बड़े-बड़े मकानों, बड़ी-बड़ी दूकानों, लंबी-चौड़ी सड़कों, एक से एक बढ़ के कारखानों और रोजगारियों की बहुतायत ही के सबब से नहीं, बल्कि अँगरेजों की कृपा से सैर तमाशे का घर बने रहने और समुद्र का पड़ोसी होने तथा जहाजी तिजारत की बदौलत आला दरजे की तरक्‍की पाते रहने के कारण इस समय कलकत्‍ता शहर जितना मशहूर और लक्ष्‍मी के कृपापात्रों का घर हो रहा है उतना बम्‍बई के सिवा और कोई दूसरा शहर नहीं। साथ ही इसके इस शहर में जैसे अमीरों और बड़ी-बड़ी सड़कों और मकानों की भरमार है उसी तरह मजदूरी पेशे वाले, दीन-लाचार तथा और तरह से औकात गुजारी करने वाले गरीबों और उनके रहने वाले छोटे-छोटे तंग, गंदे और पुराने मकानों तथा उसी ढब की गंदी गलियों की भी कमी नहीं है। अस्‍तु इस समय हम कलकत्ते की खूबी और खराबी का बयान करने के लिए तैयार नहीं है जो यहाँ का खुलासा हाल लिखकर पाठकों का अमूल्‍य समय नष्‍ट करें, बल्कि वहाँ के एक छोटे से फैक्‍ट को लिखकर पाठकों को एक अनूठा रहस्‍य दिखाना चाहते हैं।

कलकत्ते की एक तंग, अँधेरी और गंदी गली के अंदर पुराने और छोटे से मकान की नीचेवाली कोठड़ी में एक औरत को फटे-पुराने आसन पर बैठे हुए परमात्‍मा के ध्‍यान में निमग्‍न देख रहे हैं। इस मकान में यद्यपि इसी की तरह और भी कई गरीब किरायेदार रहते हैं और उनकी बातचीत तथा आपुस में झगड़े तकरार के कारण इस समय मकान में कोलाहल-सा हो रहा है मगर उस औरत का चित्त किसी तरह हिलता हुआ दिखाई नहीं देता और वह आँखें बंद किए माला जपती अपने ध्‍यान में लगी हुई है और उस कोठड़ी का दरवाजा अधखुला-सा दिखाई दे रहा है।

जब हम उसके सामान की तरफ ध्‍यान देते हैं तब उस औरत की गरीबी और लाचारी का अंदाजा सहज ही में मिल जाता है। एक कोने में फटे-पुराने कपड़े की छोटी अधखुली-सी गठड़ी, दूसरे कोने में पानी की एक ठिलिया और उसके पास ही छोटा-सा पीतल का गिलास पड़ा है। ऊपर की तरफ एक किल्‍ली के सहारे काली पेंदी की हाँडी टँगी हुई है, जिससे मालूम होता था कि यही हाँडी नित्‍य चूल्‍हे पर चढ़ा करती है। पानी वाले घड़े के दाहिनी तरफ चूल्‍हा और उसके सहारे छोटी-छोटी दो रिकबियाँ रखी हैं, वे भी साबुत नहीं है। बायीं तरफ (जहाँ औरत बैठी है) मिट्टी का छोटा-सा चौकूठा चबूतरा बना है जिस पर तुलसी जी का एक पेड़ है जिसके सामने वह औरत बैठी हुई इस कंगाली की अवस्‍था में भी बेफिकरी के साथ उपासना कर रही है और उसके पास ही एक चक्‍की भी गड़ी हुई है।

इतना होने पर भी उस कोठड़ी में किसी तरह की गंदगी या मैलापन नहीं है, गोबर से लीपकर तमाम जमीन साफ और सुथरी बनाई हुई है।

स्‍त्री का जप पूरा हुआ और वह तुलसी जी को प्रणाम कर हाथ की माला रक्‍खा ही चाहती थी कि कोठड़ी का दरवाजा खुला और एक आठ या नौ वर्ष का बालक अंदर आता हुआ दिखाई दिया।

बालक, "माँ ! तू पूजा कर चुकी?"

