दोपहर दिन का समय है। गर्म-गर्म हवा के झपेटों से उड़ी हुई जमीन की मिट्टी केवल आसमान ही को गंदला नहीं कर रही है बल्कि पथिकों के शरीरों को भी अपना-सा करती और आंखों को इतना खुलने नहीं देती है जिससे रास्ते को अच्छी तरह देखकर तेजी के साथ चलें और किसी घने पेड़ के नीचे पहुंचकर अपने थके-मांदे शरीर को आराम दें। ऐसे ही समय भूतनाथ, सर्यूसिंह और सर्यूसिंह का एक चेला आंखों को मिट्टी और गर्द से बचाने के लिए अपने-अपने चेहरों पर बारीक कपड़ा डाले रोहतासगढ़ की तरफ तेजी के साथ कदम बढ़ाये चले जा रहे हैं। हवा के झपेटे आगे बढ़ने से रोक-टोक करते हैं मगर ये तीनों आदमी धुन के पक्के इस तरह चले जा रहे हैं कि बात तक नहीं करते, हां उस सामने के घने जंगल की तरफ उनका ध्यान अवश्य है जहां आधी घड़ी के अन्दर ही पहुंचकर सफर की हरारत मिटा सकते हैं। उन तीनों ने अपनी चाल और भी तेज की और थोड़ी ही देर बाद उसी जंगल में एक सघन पेड़ के नीचे बैठकर थकावट मिटाते दिखाई देने लगे।

सर्यू - (रूमाल से मुंह पोंछकर) यद्यपि आज का सफर दुःखदायी हुआ परन्तु हम लोग ठीक समय पर ठिकाने पहुंच गये।

भूत - अगर दुश्मनों का डेरा अभी तक इसी जंगल में हो तो मैं भी ऐसा ही कहूंगा।

सर्यू - बेशक वे लोग अभी तक इसी जंगल में होंगे क्योंकि मेरे शागिर्द ने उनके दो दिन तक यहां ठहरने की खबर दी थी और वह जासूसी का काम बहुत अच्छे ढंग से करता है।

भूत - तब हम लोगों को कोई ऐसा ठिकाना ढूंढ़ना चाहिए जहां पानी हो और अपना भेष अच्छी तरह बदल सकें।

सर्यू - जरा-सा और आराम कर लें तब उठें।

भूत - क्या हर्ज है।

थोड़ी देर तक ये तीनों उसी पेड़ के नीचे बैठे बातचीत करते रहे और इसके बाद उठकर ऐसे ठिकाने पहुंचे जहां साफ जल का सुन्दर चश्मा बह रहा था। उसी चश्मे के जल से बदन साफ करने के बाद तीनों ऐयारों ने आपस में कुछ सलाह करके अपनी सूरतें बदलीं और वहां से उठकर दुश्मनों की टोह में इधर-उधर घूमने लगे तथा संध्या होने के पहिले ही उन लोगों का पता लगा लिया जो दो सौ आदमियों के साथ उसी जंगल में टिके हुए थे। जब रात हुई और अंधकार ने अपना दखल चारों तरफ अच्छी तरह जमा लिया तो ये तीनों उस लश्कर की तरफ रवाना हुए।

शिवदत्त और कल्याणसिंह तथा उनके साथियों ने जंगल के मध्य में डेरा जमाया हुआ था। खेमा या कनात का नामनिशान न था, बड़े-बड़े और घने पेड़ों के नीचे शिवदत्त और कल्याणसिंह मामूली बिछावन पर बैठे हुए बातें कर रहे थे और उनसे थोड़ी ही दूर पर उनके संगी-साथी और सिपाही लोग अपने-अपने काम तथा रसोई बनाने की फिक्र में लगे हुए थे। जिस पेड़ के नीचे शिवदत्त और कल्याणसिंह थे उससे तीस या चालीस गज की दूरी पर दो पालकियां पेड़ों की झुरमुट में अन्दर रक्खी हुई थीं और उनमें माधवी तथा मनोरमा विराज रही थीं और इन्हीं के पीछे की तरफ बहुत से घोड़े पेड़ों के साथ बंधे हुए घास चर रहे थे।

