आज पांच दिन के बाद देवीसिंह लौटकर आये हैं। जिस कमरे का हाल हम ऊपर लिख आए हैं उसी में राजा वीरेंद्रसिंह, उनके दोनों लड़के, भैरोसिंह, तारासिंह और कई सरदार लोग बैठे हैं। इंद्रजीतसिंह की तबीयत अब बहुत अच्छी है और वे चलने-फिरने लायक हो गये हैं। देवीसिंह को बहुत जल्द लौट आते देखकर सभों को विश्वास हो गया कि जिस काम पर मुस्तैद किए गए थे उसे कर चुके मगर ताज्जुब इस बात का था कि वे अकेले क्यों आये!
वीरेंद्र - कहो देवीसिंह, खुश तो हो
देवी - खुशी तो मेरी खरीदी हुई है! (और लोगों की तरफ देखकर) अच्छा अब आप लोग जाइये बहुत विलंब हो गया।
दरबारियों और खुशामदियों के चले जाने के बाद वीरेंद्रसिंह ने देवीसिंह से पूछा -
वीरेंद्र - कहो उस अर्जी में जो कुछ लिखा था सच था या झूठ?
देवी - उसमें जो कुछ लिखा था बहुत ठीक था। ईश्वर की कृपा से शीघ्र ही उन दुष्टों का पता लग गया, मगर क्या कहें ऐसी ताज्जुब की बातें देखने में आईं कि अभी तक बुद्धि चकरा रही है।
वीरेंद्र - (हंसकर) उधर तुम ताज्जुब की बातें देखो इधर हम लोग अद्भुत बातें देखें।
देवी - सो क्या?
वीरेंद्र - पहले तुम अपना हाल कह लो तो यहां का सुनो!
देवी - बहुत अच्छा, फिर सुनिए! रामशिला पहाड़ी के नीचे मैंने एक कागज अपने हाथ से लिखकर चिपका दिया जिसमें यह लिखा था -
''हम खूब जानते हैं कि जो अग्निदत्त के विरुद्ध होता है उसका तुम लोग सिर काट लेते हो, जिसका घर चाहते हो लूट लेते हो। मैं डंके की चोट से कहता हूं कि अग्निदत्त का दुश्मन मुझसे बढ़कर कोई न होगा और गयाजी में मुझसे बढ़कर मालदार भी कोई नहीं है, तिस पर मजा यह है कि मैं अकेला हूं, अब देखना चाहिए तुम लोग क्या कर लेते हो'
आनंद - अच्छा तब क्या हुआ?
देवी - उन दुष्टों का पता लगाने के उपाय तो मैंने और भी कई किए थे मगर काम इसी से चला। उस राह से आने-जाने वाले सभी उस कागज को पढ़ते थे और चले जाते थे। मैं उस पहाड़ी के कुछ ऊपर जाकर पत्थर की चट्टान की आड़ में छिपा हुआ हरदम उसकी तरफ देखा करता था। एक दफे दो आदमी एक साथ वहां आये और उसे पढ़ मूंछों पर ताव देते शहर की तरफ चले गये। शाम को वे दोनों लौटे और फिर उस कागज को पढ़ सिर हिलाते बराबर की पहाड़ी की ओर चले गये। मैंने सोचा कि इनका पीछा जरूर करना चाहिए क्योंकि कागज के पढ़ने का असर सबसे ज्यादा इन्हीं दोनों पर हुआ। आखिर मैंने उनका पीछा किया और जो सोचा था वही ठीक निकला। वे लोग पंद्रह-बीस आदमी हैं और हट्टे-कट्टे और मुसण्डे हैं। उसी