खिदमतगार ने किले में पहुंचकर और यह सुनकर कि इस समय दोनों राजा एक ही जगह बैठे हैं कुंअर इंद्रजीतसिंह के गायब होने का हाल और सबब जो कुंअर आनंदसिंह की जुबानी सुना था महाराज सुरेंद्रसिंह और वीरेंद्रसिंह के पास हाजिर होकर अर्ज किया। इस खबर के सुनते ही उन दोनों के कलेजे में चोट-सी लगी। थोड़ी देर तक घबड़ाहट के सबब कुछ सोच न सके कि क्या करना चाहिए। रात भी एक पहर से ज्यादे जा चुकी थी। आखिर जीतसिंह, तेजसिंह और देवीसिंह को बुलाकर खिदमतगार की जुबानी जो कुछ सुना था कहा और पूछा कि अब क्या करना चाहिए।
तेजसिंह - उस जंगल में इतनी औरतों का इकट्ठे होकर गाना-बजाना और इस तरह धोखा देना बेसबब नहीं है।
सुरेंद्र - जब से शिवदत्त के उभरने की खबर सुनी है एक खुटका-सा बना रहता है, मैं समझता हूं यह भी उसी की शैतानी है।
वीरेंद्र - दोनों लड़के ऐसे कमजोर तो नहीं हैं कि जिसका जी चाहे पकड़ ले।
सुरेंद्र - ठीक है मगर आनंद का भी वहां रह जाना बुरा ही हुआ।
तेज - बेचारा खिदमतगार जबर्दस्ती साथ हो गया था नहीं तो पता भी न लगता कि दोनों कहां चले गये। खैर उनके बारे में जो कुछ सोचना है सोचिए मगर मुझे जल्द इजाजत दीजिये कि हजार सिपाहियों को साथ लेकर वहां जाऊं और इसी वक्त उस छोटे से जंगल को चारों तरफ से घेर लूं, फिर जो कुछ होगा देखा जाएगा।
सुरेंद्र - (जीतसिंह से) क्या राय है
जीत - तेज ठीक कहता है, इसे अभी जाना चाहिए।
हुक्म पाते ही तेजसिंह दीवानखाने के ऊपर बुर्ज पर चढ़ गए जहां बड़ा-सा नक्कारा और उसके पास ही एक भारी चोब इसलिए रखा हुआ था कि वक्त-बेवक्त जब कोई जरूरत आ पड़े और फौज को तुरंत तैयार करना हो तो इस नक्कारे पर चोब मारी जाय। इसकी आवाज भी निराले ढंग की थी जो किसी नक्कारे की आवाज से मिलती न थी और इसे बजाने के लिए तेजसिंह ने कई इशारे भी मुकर्रर किए हुए थे।
तेजसिंह ने चोब उठाकर जोर से एक दफे नक्कारे पर मारा जिसकी आवाज तमाम शहर में बल्कि दूर-दूर तक गूंज गई। चाहे इसका सबब किसी शहर वाले की समझ में न आया हो मगर सेनापति समझ गया कि इसी वक्त हजार फौजी सिपाहियों की जरूरत है जिसका इंतजाम उसने बहुत जल्द किया।
तेजसिंह अपने सामान से तैयार हो किले के बाहर निकले और हजार सिपाही तथा बहुत से मशालचियों को साथ ले उस छोटे से जंगल की तरफ रवाना होकर बहुत जल्दी ही वहां जा पहुंचे।
थोड़ी-थोड़ी दूर पर पहरा मुकर्रर करके चारों तरफ से उस जंगल को घेर लिया। इंद्रजीतसिंह तो गायब हो ही चुके थे, आनंदसिंह के मिलने की बहुत तरकीब की गई मगर उनका भी पता न लगा। तरद्दुद में रात बिताई, सबेरा होते ही तेजसिंह ने हुक्म दिया कि एक तरफ से इस जंगल को तेजी के साथ काटना शुरू करो जिसमें दिन भर में तमाम जंगल साफ हो जाय।
उसी समय महाराज सुरेन्दसिंह और जीतसिंह भी वहां आ पहुंचे। जंगल का काटना इन्होंने भी पसंद किया और बोले कि ''बहुत अच्छा होगा अगर हम लोग इस जंगल से एकदम ही निश्चिंत हो जायें।''
