, मगर कुंअर साहब का पता न लगा। सैकडों आदमी खोज में निकले, तमाम शहर में कोलाहल मच गया। जिसे देखिए वह इन्हीं के विषय में तरह-तरह की बातें कहता और आश्चर्य करता था। उन दिनों कुंअर साहब (गोपालसिंह) की शादी लक्ष्मीदेवी से लगी हुई थी और तिलिस्मी दारोगा साहब शादी के विरुद्ध बातें किया करते थे, इस बात की चर्चा भी शहर में फैली हुई थी।

चौथे दिन आधी रात के समय मेरे पिता नाना साहब वाले मकान में फाटक के ऊपर वाले कमरे के अन्दर पलंग पर लेटे हुए कुंअर साहब के विषय में कुछ सोच रहे थे कि यकायक कमरे का दरवाजा खुला और आप (गोपालसिंह) कमरे के अन्दर आते हुए दिखाई पड़े, मुहब्बत और दोस्ती में बड़ाई-छुटाई का दर्जा कायम नहीं रहता। कुंअर साहब को देखते ही मेरे पिता उठ खड़े हुए और दौड़कर उनके गले से चिपटकर बोले, “क्यों साहब, आप इतने दिनों तक कहां थे'

उस समय कुंअर साहब की आंखों से आंसू की बूंदें टपटपाकर गिर रही थीं, चेहरे पर उदासी और तकलीफ की निशानी पाई जाती थी, और उन तीन दिनों में ही उनके बदन की यह हालत हो गई थी कि महीनों के बीमार मालूम पड़ते थे। मेरे पिता ने हाथ-मुंह धुलवाया तथा अपने पलंग पर बैठाकर हालचाल पूछा और कुंअर साहब ने इस तरह अपना हाल बयान किया -