झुंड में मैंने एक औरत को भी देखा। अहा, ऐसी खूबसूरत औरत तो मैंने आज तक नहीं देखी। पहले मैंने सोचा कि वह इन लोगों में से किसी की लड़की होगी क्योंकि उसकी अवस्था बहुत कम थी, मगर नहीं, उनके हाव-भाव और उसकी हुकूमत भरी बातचीत से मालूम हुआ कि वह उन सभों की मालिक है, पर सच तो यह है कि मेरा जी इस बात पर भी नहीं जमता। उसकी चाल-ढाल, उसकी पोशाक और उसके जड़ाऊ कीमती गहनों पर जिसमें सिर्फ खुशरंग मानिक ही जड़े हुए थे ध्यान देने से दिल की कुछ विचित्र हालत हो जाती है।
मानिक के जड़ाऊ जेवरों का नाम सुनते ही कुंअर आनंदसिंह चौंक पड़े, इंद्रजीतसिंह और तारासिंह का भी चेहरा बदल गया और उस औरत का विशेष हाल जानने के लिए घबड़ाने लगे, क्योंकि उस रात को इन चारों ने इस कमरे में या यों कहिए कोठरी में जिस औरत की झलक देखी थी वह भी मानिक के जड़ाऊ जेवरों से ही अपने को सजाये हुए थी। आखिर आनंदसिंह से न रहा गया, देवीसिंह को बात कहते-कहते रोककर पूछा -
आनंद - उस औरत का नखशिख जरा अच्छी तरह कह जाइए।
देवी - सो क्या?
वीरेंद्र - (लड़कों की तरफ देखकर) तुम लोगों को ताज्जुब किस बात का है, तुम लोगों के चेहरे पर हैरानी क्यों छा गई है?
भैरो - जी, वह औरत भी जिसे हम लोगों ने देखा था ऐसे ही गहने पहने हुए थी जैसा चाचाजी कह रहे हैं।
वीरेंद्र - हैं
भैरो - जी हां।
देवी - तुम लोगों ने कैसी औरत देखी थी
वीरेंद्र - सो पीछे सुनना, पहले जो ये पूछते हैं उसका जवाब दे लो।
देवी - नखशिख सुन के क्या कीजियेगा, सबसे ज्यादा पक्का निशान तो यह है कि उसके ललाट में दो-ढाई अंगुल का एक आड़ा दाग है, मालूम होता है शायद उसने कभी तलवार की चोट खाई है!
आनंद - बस बस बस!
इंद्र - बेशक वही औरत है।
तारा - कोई शक नहीं कि वही है।
भैरो - अवश्य वही है!
वीरेंद्र - मगर आश्चर्य है, कहां उन दुष्टों का संग और कहां हम लोगों के साथ आपस का बर्ताव।
भैरो - हम लोग तो उसे दुश्मन नहीं समझते।
देवी - अब हम न बोलेंगे जब तक यहां का खुलासा हाल न सुन लेंगे, न मालूम आप लोग क्या कह रहे हैं
वीरेंद्र - खैर यही सही, अपने लड़के से पूछिए कि यहां क्या हुआ।
तारा - जी हां सुनिए मैं अर्ज करता हूं।
तारासिंह ने यहां का बिल्कुल हाल अच्छी तरह कहा। फूल तो फेंक दिए गए थे मगर गुलदस्ते अभी तक मौजूद थे, वे भी दिखाये। देवीसिंह हैरान थे कि यह क्या मामला है, देर तक सोचने के बाद बोले, ''मुझे तो विश्वास नहीं होता कि यहां वही औरत आई होगी जिसे मैंने वहां देखा है!''