इस छोटे जंगल को काटते देर ही कितनी लगनी थी, तिस पर महाराज की मुस्तैदी के सबब यहां कोई भी ऐसा नजर नहीं आता था जो पेड़ों की कटाई में न लगा हो। दोपहर होते-होते जंगल कट के साफ हो गया मगर किसी का कुछ पता न लगा यहां तक कि इंद्रजीतसिंह की तरह आनंदसिंह के भी गायब हो जाने का निश्चय करना पड़ा। हां, इस जंगल के अंत में एक कमसिन नौजवान हसीन और बेशकीमती गहने-कपड़े से सजी हुई औरत की लाश पाई गई जिसके सिर का पता न था।
यह लाश महाराज सुरेंद्रसिंह के पास लाई गई। सभों की परेशानी और बढ़ गई और तरह-तरह के खयाल पैदा होने लगे। लाचार उस लाश को साथ ले शहर की तरफ लौटे। जीतसिंह ने कहा, ''हम लोग जाते हैं, तारासिंह को भेज सब ऐयारों को जो शिवदत्त की फिक्र में गए हुए हैं बुलवाकर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह की तलाश में भेजेंगे, मगर तुम इसी वक्त उनकी खोज में जहां तुम्हारा दिल गवाही दे जाओ।''
तेजसिंह अपने सामान से तैयार ही थे, उसी वक्त सलाम कर एक तरफ को रवाना हो गए, और महाराज रूमाल से आंखों को पोंछते हुए चुनार की तरफ बिदा हुए।
उदास और पोतों की जुदाई से दुखी महाराज सुरेंद्रसिंह घर पहुंचे। दोनों लड़कों के गायब होने का हाल चंद्रकांता ने भी सुना। वह बेचारी दुनिया के दुख-सुख को अच्छी तरह समझ चुकी थी इसलिए कलेजा मसोसकर रह गई, जाहिर में रोना-चिल्लाना उसने पसंद न किया, मगर ऐसा करने से उसके नाजुक दिल पर और भी सदमा पहुंचा, घड़ी भर में ही उसकी सूरत बदल गई। चपला और चंपा को चंद्रकांता से कितनी मुहब्बत थी इसको आप लोग खूब जानते हैं लिखने की कोई जरूरत नहीं। दोनों लड़कों के गायब होने का गम इन दोनों को चंद्रकांता से ज्यादे हुआ और दोनों ने निश्चय कर लिया कि मौका पाकर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह का पता लगाने की कोशिश करेंगी।
महाराज सुरेंद्रसिंह के आने की खबर पाकर वीरेंद्रसिंह मिलने के लिए उनके पास गए। देवीसिंह भी वहां मौजूद थे। वीरेंद्रसिंह के सामने ही महाराज ने सब हाल देवीसिंह से कहकर पूछा कि ''अब क्या करना चाहिए'
देवी - मैं पहले उस लाश को देखना चाहता हूं जो उस जंगल में पाई गई थी।
सुरेंद्र - हां तुम उसे जरूर देखो।
जीत - (चोबदार से) उस लाश को जो जंगल में पाई गई थी इसी जगह लाने के लिए कहो।
''बहुत अच्छा'', कहकर चोबदार बाहर चला गया मगर थोड़ी ही देर में वापस आकर बोला, ''महाराज के साथ आते-आते न मालूम वह लाश कहां गुम हो गई। कई आदमी उसकी खोज में परेशान हैं मगर पता नहीं लगता!''
वीरेंद्र - अब फिर हम लोगों को होशियारी से रहने का जमाना आ गया। जब हजारों आदमियों के बीच से लाश गुम हो गई तो मालूम होता है अभी बहुत कुछ उपद्रव होने वाला है।
जीत - मैंने तो समझा था कि अब जो कुछ थोड़ी-सी उम्र रह गई है आराम से कटेगी मगर नहीं, ऐसी उम्मीद किसी को कुछ भी न रखनी चाहिए।
सुरेंद्र - खैर जो होगा देखा जायगा, इस समय क्या करना मुनासिब है इसे सोचो।
जीत - मेरा विचार था कि तारासिंह को बद्रीनाथ वगैरह के पास भेजते जिससे वे लोग भैरोसिंह को छुड़ाकर और किसी कार्रवाई में न फंसें और सीधे चले आवें, मगर ऐसा करने को भी जी नहीं चाहता। आज भर आप और सब्र करें, अच्छी तरह सोचकर कल मैं अपनी राय दूंगा।