किसी गाँव में धनराज नामक एक बनिया रहता था। एक दिन वह हाट गया और आठ बजे रात को लौटा। घर पहुँचते ही बाहर चबूतरे पर बैठ कर वह जोर जोर से चिल्लाने और छाती पीटने लगा।

 

उसी समय गाँव का पटवारी उधर से जा रहा था। उसने यह सब देख कर पूछा-


'क्या बात है ? क्यों इस तरह छाती पीट रहे हो?'

 

यह सुन कर धनराज ने कहा-

 

‘क्या कहूँ पटवारी जी! मैंने हफ्ते भर बिक्री करके सौ रुपए की रेजकी जमा की थी। हाट में ले जाकर उसे रुपए बना लिए और एक थैली में डाल दिए। रेजकी से जो पैसे मिले उनसे परवल, गोभी, आलू आदि साग-सब्जी खरीद कर दूसरी थैलियों में डालीं। इतने में मुझे अपने गाँव आने वाली  बैल-गाड़ियाँ दिखाई दी। गाड़ीवानों से बात कर मैं एक गाड़ी पर चढ़ गया। गाड़ी पर चढ़ते ही नींद के मारे ऊँघने लगा। घर पहुँच कर जब मैं नीचे उतरा और अपनी थैलियाँ उतारने लगा, तब देखने में आया कि तरकारियों की थैलियाँ तो वहाँ थीं। परंतु रुपयों की थैली न जाने कहाँ गिर गई थी! क्या मालूम, किस साइत में गाड़ी पर चढ़ा था कि हफ्ते भर की पसीने की कमाई खो गई।' धनराज यह कह कर फिर जोर से रोने लगा।

 

यह सुन कर पटवारी ने उसे दाढ़स देते हुए कहा—

 

'तुम्हारी थैली सड़क पर कहीं गिर गई होगी। कल सबेरे आस-पड़ोस के सभी गाँवों में डिगडिगिया पिटवा दो कि मेरी रुपयों की थैली कहीं खो गई है। जो कोई ;उसे लाकर मुझे सौंप देगा उसे मैं दस रुपए ईनाम दूंगा।' तुम्हारी नसीब अच्छी होगी तो थैली मिल जाएगी।

 

'अरे, दस रुपए की बात क्या करते हैं आप! जो थैली ला देगा उसे मैं पच्चीस रुपए दूंगा। नहीं मानेगा तो पचास भी दे दूंगा। मैं ईनाम देने में हिचकूँगा नहीं।' धनराज ने जवाब दिया।

 

'पहले दस रुपए की बात कहो। पीछे जैसा होगा देखा जाएगा।' पटवारी ने कहा।

 

दूसरे दिन सबेरे उठते ही धनराज ने आस- पड़ोस के सभी गाँवों में डिगडिगिया पिटवा दी।

पड़ोस के ही एक गाँव में चबूतरे पर बैठ कर जनेऊ बाँटने वाले एक गरीब ब्राह्मण ने जब थैली की बात सुनी, तो वह उठ कर अन्दर गया और अपनी स्त्री से बोला-

 

‘कल मुझे जो थैली मिली थी, मालूम होता है वह एक बनिए की थी। अगर मैं उसे सौंप दूं तो दस रुपए ईनाम मिलेंगे। कहाँ रखी है थैली? मुझे दे दो! जाकर ईनाम ले आता हूँ !'

स्त्री ने जवाब दिया-

 

'यह' कैसी अक्लमन्दी है? जो थैली हमें मिल गई उसे फिर लौटाएँ क्यों ?

 

‘अरे! हमें दस रुपए ईनाम मिलेंगे। थैली हम मुफ्त में नहीं लौटा रहे हैं !' ब्राह्मण ने कहा।

 

 

'कैसी नादानी की बातें करते हैं आप? चुप्पी साध लीजिए। बस, थैली अपनी हो जाएगी! क्या दस रुपयों के लिए थैली भर रुपए दे दीजिएगा!' स्त्री ने कहा।

 

लेकिन ब्राह्मण बड़ा ईमानदार था। उसने कहा-

 

'पराया धन जान-बूझ कर हड़प जाना चोरी है। थैली दे दे! मैं थैली लौटा कर ईनाम ले आता हूँ।' इस पर स्त्री ने थैली लाकर गुस्से से उसके सामने पटक दी।

 