स्‍त्री, "हाँ बेटा कर चुकी।"

बालक, "बाहर हरी खड़ा है। कहता है, पाठशाला में जाने का समय हो गया। मुझे भूख लगी है; बिना खाए मैं पाठशाला में कैसे जाऊँ?"

स्‍त्री, "(लंबी साँस लेकर और माला रखकर) बेटा आज तो कुछ खाने को नहीं है, मैं दो-तीन जगह गई थी, कहीं से गेहूँ भी नहीं मिला जो पीसकर दे आती और मजूरी के दो पैसे लेकर तेरे खाने का इंतजाम करती। नवीन की माँ ने गेहूँ देने के लिए दस बजे बुलाया था सो अब मैं जाती हूँ।"

बालक, "तो मैं पाठशाला में न जाऊँगा। मुझे बड़ी भूख लगी है। तू तो दिन-रात पूजा ही किया करती है, खाने को तो लाती नहीं।"

स्‍त्री, "बेटा क्‍या करूँ! तेरे ही लिए तो दिन-रात पूजा किया करती हूँ। ठाकुरजी से तेरे खाने के लिए माँगती हूँ।"

बालक, "क्‍या" तेरे माँगने से ठाकुरजी खाने को दे देंगे?"

स्‍त्री, "क्‍यों न देंगे? तमाम दुनिया को देते हैं तो क्‍या मुझी को न देंगे?"

बालक, "तो देते क्‍यों नहीं? मुझे बता ठाकुर जी कहाँ हैं, मैं भी उनसे माँगूँ।"

स्‍त्री, "(डबडबाई आँखों से) ठाकुरजी बड़ी दूर रहते हैं, इसी से मेरी आवाज अभी तक उन्‍होंने नहीं सुनी।"

बालक, "तो दूसरे की आवाज कैसे सुनते हैं जिन्‍हें खाने को देते हैं?"

स्‍त्री, "(कुछ सोचकर) रोज-रोज के पुकारने से सुन ही लेते है। और जब सुन लेते हैं तो सब कुछ देते हैं।"

बालक, "हलुआ, जलेबी, लड्डू पेड़ा सब कुछ देते हैं?"

स्‍त्री," हॉँ बेटा, सब कुछ देते हैं।" इतना कहकर स्‍त्री ने पूजा समाप्‍त की और लड़के को गोद में लेकर आँचल से उसका मुँह पोंछने लगी और लड़के ने पुन: उससे पूछना शुरू किया।

बालक, "हाँ माँ, तो तू ठाकुरजी का ठिकाना तो बता दे।"

स्‍त्री, "बेटा! ठाकुर जी बैकुण्‍ठ में रहते हैं। वह सब राजों के राजा हैं, उनका ठिकाना क्‍या?"

बालक, "बैकुण्‍ठ कैसा है?"

स्‍त्री, "बैकुण्‍ठ बड़ा भारी मकान है। चारों तरु हीरा-पन्‍ना, जवाहिरात जड़े है। वहाँ बड़ा आनंद रहता है।"

बालक, "हमेलटीन कंपनी की दुकान से भी ज्‍यादे सजा हुआ है? वहाँ मैं नवीन भैया के साथ गया था। खूब देखा, मगर चपरासी ने भीतर जाने नहीं दिया कान पकड़ के निकाल दिया।"

स्‍त्री, "बेटा, मैं क्‍या जानूँ हमेलटीन कौन है और उसकी दुकान कहाँ है, पर ठाकुर जी के बराबर दुनिया में किसी का मकान न होगा।"

बालक, "ठाकुरजी का नाम 'ठाकुरजी' ही है या काई और भी है? जैसे मेरा नाम गोपाल भी है, लल्‍लो भी है।"

स्‍त्री, "हाँ बेटा, तुम्‍हारे तो दो ही नाम हैं मगर उनके हजारों नाम हैं।"

बालक, "सबसे बड़ा नाम उनका कौन है?"