शिवदत्त और कल्याणसिंह एकान्त में बैठे बातचीत कर रहे थे। उनसे थोड़ी ही दूर पर एक जवान जिसका नाम धन्नूसिंह था, हाथ में नंगी तलवार लिये हुए पहरा दे रहा था और यही जवान उन दो सौ सिपाहियों का अफसर था जो इस समय जंगल में मौजूद थे। रात हो जाने के कारण कहीं - कहीं पर रोशनी हो रही और एक लालटेन उस जगह जल रही थी जहां शिवदत्त और कल्याणसिंह बैठे हुए आपस में बातें कर रहे थे।

शिवदत्त - हमारी फौज ठिकाने पहुंच गई होगी।

कल्याण - बेशक।

शिवदत्त - क्या इतने आदमियों का रोहतासगढ़ तहखाने के अन्दर समा जाना सम्भव है?

कल्याण - (हंसकर) इसके दूने आदमी भी अगर हों तो उस तहखाने में अंट सकते हैं।

शिवदत्त - अच्छा तो उस तहखाने में घुसने के बाद क्या-क्या करना होगा?

कल्याण - उस तहखाने के अन्दर चार कैदखाने हैं, पहिले इन कैदखानों को देखेंगे, अगर उनमें कोई कैदी होगा तो उसे छुड़ाकर अपना साथी बनावेंगे। मायारानी और उसका दारोगा भी उन्हीं कैदखानों में से किसी में जरूर होंगे और छूट जाने पर उन दोनों से बड़ी मदद मिलेगी।

शिवदत्त - बेशक बड़ी मदद मिलेगी, अच्छा तब?

कल्याण - अगर उस समय वीरेन्द्रसिंह वगैरह तहखाने की सैर करते हुए मिल जायेंगे तो मैं उन लोगों के बाहर निकलने का रास्ता बन्द करके फंसाने की फिक्र करूंगा तथा आप फौजी सिपाहियों को लेकर किले के अन्दर चले जाइयेगा और मर्दानगी के साथ किले में अपना दखल कर दीजियेगा।

शिवदत्त - ठीक है मगर यह कब संभव है कि उस समय वीरेन्द्रसिंह वगैरह तहखाने की सैर करते हुए हम लोगों को मिल जायं।

कल्याण - अगर न मिलेंगे तो न सही, उस अवस्था में हम लोग एक साथ किले के अन्दर अपना दखल जमावेंगे और वीरेन्द्रसिंह तथा उनके ऐयारों को गिरफ्तार कर लेंगे। यह तो आप सुन ही चुके हैं कि इस समय रोहतासगढ़ किले में फौजी सिपाही पांच सौ से ज्यादे नहीं हैं, सो भी बेफिक्र बैठे होंगे, और हम लोग यकायक हर तरह से तैयार जा पहुंचेंगे। मगर मेरा दिल यह गवाही देता है कि वीरेन्द्रसिंह वगैरह को हम लोग तहखाने में सैर करते हुए अवश्य देखेंगे क्योंकि वीरेन्द्रसिंह ने जहां तक सुना गया है, अभी तक तहखाने की सैर नहीं की, अबकी दफे जो वह वहां गए हैं तो जरूर तहखाने की सैर करेंगे और तहखाने की सैर दो-एक दिन में नहीं हो सकती, आठ-दस दिन अवश्य लगेंगे और सैर करने का समय भी रात ही को ठीक होगा, इसी से यह कहते हैं कि अगर वे लोग तहखाने में मिल जायं तो ताज्जुब नहीं।

शिवदत्त - अगर ऐसा हो तो क्या बात है! मगर सुनो तो कदाचित् वीरेन्द्रसिंह तहखाने में मिल गए तो तुम तो उनके फंसाने की फिक्र में लगोगे और मुझे किले के अन्दर घुसकर दखल जमाना होगा। मगर मैं उस तहखाने के रास्ते को जानता नहीं, तुम कह चुके हो कि तहखाने में आने-जाने के कई रास्ते हैं और वे पेचीले हैं, अस्तु ऐसी अवस्था में मैं क्या कर सकूंगा!

कल्याण - ठीक है मगर आपको तहखाने के कुछ रास्तों का हाल और वहां आने-जाने की तर्कीब मैं सहज ही में समझा सकता हूं।

शिवदत्त - सो कैसे?