ब्राह्मण वह थैली लेकर बनिए के घर गया।

 

'लालाजी! सड़क से जा रहा था कि यह थैली मेरे पैरों में लगी और मैं गिरते गिरते बचा। थैली उठा कर देखी तो मालूम हुआ कि उसमें रुपए हैं। आज सवेरे ढिंढ़ौरा सुना. तो मालूम हुआ कि थैली तुम्हारी है। तुम्हारा माल तुमको सौंपने चला आया। लो, थैली लो और मेरा ईनाम दो!' ब्राह्मण ने धनराज से कहा।

 

रुपयों की थैली देखते ही बनिए को बहुत खुशी हुई। उसने थैली खोल कर रुपए गिन लिए। सौ रुपए ज्यों के त्यों पड़े थे। अब सिर्फ़ ब्राह्मण को दस रुपए ईनाम देना था। लेकिन रुपए देखते ही बनिए की नीयत बिगड़ गई। उसने सोचा-

 

'रुपए तो मिल ही गए। अब क्यों नाहक इस ब्राह्मण को दस रुपए दूँ?' इसलिए उसने कहा-

 

'पण्डित जी ! इस थैली में कुल एक सौ दस रुपए होने चाहिए। लेकिन गिनने पर सौ ही होते हैं। मालूम होता है, आपने अपना ईनाम पहले ही ले लिया है!'

 

यह सुनते ही ब्राह्मण बेचारे पर बिजली टूट पड़ी। उसके मुँह से बात तक न निकली और वह अपना सा मुँह लेकर घर लौट चला। लेकिन जाते वक्त राह में उसे पटवारी जी दिखाई दिए। उन्होंने ब्राह्मण का मुँह देखते ही पूछा-

 

‘बात क्या है?'

 

तब ब्राह्मण ने सारा किस्सा उन्हें कह सुनाया। बनिए की धोखे-बाजी की बात सुन कर पटवारी को बहुत क्रोध आया। उन्होंने ब्राह्मण से कहा-

‘आप जाकर गाँव के पटेल से फरियाद कर दीजिए। वे आपके ईनाम के रुपए आपको दिला देंगे।'

 

तुरन्त ब्राह्मण ने जाकर पटेल से अपनी राम-कहानी कह सुनाई। पटेल बहुत होशियार आदमी था। उसने तुरन्त सच्ची बात जान ली और बनिए को बुलवा कर कहा-

 

'ब्राह्मण के ईनाम के रुपए उसे दे दो।'

 

लेकिन बनिया साफ इनकार कर गया। उसने कहा-

 

'मेरी थैली में कुल एक सौ दस रुपए थे। ब्राह्मण ने मुझे सिर्फ़ सौ ही लाकर दिए। इससे स्पष्ट है कि ब्राह्मण ने अपने ईनाम के रुपए पहले ही ले लिए ये। अब मैं इसे एक पैसा भी नहीं दे सकता।'

 

बनिए ने फिर वही पुराना किस्सा दुहरा दिया। तब पटेल ने पूछा-

 

'अच्छा धनराज! इस ब्राह्मण ने जो थैली तुम्हें लाकर दी उसमें सौ ही थे न ?' जी हाँ! मैंने उसके सामने ही गिने थे!' बनिए ने जवाब दिया।

 

तब पटेल ने यों फैसला दे दिया-

 

'तुम दोनों ही अपनी अपनी बात पर कसम खा रहे हो। इसलिए मुझे दोनों की बात पर विश्वास करना होगा। जो थैली खो गई थी उसमें कुल एक सौ दस रुपए थे। लेकिन जो थैली ब्राह्मण को मिली है उसमें सिर्फ़ सौ ही रुपए हैं। इससे साफ है कि जो थैली ब्राह्मण को मिली है वह तुम्हारी नहीं है।

 

‘पण्डित जी! आप यह थैली ले जाइए। अब कोई आकर सौ रुपए वाली थली माँगेगा तो आप उसे यह दे दीजिएगा।‘

 

‘धनराज! अब तुम भी जाओ! अगर किसी को तुम्हारी एक सौ दस रुपए की थैली मिलेगी तो वह लाकर तुम्हें दे देगा।'

 

यह फैसला सुना कर पटेल ने दोनों को वहाँ से भेज दिया। इस तरह पटेल ने ब्राम्हण कोण न्याय दिलाया और धनराज हाथ मलते रह गया.

 

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