स्‍त्री, "लक्ष्‍मीनाथ । अच्‍छा बेटा, अब तू जरा यहाँ बैठ, मैं नवीन की माँ के पास से जा के पीसने के लिए गेहूँ ले आऊँ, तब तेरे खाने-पीने का भी बंदोबस्‍त करूँ। आज तू पाठशाले मत जा, कल जाइयो।"

बालक, "अच्‍छा माँ, तू जा, मैं यहाँ बैठा-बैठा लिखूँगा-पढूँगा। मगर मुझे पानी पिलाती जा, कुछ तो पेट भर जाएगा।"

स्‍त्री की आँखें अच्‍छी तरह डबडबा आयीं। मगर उसने जल्‍दी से आँखें पोंछ डालीं जिससे गोपाल को मालूम न हो और पानी पिलाकर घर के बाहर निकल गई।

सन्‍ध्‍या होने में अभी दो घण्‍टे की देर है। कलकत्ते के बाजारों की रौनक पल-पल में बढ़ती जाती है। और बाजारों को छोड़कर हम अपने पाठकों को उस बाजार में ले चलते हैं। जिसकी दोनों मंजिलें सैर-तमाशे के शौकीनों के दिल में ठण्‍डक देने और मनचलों की झुकी हुई गदरनें ऊपर की तरफ उठा देने वाली हैं। इसी बाजार में हम एक दोहरे टपवाली (लैण्‍डो) फिटिन, जिसके आगे बैलों की जोड़ी जुती हुई है, धीरे-धीरे जाते देखते हैं।

इस गाड़ी में एक अधेड़ उम्र का रईस बैठा हुआ है और उसके सामने की तरफ दो आदमी (जो उसके आश्रित होंगे) भी बैठे कभी-कभी कुछ बातें करते जाते हैं, रईस की निगाह दोनों तरफ की दुकानों और कोठों पर पड़कर उसके दिल में तरह-तरह के भाव पैदा करते जाते थे। अकस्‍मात् उस रईस की निगाह एक बालक के ऊपर जा पड़ी, जो सड़क के किनारे पर रखे हुए एक लेटर बाक्‍स के अंदर चीठी डालने का उद्योग कर रहा था, मगर उसके मुँह तक हाथ न जाने के कारण वह बहुत ही दु:खी होकर तरह-तरह की तरकीबें कर रहा था। धीरे-धीरे यह फिटिन भी उसके पास तक जा पहुँची और उस लड़के की सूरत-शक्‍ल तथा इस समय की अवस्‍था पर रईस को बड़ी दया आई। उसने समझा कि यह गरीब लड़का, जिसके बदन पर सा‍बुत कपड़ा तक नहीं है, शायद किसी दुकानदार का शागिर्द या नौकर है और उसीने इस बेचारे को इसकी सामर्थ्‍य से बाहर काम करने की आज्ञा दी है और यह बेचारा डर के मारे अपना काम पूरा किए बिना यहाँ से टलना नहीं चाहता। रईस ने अपने एक मुसाहब को जो उसके सामने की तरफ बैठा हुआ था, गाड़ी से नीचे उतरकर उस लड़के की कठिनाई को दूर करने का इशारा किया। गाड़ी खड़ी की गई और वह मुसाहब नीचे उतरकर लड़के के पास गया। बोला, "ला तेरी चीठी मैं इस बम्‍बे में डाल दूँ।" इसके जवाब में लड़के ने सलाम करके चीठी उसके हाथ में दे दी। मुसाहब की निगाह जब लिफाफे पर पड़ी तो चौंक पड़ा और वह लिफाफा रईस के पास नाम दिखाने के लिए ले आया। लड़के को यह बात कुछ बुरी मालूम हुई क्‍योंकि उसे अपनी चीठी के छिन जाने का भय हुआ। इसलिए वह भी उस मुसाहब के पीछे-पीछे गाड़ी के पास तक चला आया और रोनी सूरत से उस रईस के मुँह की तरफ देखने लगा। उसकी इस अवस्‍था पर रईस का दिल और भी हिल गया। उसने लिफाफे पर एक नजर डालने के बाद उस लड़के से कहा, "डरो मत, हम तुम्‍हारी चीठी ले न लेंगे, इस पर पता ठीक-ठीक नहीं लिखा है इसीसे यह आदमी मुझे दिखाने के लिए ले आया है। कहो तो मैं इस पर अँग्रेजी में पता लिख दूँ, जिसमें चीठी जल्‍द ठाकुर जी के पास पहुँच जाए।" लड़के ने खुश होकर कहा, "हाँ, लिख दीजिए।"

