जब जिन्न और भूतनाथ को पहाड़ के नीचे पहुंचाकर देवीसिंह चले गए तो वे दोनों आपस में नीचे लिखी बातें करते हुए पूरब की तरफ रवाना हुए -

भूत - निःसन्देह आपने मुझ पर बड़ी कृपा की, यदि आज आप मेरे सहायक न होते तो मैं तबाह हो चुका था।

जिन्न - सो सब तो ठीक है, मगर देखो आज हमने तुमको अपनी जमानत पर इसलिए छुड़ा दिया है कि तुम जिस तरह हो असली बलभद्रसिंह को खोज निकालो और उन्हें अपने साथ लेकर राजा वीरेन्द्रसिंह के पास हाजिर हो जाओ, लेकिन ऐसा न करना कि बलभद्रसिंह का पता लगाने के बदले तुम स्वयं अन्तर्ध्यान हो जाओ और हमको राजा वीरेन्द्रसिंह के आगे झूठा करो।

भूत - नहीं-नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता। यदि मुझे नेकनामी के साथ राजा वीरेन्द्रसिंह का ऐयार बनने का शौक न होता तो मैं इन बखेड़ों में क्यों पड़ता बिना कुछ पाये उनका इतना काम क्यों करता रुपये की मुझे कुछ परवाह न थी, मैं किसी दूसरे देश में चला जाता और खुशी के साथ जिन्दगी बिताता मगर नहीं, मुझे राजा वीरेन्द्रसिंह के साथ रहने का बड़ा उत्साह है और जिस दिन से राजा गोपालसिंह का पता लगा है उसी दिन से मैं उनके दुश्मनों की खोज में लगा हूं और बहुत-सी बातों का पता लगा भी चुका हूं।

जिन्न - (बात काटकर) तो क्या तुमको इस बात की खबर न थी कि मायारानी ने गोपालसिंह को कैद करके किसी गुप्त स्थान में रख दिया है?

भूत - नहीं, बिल्कुल नहीं।

जिन्न - और इस बात की भी खबर न थी कि मायारानी वास्तव में लक्ष्मीदेवी नहीं है?

भूत - इस बात को तो मैं अच्छी तरह जानता था।

जिन्न - तो तुमने राजा गोपालसिंह के आदमियों को इस बात की खबर क्यों नहीं की?

भूत - मैंने इसलिए मायारानी का असल हाल किसी से नहीं कहा कि मुझे राजा गोपालसिंह के मरने का पूरा-पूरा विश्वास हो चुका था और उसके पहिले मैं रणधीरसिंहजी के यहां नौकर था, तब मुझे दूसरे राज्य के भले-बुरे कामों से मतलब ही क्या था?

जिन्न - तुमसे और हेलासिंह से जब दोस्ती थी तब तुम किसके नौकर थे?

भूत - मुझसे और हेलासिंह से कभी दोस्ती थी ही नहीं! मैं तो आपसे कैदखाने के अन्दर ही कह चुका हूं कि राजा गोपालसिंह के छूटने के बाद मैंने उन कागजों का पता लगाया है जो इस समय मेरे ही साथ दुश्मनी कर रहे हैं और...।

जिन्न - हां-हां, जो कुछ तुमने कहा था मुझे बखूबी याद है, अच्छा अब यह बताओ कि इस समय तुम कहां जाओगे और क्या करोगे?

भूत - मैं खुद नहीं जानता कि कहां जाऊंगा और क्या करूंगा बल्कि यह बात मैं आप ही से पूछने वाला था।

जिन्न - (ताज्जुब से) क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि बलभद्रसिंह को किसने कैद किया और अब वह कहां है?

भूत - इतना तो मैं जानता हूं कि बलभद्रसिंह को मायारानी के दारोगा ने कैद किया था मगर यह नहीं मालूम कि इस समय वह कहां है।

जिन्न - अगर ऐसा ही है तो कमलिनी के तिलिस्मी मकान के बाहर तुमने तेजसिंह से क्यों कहा था कि मेरे साथ कोई चले तो मैं असली बलभद्रसिंह को दिखा दूंगा इस बात से तो तुम खुद झूठे साबित होते हो!