वीरेंद्र - यह शक भी मिटा ही डालना चाहिए।
देवी - उन लोगों का जमाव वहां रोज ही होता है जहां मैं देख आया हूं, आज तारा या भैरो को अपने साथ ले चलूंगा, ये खुद ही देख लें कि वही औरत है या दूसरी।
वीरेंद्र - ठीक है, आज ऐसा ही करना, हां अब तुम अपना हाल और आगे कहो।
देवी - मुझे यह भी मालूम हुआ कि उन दुष्टों ने हमेशे के लिए अपना डेरा उसी पहाड़ी में कायम किया है और बातचीत से यह भी जान गया कि लूट और चोरी का माल भी वे लोग उसी ठिकाने कहीं रखते हैं। मैंने अभी बहुत खोज उन लोगों की नहीं की, जो कुछ मालूम हुआ था आपसे कहने के लिए चला आया। अब उन लोगों को गिरफ्तार करना कुछ मुश्किल नहीं है, हुक्म हो तो थोड़े से आदमी अपने साथ ले जाऊं और आज ही उन लोगों को उस औरत के सहित गिरफ्तार कर लाऊं।
वीरेंद्र - आज तो तुम भैरो या तारा को अपने साथ ले जाओ, फिर कल उन लोगों की गिरफ्तारी की फिक्र की जायगी।
आखिर भैरोसिंह को अपने साथ लेकर देवीसिंह बराबर के पहाड़ पर गए जो गयाजी से तीन-चार कोस की दूरी पर होगा। घूमघुमौवा और पेचीली पगडंडियों को तै करते हुए पहर रात जाते-जाते ये दोनों उस खोह के पास पहुंचे जिसमें बदमाश डाकू लोग रहते थे। उस खोह के पास ही एक और छोटी-सी गुफा थी जिसमें मुश्किल से दो आदमी बैठ सकते थे। इस गुफा में एक बारीक दरार ऐसी पड़ी हुई थी जिससे ये दोनों ऐयार उस लंबी-चौड़ी गुफा का हाल बखूबी देख सकते थे जिसमें वे डाकू लोग रहते थे। इस समय वे सब के सब वहां मौजूद भी थे, बल्कि वह औरत भी सरदारी के तौर पर छोटी-सी गद्दी लगाए वहां मौजूद थी। ये दोनों ऐयार उस दरार से उन लोगों की बातचीत तो नहीं सुन सकते थे मगर सूरत-शक्ल, भाव और इशारे अच्छी तरह देख सकते थे।
इन लोगों ने इस समय वहां पंद्रह डाकुओं को बैठे हुए पाया और उस औरत को देखकर भैरोसिंह ने पहचान लिया कि वह वही औरत है जो कुंअर इंद्रजीतसिंह के कमरे में आई थी। आज वह वैसी पोशाक या जेवरों को पहिरे हुए न थी, तो भी सूरत-शक्ल में किसी तरह का फर्क न था।
इन दोनों ऐयारों के पहुंचने के बाद दो घंटे तक वे डाकू आपस में कुछ बातचीत करते रहे, इस बीच में कई डाकुओं ने दो-तीन दफे हाथ जोड़कर उस औरत से कुछ कहा जिसके जवाब में उसने सिर हिला दिया जिससे मालूम हुआ कि मंजूर नहीं किया। इतने ही में एक दूसरी हसीन कमसिन और फुर्तीली औरत लपकती हुई वहां आ मौजूद हुई। उसके हांफने और दम फूलने से मालूम होता था कि वह बहुत दूर से दौड़ती हुई आ रही है।
उस नई आई औरत ने न मालूम उस सरदार औरत के कान में झुककर क्या कहा जिसके सुनते ही उसकी हालत बदल गई। बड़ी-बड़ी आंखें सुर्ख हो गईं, खूबसूरत चेहरा तमतमा उठा और तुरंत उस नई औरत को साथ ले उस खोह के बाहर चली गई। वे डाकू उन दोनों औरतों का मुंह देखते ही रह गये मगर कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी।
जब दो घंटे तक दोनों औरतों में से कोई न लौटी तो डाकू लोग भी उठ खड़े हुए और खोह के बाहर निकल गये। उन लोगों के इशारे और आकृति से मालूम होता था कि वे दोनों औरतों के यकायक इस तरह चले जाने से ताज्जुब कर रहे हैं। यह हालत देखकर देवीसिंह भी वहां से चल पड़े और सुबह होते-होते राजमहल में आ पहुंचे।