उस चीठी पर यह लिखा हुआ था-श्री ठाकुरजी महाराज लक्ष्‍मीनाथ के पास चीठी पहुँचे।

स्‍थान - बैकुण्‍ठ।

रईस ने अँग्रेजी में उस पर यह लिख दिया - M. PRATAP NARAIN HARRISON ROAD, Calcutta.

लड़का अँग्रेजी नहीं जानता था इसलिए वइ इस बात को कुछ समझ न सका।

इसके बाद रईस ने उस लड़के से, जो बातचीत करने में बहुत तेज और ढीठ भी था, पूछा, "तुम्‍हारा मकान कहाँ पर है?"

लड़का, "(हाथ का इशारा करके) उस तरफ, बड़ी दूर है।"

रईस, "(प्‍यार से उसका हाथ पकड़ के) आओ हमारी गाड़ी पर बैठ जाओ, हम तुम्‍हें तुम्‍हारे घर तक पहुँचा देंगे।"

लड़का गाड़ी पर सवार हो गया। रईस ने उसे अपने बगल में बैठा लिया, गाड़ी पुन: धीरे-धीरे रवाना हुई और रईस तथा उस लड़के में यों बातचीत होने लगी-

रईस, "यह चीठी तुमने अपने हाथ से लिखी है?"

लड़का, "हाँ"

रईस, "किसके कहने से लिखी है?"

लड़का, "अपनी खुशी से।"

रईस, "तुमने कैसे जाना कि ठाकुर जी किसी का नाम है?"

लड़का, "मेरी माँ रोज उनकी पूजा किया करती है। उसी से मैंने सब कुछ पूछा था।"

रईस, "तुम्‍हारी माँ ने तुम्‍हें धोख दिया।"

लड़का, "मेरी माँ कभी झूठ नहीं बोलती, सब कोई कहते हैं कि लल्‍लो की माँ झूठ नहीं बोलती।"

रईस, "तो क्‍या यह चीठी तुमने अपनी माँ से छिपा के लिखी है?"

लड़का, "हाँ (रोनी सूरत से) अगर मेरी माँ सुनेगी तो मुझे मारेगी ….. "

रईस, "(लड़के की पीठ पर हाथ फेर के) नहीं-नहीं, तुम डरो मत। हम तुम्‍हारी माँ से यह हाल न कहेंगे। हमारा कोई आदमी भी ऐसा न करेगा। अच्‍छा यह तो बताओ कि चीठी में तुमने क्‍या लिखा है?"

इसका जवाब लड़के ने कुछ भी न दिया। रईस ने दो-तीन दफे यही बात पूछी मगर कुछ जवाब न पाया। आखिर यह सोचकर चुप हो रहा कि आखिर वह चीठी मेरे यहाँ पहुँचेगी क्‍योंकि मैंने उस पर अपना पता लिख दिया है, अस्‍तु जो कुछ उसमें होगा मालूम हो जाएगा।

इतने ही में लड़का चौंक पड़ा और गद्दी पर से कुछ उठकर बोला, "वह मेरी गली आ गयी, मुझे उतार दो।"