कल्याणसिंह ने अपने पास पड़े हुए एक बटुए में से कलम, दवात और कागज निकाला। लालटेन को जो कुछ हटकर जल रही थी पास रखने के बाद कागज पर तहखाने का नक्शा खींचकर समझाना शुरू किया। उसने ऐसे ढंग से समझाया कि शिवदत्त को किसी तरह का शक न रहा और उसने कहा, ''अब मैं बखूबी समझ गया।'' उसी समय बगल से यह आवाज आई, ''ठीक है, मैं भी समझ गया।''

वह पेड़ बहुत मोटा और जंगली लताओं के चढ़े होने से घना हो रहा था। शिवदत्त और कल्याणसिंह की पीठ जिस पेड़ की तरफ थी उसी की आड़ में कुछ देर से खड़ा एक आदमी उन दोनों की बातचीत सुन रहा और छिपकर उस नक्शे को भी देख रहा था। जब उसने कहा कि 'ठीक है, मैं भी समझ गया' तब ये दोनों चौंके और घूमकर पीछे की तरफ देखने लगे मगर एक आदमी के भागने की आहट के सिवाय और कुछ भी मालूम न हुआ।

कल्याण - लीजिये श्रीगणेश हो गया, निःसन्देह वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों को हमारा पता लग गया।

शिवदत्त - बात तो ऐसी ही मालूम होती है, लेकिन कोई चिन्ता नहीं, देखो हम बन्दोबस्त करते हैं।

कल्याण - अगर हम ऐसा जानते तो आपके ऐयारों को दूसरा काम सुदुर्द करके आगे बढ़ने की राय कदापि न देते।

शिवदत्त - धन्नूसिंह को बुलाया चाहिए।

इतना कहकर शिवदत्त ने ताली बजाई मगर कोई न आया और न किसी ने कुछ जवाब दिया। शिवदत्त को ताज्जुब मालूम हुआ और उसने कहा, ''अभी तो हाथ में नंगी तलवार लिये यहां पहरा दे रहा था, चला कहां गया' कल्याणसिंह ने जफील बजाई जिसकी आवाज सुनकर कई सिपाही दौड़ आये और हाथ जोड़कर सामने खड़े हो गये। शिवदत्त ने एक सिपाही से पूछा, ''धन्नू कहां गया है!''

सिपाही - मालूम नहीं हुजूर, अभी तो इसी जगह पर टहल रहे थे।

शिवदत्त - देखो कहां है, जल्द बुलाओ।

हुक्म पाकर वे सब चले गए और थोड़ी ही देर में वापस आकर बोले, ''हुजूर करीब में तो कहीं पता नहीं लगता!''

शिव - बड़े आश्चर्य की बात है। उसे दूर जाने की आज्ञा किसने दी?

इतने ही में हांफता-हांफता धन्नूसिंह भी आ मौजूद हुआ जिसे देखते ही शिवदत्त ने पूछा, ''तुम कहां चले गये थे!''

धन्नू - महाराज कुछ न पूछिये, मैं तो बड़ी आफत में फंस गया था!

शिव - सो क्या! और तुम बदहवास क्यों हो रहे हो?

धन्नू - मैं इसी जगह पर घूम-घूमकर पहरा दे रहा था कि एक लड़के ने जिसे मैंने आज के सिवाय पहिले कभी देखा न था आकर कहा, ''एक औरत तुमसे कुछ कहा चाहती है।'' यह सुनकर मुझे ताज्जुब हुआ और मैंने उससे पूछा, ''वह औरत कौन है, कहां है और मुझसे क्या कहा चाहती है' इसके जवाब में लड़का बोला, ''सो सब-कुछ नहीं जानता, तुम खुद चलो और जो कुछ वह कहती है सुन लो, इसी जगह पास ही में तो है।'' इतना सुनकर ताज्जुब करता हुआ मैं उस लड़के के साथ चला और थोड़ी ही दूर एक औरत को देखा। (कांपकर) क्या कहूं ऐसा दृश्य तो आज तक मैंने देखा ही न था।

शिव - अच्छा-अच्छा कहो, वह औरत कैसी और किस उम्र की थी!