“उस दिन मैंने तुमको बुलाने के लिए चोबदार भेजा, जब तक चोबदार तुम्हारे यहां से लौटकर आये उसके पहिले ही मेरे एक खिदमतगार ने मुझे इत्तिला दी कि इन्द्रदेव ने आपको अपने घर अकेले ही बुलाया है। मैं उसी समय उठ खड़ा हुआ और अकेले तुम्हारे मकान की तरफ रवाना हुआ। जब आधे रास्ते में पहुंचा तो तुम्हारे यहां का अर्थात् दामोदरसिंह का खिदमतगार जिसका नाम रामप्यारे है मिला और उसने कहा कि इन्द्रदेव गंगा किनारे की तरफ गये हैं और आपको उसी जगह बुलाया है। मैं क्या जानता था कि एक अदना खिदमतगार मुझसे दगा करेगा। मैं बेधड़क उसके साथ गंगा के किनारे की तरफ रवाना हुआ। आधी रात से ज्यादे तो जा ही चुकी थी अतएव गंगा के किनारे बिल्कुल सन्नाटा छाया हुआ था। मैंने वहां पहुंचकर जब किसी को न पाया तो उस नौकर से पूछा कि इन्द्रदेव कहां हैं उसने जवाब दिया कि ठहरिये आते होंगे। उस घाट पर केवल एक डोंगी बंधी हुई थी, मैं कुछ विचारता हुआ उस डोंगी की तरफ देख रहा था कि यकायक दोनों तरफ से दस-बारह आदमी चेहरे पर नकाब डाले हुए आ पहुंचे और उन सभों ने फुर्ती के साथ मुझे गिरफ्तार कर लिया। वे सब बड़े मजबूत और ताकतवर थे और सब-के-सब एक साथ मुझसे लिपट गये। एक ने मेरे मुंह पर एक मोटा कपड़ा डालकर ऐसा कस दिया कि न तो मैं बोल सकता था और न कुछ देख सकता था। बात की बात में मेरी मुश्कें बांध दी गईं और जबर्दस्ती उसी डोंगी पर बैठा दिया गया जो घाट के किनारे बंधी हुई थी। डोंगी किनारे से खोल दी गई और बड़ी तेजी से चलाई गई। मैं नहीं कह सकता कि वे लोग कै आदमी थे और दो ही घण्टे में जब तक कि मैं उस पर सवार था डोंगी को लेकर कितनी दूर ले गये! जब लगभग दो घण्टे बीत गये तब डोंगी किनारे लगी और मैं उस पर से उतारकर एक घोड़े पर चढ़ाया गया, मेरे दोनों पैर नीचे की तरफ मजबूती के साथ बांध दिये गए, हाथ की रस्सी ढीली कर दी गई जिससे मैं घोड़े की काठी पकड़ सकूं और घोड़ा तेजी के साथ एक तरफ को दौड़ाया गया। मैं दोनों हाथों से घोड़े की काठी पकड़े हुए था। यद्यपि मैं देखने और बोलने से लाचार कर दिया गया था मगर अन्दाज से और घोड़ों की टापों की आवाज से मालूम हो गया कि मुझे कई सवार घेरे हुए जा रहे हैं और मेरे घोड़े की लगाम किसी सवार के हाथ में है। कभी तेजी से और कभी धीरे-धीरे चलते-चलते दो पहर से ज्यादे बीत गए, पैरों में दर्द होने लगा और थकावट ऐसी जान पड़ने लगी कि मानो तमाम बदन चूर-चूर हो गया है। इसके बाद घोड़े रोके गए और मैं नीचे उतारकर एक पेड़ के साथ कसके बांध दिया गया और उस समय मेरे मुंह का कपड़ा खोल दिया गया। मैंने चारों तरफ निगाह दौड़ाई तो अपने को एक घने जंगल में पाया। दस आदमी मोटे-मुस्टंडे और उनकी सवारी के दस घोड़े सामने खड़े थे। पास ही में पानी का एक चश्मा बह रहा था, कई आदमी जीन खोलकर घोड़ों को ठंडा करने और चराने की फिक्र में लगे और बाकी शैतान हाथ में नंगी तलवार लेकर मेरे चारों तरह खड़े हो गए। मैं चुपचाप सभों की तरफ देखता था और मुंह से कुछ भी न बोलता था और न वे लोग ही मुझसे कुछ बात करते थे। (लम्बी सांस लेकर) यदि गर्मी का दिन होता तो शायद मेरी जान निकल जाती क्योंकि उन कम्बख्तों ने मुझे पानी तक के लिए नहीं पूछा और स्वयं खा-पीकर ठीक हो गए, अस्तु पहर भर के बाद फिर मेरी वही दुर्दशा की गई अर्थात् देखने और बोलने से लाचार करके घोड़े पर उसी तरह बैठाया गया और फिर सफर शुरू हुआ। पुनः दो पहर से ज्यादे देर तक सफर करना पड़ा और इसके बाद मैं घोड़े से नीचे उतारकर पैदल चलाया गया। मेरे पैर दर्द और तकलीफ से बेकार हो रहे थे मगर लाचारी ने फिर भी चौथाई कोस तक चलाया और इसके बाद चौखट लांघने की नौबत आई, तब मैंने समझा कि अब किसी मकान में जा रहा हूं। मुझे चार दफे चौखट लांघनी पड़ी जिसके बाद मैं एक खम्भे के साथ बांध दिया गया। तब मेरे मुंह पर से कपड़ा हटाया गया।”

तिलिस्मी लेख : बाजे से निकली आवाज का मतलब यह है -

सारा तिलिस्म तोड़ने का खयाल न करो और इस तिलिस्म की ताली किसी चलती -फिरती से प्राप्त करो। इस बाजे में वे सब बातें भरी हैं जिनकी तुम्हें जरूरत है, ताली लगाया करो और सुना करो। अगर एक ही दफे सुनने में समझ न आवे तो दोहरा करके भी सुन सकते हो। इसकी तर्कीब और ताली इसी कमरे में है ढूंढो।

महाराज सूर्यकान्त की तस्वीर के नीचे लिखे हुए बारीक अक्षरों वाले मजमून का अर्थ यह है -

(“स्वर दै गिन कै वर्ग पै”) का अर्थ यह है -

खूब समझ के तब आगे पैर रक्खो।

बाजे वाले चौंतरे में खोजो, तिलिस्मी खंजर अपने देह से अलग मत करो नहीं तो जान पर आ बनेगी।

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