रईस की आज्ञानुसार गाड़ी खड़ी की गयी और वह लड़का उतरकर अपने उसी मकान में चला गया जिसका परिचय हम पहिले बयान में दे आये हैं। मगर रईस का इशारा पाकर उसका एक आदमी लड़के के पीछे-पीछे गया और उसका मकान अच्‍छी तरह देख-भाल आया। इसके बाद गाड़ी वहाँ रवाना होकर तेजी के साथ एक तरफ को चली गयी।

हमारे परिचित रईस महाराज कुमार प्रतापनारायण की अवस्‍था आज कुछ निराले ही ढंग की हो रही है। वह ऊँचे दर्जे का अमीर और जमींदार था, वह हर तरह की खुशी का सामान अपने चारों तरु देखता था और बिना औलाद के रहकर भी वह दिन-रात अपने को प्रसन्‍न रखता था। मगर आज मालूम होता है कि उसकी तमाम बनावटी खुशियों का खून हो गया है और उसके अंदर किसी सच्‍ची खुशी का दरिया जोश मार रहा है, जिसके सबब से उसकी बड़ी-‍बड़ी आँखें प्रेम के आँसुओं का सोता बहा रही हैं। गोपाल लड़के के हाथ की लिखी हुई कल वाली चीठी जिस पर उसने अपना पता लिखकर डाक के बम्‍बे में छुड़वा दिया था, उसके हाथ में थी और वह अपने कमरे में अकेला बैठा हुआ उसे बारबार पढ़कर भी अपने दिल को संतोष नहीं दे सकता था। उस चीठी का यह मजमून था -

'श्री ठाकुरजी महाराज! लक्ष्‍मीनाथ!'

मैंने अपनी माँ से सुना है कि तमाम दुनिया को तुम खाने के लिए देते हो, जो कोई जो कुछ माँगता है, तुम वही देते हो, तुम्‍हारे भण्‍डार में सब कुछ भरा रहता है तो फिर मुझे क्‍यों नहीं देते? दयानि‍धान! आज मैं दिन भर का भूखा हूँ, मेरी माँ न मालूम कै दिन की भूखी है, मेरे घर का रोज ही यही हाल रहता है, कब तक मैं लिखा करूँगा? कृपा कर मेरे लिए दो सेर लड्डू का बंदोबस्‍त कर दीजिए जिससे मैं, मेरी माँ और मेरे साथ खेलने वाले लड़के भी रोज खा लिया करें, मैंने आज तक लड्डू कभी नहीं खाया, मैं उसका स्‍वाद नहीं जानता....।'

पुन: पढ़कर उसने अपने कलेजे पर हाथ रखा और लंबी साँस लेकर कहा, "हा ! ! व्‍यर्थ ही इतने दिन भूल-भुलैया में घूमते हुए नष्‍ट किए। हाँ! एक दिन भी ऐसा सरल विश्‍वास भगवान् पर न हुआ! आज मालूम हुआ कि मैं कौन हूँ और मुझे क्‍या करना चाहिए! हे इश्‍वर तू धन्‍य है, नि:संदेह तुझ पर जो भरोसा और विश्‍वास रखता है, उसी का बेड़ा पार है। अच्‍छा, पतितपावन! अब मैं भी तेरे दरवाजे की खाक छानूँगा और देखूँगा कि तेरी लंबी भुजा के सहारे मुझ अधम का क्‍योंकर उद्धार होता है? "

इतने ही में कमरे का दरवाजा खुला और विपिनविहारी बाबू वकील हाईकोर्ट की सूरत दिखाई दी, जो बड़े ही नेक, भोले-भाले तबीयत के आदमी थे और जिन्‍हें महाराज कुमार प्रतापनारायण ने एक वसीयतनामा लिखने के लिए बुलाया था।