धन्नू - कृपानिधान वह बड़ी भयानक औरत थी। काला रंग, बड़ी-बड़ी और लाल आंखें, हाथ में लोहे का डंडा लिये हुए थी जिसमें बड़े-बड़े कांटे लगे थे और उसके चारों तरफ बड़े-बड़े और भयानक सूरत के कुत्ते मौजूद थे जो मुझे देखते ही गुर्राने लगे। उस औरत ने कुत्तों को डांटा जिससे वे चुप हो रहे मगर चारों तरफ मुझे घेरकर खड़े हो गये। डर के मारे मेरी अजीब हालत हो गई। उस औरत ने मुझसे कहा, ''अपने हाथ की तलवार म्यान में कर ले नहीं तो ये कुत्ते फाड़ खायेंगे।'' इतना सुनते ही मैंने तलवार म्यान में कर ली और इसके साथ ही वे कुत्ते कुछ दूर हटकर खड़े हो गए। (लंबी सांस लेकर) ओफ-ओह! इतने भयानक और बड़े कुत्ते मैंने आज तक नहीं देखे थे!!

शिव - (आश्चर्य और भय से) अच्छा-अच्छा आगे चलो, तब क्या हुआ?

धन्नू - डरते-डरते उस औरत से पूछा - ''आपने मुझे क्यों बुलाया?'

उस औरत ने कहा, ''मैं अपनी बहिन मनोरमा से मिला चाहती हूं, उसे बहुत जल्द मेरे पास ले आ!''

शिव - (आश्चर्य से) अपनी बहिन मनोरमा से!

धन्नू - जी हां, मुझे यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि मुझे स्वप्न में भी इस बात का गुमान न हो सकता था कि मनोरमा की बहिन ऐसी भयानक राक्षसी होगी! और महाराज, उसने आपको और कुंअर साहब को भी अपने पास बुलाने के लिए कहा।

कल्याण - (चौंककर) मुझे और महाराज को?

धन्नू - जी हां।

शिव - अच्छा तब क्या हुआ?

धन्नू - मैंने कहा कि तुम्हारा सन्देशा मनोरमा को अवश्य दे दूंगा, मगर महाराज और कुंअर साहब तुम्हारे कहने से यहां नहीं आ सकते।

कल्याण - तब उसने क्या कहा?

धन्नू - बस मेरा जवाब सुनते ही वह बिगड़ गई और डांटकर बोली, ''खबरदार ओ कम्बख्त! जो मैं कहती हूं वह तुझे और तेरे महाराज को करना ही होगा!!'' (कांपकर) महाराज, उसके डांटने के साथ ही एक कुत्ता उछलकर मुझ पर चढ़ बैठा। अगर वह औरत अपने कुत्ते को न डांटती और न रोकती तो बस मैं आज ही समाप्त हो चुका था! (गर्दन और पीठ के कपड़े दिखाकर) देखिए मेरे तमाम कपड़े उस कुत्ते के बड़े - बड़े नाखूनों की बदौलत फट गए और बदन भी छिल गया, देखिए यह मेरे ही खून से मेरे कपड़े तर हो गये हैं।

शिव - (भय और घबड़ाहट से) ओफ-ओह धन्नूसिंह, तुम तो जख्मी हो गये! तुम्हारे पीठ पर के कपड़े सब लहू से तर हो रहे हैं!!

धन्नू - जी हां महाराज, बस आज मैं काल के मुंह से निकलकर आया हूं, मगर अभी तक मुझे इस बात का विश्वास नहीं होता कि मेरी जान बचेगी।

कल्याण - सो क्यों?

धन्नू - जवाब देने के लिए लौटकर मुझे फिर उसके पास जाना होगा।

कल्याण - सो क्या! अगर न जाओ तो क्या हो क्या हमारी फौज में भी आकर वह उत्पात मचा सकती है?

इतने में ही दो-तीन भयानक कुत्तों के भौंकने की आवाज थोड़ी ही दूर पर आई जिसे सुनते ही धन्नूसिंह थर-थर कांपने लगा। शिवदत्त तथा कल्याणसिंह भी डरकर उठ खड़े हुए कांपते हुए और उस तरफ देखने लगे। उसी समय बदहवास और घबराई हुई मनोरमा भी वहां आ पहुंची और बोली, ''अभी मैंने भूतनाथ की सूरत देखी है, वह मेरी पालकी के पास आकर कह गया है कि 'आज तुम लोगों की जान लिये बिना मैं नहीं रह सकता'! अब क्या होगा! उसका बेखौफ यहां चले आना मामूली बात नहीं है!!''

(तेरहवां भाग समाप्त)

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