भूत - जी हां, बेशक मैंने नादानी की जो ऐसा कहा, मगर मुझे इस बात का निश्चय हो चुका है कि बलभद्रसिंह अभी तक जीता है और उसे तिलिस्मी दारोगा ने कैद कर लिया था।

जिन्न - इसी से तो मैं पूछता हूं कि अब तुम कहां जाओगे और क्या करोगे?

भूत - अगर वह दारोगा मेरे काबू में होता तब तो मैं सहज ही में पता लगा लेता मगर अब मुझे इसके लिए बहुत कुछ उद्योग करना होगा, तथापि इस समय मैं जमानिया में राजा गोपालसिंह के पास जाता हूं, यदि उन्होंने मेरी मदद की तो अपना काम बहुत जल्द कर सकूंगा, मगर आशा नहीं कि वे मेरी मदद करेंगे क्योंकि जब वे मेरे मुकद्दमे का हाल सुनेंने तो जरूर मुझको नालायक बतायेंगे। (कुछ सोचकर) अभी तक यह भी मुझे मालूम नहीं हुआ कि आप कौन हैं, अगर जानता तो कहता कि राजा गोपालसिंह के नाम की आप एक चीठी लिख दें।

जिन्न - मेरा परिचय तुम्हें सिवाय इसके और कुछ नहीं मिल सकता कि मैं जिन्न हूं और हर जगह पहुंचने की ताकत रखता हूं। खैर, तुम राजा गोपालसिंह के पास जाओ और उनसे मदद मांगो, मैं तुम्हें एक सिफारिशी चीठी देता हूं, तुम्हारे पास कागज-कलम-दवात है?

भूत - जी हां, आपकी कृपा से मुझे मेरी ऐयारी का बटुआ मिल गया है और उसमें सब सामान मौजूद है।

इतना कहकर भूतनाथ रुक गया और एक पेड़ के नीचे बैठने के लिए जिन्न को कहा मगर जिन्न ने ऐसा करने से इन्कार किया और आगे की तरफ इशारा करके कहा, “उस पेड़ के नीचे चलकर हम ठहरेंगे क्योंकि वहां हमारा घोड़ा मौजूद है।”

थोड़ी ही देर में दोनों आदमी उस पेड़ के नीचे जा पहुंचे। भूतनाथ ने देखा कि कसे-कसाये दो उम्दा घोड़े उस पेड़ की जड़ के साथ बागडोर के सहारे बंधे हैं और जिन्न ही की सूरत-शक्ल, चाल-ढाल का एक आदमी उनके पास टहल रहा है जो जिन्न के वहां पहुंचते ही सलाम करके एक किनारे खड़ा हो गया। जिन्न ने भूतनाथ से कलम, दवात और कागज लेकर कुछ लिखा और भूतनाथ को देकर कहा, “यह चीठी राजा गोपालसिंह को देना, बस अब तुम जाओ।” इतना कहकर जिन्न एक घोड़े पर सवार हो गया, जिन्न ही की सूरत का दूसरा आदमी जो वहां मौजूद था दूसरे घोड़े पर सवार हो गया और भूतनाथ के देखते ही देखते दूर जाकर वे दोनों उसकी नजरों से गायब हो गये। भूतनाथ तरद्दुद और परेशानी के सबब से उदास और सुस्त हो गया था इसलिए थोड़ी देर तक आराम करने की नीयत से उसी पेड़ के नीचे बैठ जाने के बाद उस पत्र को पढ़ने लगा जो जिन्न ने राजा गोपालसिंह के लिए लिख दिया था। मगर हजार कोशिश करने पर भी उससे वह चीठी पढ़ी न गई क्योंकि सिवाय टेढ़ी-मेढ़ी और पेचीली लकीरों के किसी साफ अक्षर का उसके अन्दर भूतनाथ को पता ही न लगा।

आधे घण्टे तक आराम करने के बाद भूतनाथ उठ खड़ा हुआ और 'लामाघाटी'[1] की तरफ रवाना हुआ।

शब्दार्थ:

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