आओ देखें तो सही इस समय हमारा गोपाल कहाँ है और क्‍या कर रहा है। देखो वह अपनी माँ के पास बैठा हुआ मीठी-मीठी बातें कर रहा है। वह डरता-डरता कह रहा है- "माँ, मैंने ठाकुरजी को चीठी लिखी है। वह आज जरूर पहुँच गई होगी। तू कहती थी कि वह पल-भर में तमाम दुनिया की खबर ले लेते हैं, अगर ऐसा है तो बस अब थोड़ी ही देर में मेरे पास भी लड्डू की हाँड़ी पहुँचा चाहती है। आज तू मेरे खाने की फिक्र न कर" इत्‍यादि और उसकी माँ अपनी आँखों से आँसुओं की धारा बहा रही है। इतने ही में दरवाजे के बाहर से किसी ने गोपाल कहकर पुकारा, जिसे सुनकर गोपाल दौड़ता हुआ घर के बाहर चला गया। थोड़ी ही देर के बाद जब लौटकर अपनी माँ के पास आया तो उसके एक हाथ में लड्डू से भरी हुई एक हाँड़ी थी और दूसरे हाथ में एक चीठी। गोपाल ने खुशी-खुशी अपनी माँ से कहा, "देख माँ, मैं कहता था न..... कि ठाकुर जी का आदमी लड्डू लेकर आता होगा। देख, कैसा बढि़या लड्डू है, अहाहा। एक चीठी भी ठाकुरजी ने भेजी है। देख यह चीठी है - "

गोपाल की बात सुनकर उसकी माँ भौचक-सी हो गई और वह ताज्‍जुब भरी निगाहों से गोपाल का मुँह देखने लगी। दिल के अंदर से उठे हुए जोश ने उसका गला भर दिया था और वह कुछ बोल नहीं सकती थी। जब गोपाल ने चीठी उसके हाथ में दी, तब वह खोलकर पढ़ने लगी। जिसका मतलब यह था -

"ठाकुर जी ने दो सेर लड्डू रोज तुम्‍हारे पास भेजने की आज्ञा दी है सो आज से बराबर तुम्‍हारे पास पहुँचा करेगा। ठाकुर जी ने तुम्‍हारे लिए और भी बहुत कुछ प्रबंध किया है, जिसका हाल कुछ दिन बाद मालूम होगा।"

गोपाल की माँ को बड़ा ही आश्‍चर्य हुआ! वह ताज्‍जुब-भरी निगाहों से कभी गोपाल का मुँह देखती और कभी लड्डू तथा चीठी की तरफ ध्‍यान देती। उसकी समझ में कुछ भी नहीं आता था कि यह क्‍या हुआ और क्‍योंकर हुआ। मगर गोपाल को इन सब सोच-विचारों से क्‍या संबंध था, वह उसी समय थोड़ा-सा लड्डू लेकर घर के बाहर निकल गया और अपने हमजोली तथा साथ खेलनेवाले लड़कों को खुशी से बाँटकर घर चला आया। इसके बाद खुद भी लड्डू खाये और अपनी माँ को भी जिद कर के खिलाया।

पंद्रह दिन तक नित्‍य एक आदमी आकर गोपाल के घर पर लड्डू दे जाया करता और उसकी माँ तरह-तरह के सोच-विचारों में अपना समय बिताया करती।

इसके बाद सोलहवें दिन जब महाराज कुमार प्रतापनाराण की चीठी एक वसीयतनामे के साथ सरकारी वकील की मार्फत उसके पास पहुँची, तब उसे मालूम हुआ कि गोपाल के सच्‍चे प्रेम, विश्‍वास और भोलेपन ने उसकी हुर्मत और औकात तथा जिंदगी के ढंग का कैसा काया पलट कर डाला है और उसके घर पर लड्डू पहुँचाने वाले महाराज कुमार प्रतापनारायण के दिल पर उसका कितना बड़ा असर पड़ा कि उसने अपनी तमाम जायदाद का मालिक गोपाल को बनाकर इसलिए ब्रज यात्रा की कि उसी भक्‍तवत्‍सल, पतितपावन बैकुण्‍ठनाथ के प्रेम में अपना जीवन समाप्‍त करके सच्‍चे सुख का लाभ करे।

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