बगल के लोखंडे आंटी के यहां पूजा अर्चना हो या अंकल के साथ पूजा अर्चना हर काम मे शुरू से ही तल्लीन थी रानी । अक्सर मराठी आरती को सुनते हुए वह उसके तरन्नुम में खुद को समवेत कर लेती थी । हालांकि मराठी भजनों के शब्दशः मायने तो उस छोटी उम्र में नही समझ आते थे ,लेकिन वो कहते है ना भक्ति ज्ञान से ज्यादा भाव से की जाती है तो बस पूरी तन्मयता से पाठों को सुनती हुई आंटी की ही तरह वो भी देखादेखी अंकल के चरण स्पर्श करती और उसकी श्रद्धा देखकर मानो लोखंडे दंपती अपना पूरा आशीर्वाद लुटा बैठते ।

 

कृषि विभाग में बड़े पद पर कार्यरत पढ़े लिखे पिता से ज्यादा दसवीं पास माँ ने बेटी की पढ़ाई लिखाई करवायी । हिंदी माध्यम से प्रारम्भिक शिक्षा लेने के बाद बोर्ड तक आते आते जैसे बालिका पढ़ाई से सहमी रहने लगी । उस दौर में आठवी की परीक्षा बोर्ड से हुआ करती थी । और पहली और शायद आखिरी बार भविष्य की डॉ रानी को आधे से भी कम नंबर मिले । पिता की झिड़की और डांट के बाद जैसे उस किशोरी बालिका ने तय कर लिया कि अब करके दिखाऊंगी ,बेटी हूँ तो क्या लड़ के दिखाऊंगी । 10वी प्रथम श्रेणी में और 12वी तक आते आते रानी ने 80 प्रतिशत से ज्यादा नंबर हासिल किए । पिता को शायद पहली बार अपनी इस उपेक्षित बेटी पर गर्व महसूस हो रहा था । हालांकि इस सफलता के पीछे छिपी थी दिन रात की उसकी मेहनत और कुछ करने की जिजीविषा । घर की छत हो या कोई कोना , दिन रात किताबों में उसने खुद को मानो घोल दिया था , सो नतीजा भी मिला । शायद आज की डॉ रानी की बुनियाद यही से बननी शुरू हो चुकी थी । पूत के पांव पालने में दिखने लगे थे , आशाएँ पलने लगी थी । हर मध्यम वर्गीय परिवार की तरह मेधावी छात्रों के लिए जो एक स्वप्न पलता है वो होता है डॉक्टर बनने का स्वप्न । पर उसकी कामयाबी कितना कुछ मांगती है वो खुद इस किरदार का संघर्ष ही बताएगा । इतनी मेधावी छात्रा होने के बाद भी रानी ने कैसे अन्य विकल्पों में जाकर भी अपने स्वप्निल कोर्स एम.बी.बी.एस. में एडमिशन लिया ये किसी सस्पेंस स्टोरी से कम नही । आगे हम देखेंगे कि नियति से मिलन भी मेहनत और स्पष्ट नीयत ही कराती है । फिर यदि सब कुछ सपाट और सरल हो तो कहानी ही कहाँ , आगे देखेंगे कैसे रानी ने छोटे छोटे कई विकल्पों में उलझने के बाद डॉक्टर बनने के रास्ते को चुना ~जारी ~

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