चित्तौड़गढ़ की रानी पद्मिनी का नाम शायद ही कोई ऐसा हो जिसने न सुना हो। सुन्दरता में यह इतनी अद्वितीय बेजोड थी कि अल्लाउद्दीन जैसा मुगल बादशाह तक पगला गया और सब कुछ दाव लगाकर भी रानी को पाने की हवस कर बैठा। रानी का असीम सौन्दर्य और रूप लावण्य तो उसके रोम-रोम से फूट पड़ता था| ऐसी सुन्दर और गध रस वाली रानी न पहले कभी हुई और न उसके बाद ही देखी सुनी गई।

सुन्दरता का ऐसा अप्रतिम अलौकिक कोनसा जादू था कि उसके कुल के पानक से महल के चारों और सरोवर में जो रक्त कमल बोये थे वे सारे सफेद गये। सफेद कमल आज भी वहा देखने को मिलते हैं। जैसी गनी सुन्दरी थी, प्रेमा ही उसके अनुरूप उसके लिए राणा रतनसिह ने महल बनवाया था। अपनी सात नियों में चिनी को ही रतनसिंह सर्वाधिक प्यार करता था। रानी का यह भेद दिया एक नायण ने जो उसकी अन्तरग सेविका बनी हुई थी। प्रतिदिन यह रानी को नहलाती एव सिणगार कराती इसलिए रानी का अग अग उसका जाना पहचाना था। रानी बोलती जैसे फूल खिलते, रूप झरता। उसका शरीर एक विशेष प्रकार की खुशबू लिये था। यह सब सुन अल्लाउद्दीन सुधबुध खो बैठा...!! उसने कहला भेजा कि वह पद्मिनी को देखना चाहता है।

राणा रतनसिह क्या करता। करने को उसने यही किया कि सारा चित्तौड़ भले ही हाथ से निकल जाय पर पद्मिनी मुगलों के हाथ न पड़ने पाये। इसके लिए पूरी रक्षा व्यवस्था की। रानी के महल के चारों ओर कड़ा पहरा लगवा दिया। पैदल धुडसबार कई सैनिक तैनात कर दिये। यहा तक कि बाईस हाथी मुकाबले के लिए वहा अंखड प्रहरी बना दिये गये। रानी पद्मिनी जितनी सुन्दर थी उतनी ही गुणवती एवं बुद्धिमती भी थी। उसने राणा से कहा धबराने की कोई बात नहीं है। अल्लाउद्दीन को बुलवा लें। मैं महल की सीढ़ियों पर उल्टी खडी हो जाऊंगी। अल्लाउद्दीन को पास के महल में रंगे कांच में मुझे दिखा देना।" यही किया गया।

अल्लाउद्दीन तो रानी की पीठ देखकर ही मोहित हो गया। वहा से विदा होते समय शिष्टतावश रतनसिंह दरवाजे तक पहुंचाने गया कि वहा छिपे अल्लाउद्दीन के हथियारबद सिपाहियों ने रतनसिंह को कैद कर लिया। हाथों और पांवों में बेडिया डाल दी और दिल्ली ले गये। वहां से फरमान भेजा गया कि पद्मिनी को भेजी जाय अन्यथा चित्तौड बच नहीं पायेगा। ऐसे संकट के समय में रानी ने अपना धैर्य नहीं खोया। उसने मंत्रणा एवं सहायता के लिए अपने अस्सी वर्षीय देवर गोरा को मनाया जिसे राणा ने एक संधि के लिये मना कर देने पर देश निकालादे दिया था। गोरा, रानी और बादल ने गुप्त मंत्रणा कर बादशाह को कहलवा भेजा कि रानी दिल्ली पहुंचेगी मगर अकेली नहीं। उसके साथ पूरा लवाजमा होगा। कुल सातसौ डौले आयेंगे।

इनमें रानी की दासियां होगी। रानी सबसे पहले रामा से मिलना चाहेगी। को तो पदिनी नाम का नशा चता रमा मा माता और पद्मिनी के आने की, उससे मिलने और उसे अपनी मल्लिका बनाने की घडिया गिनने लगा। इर साल सो होले तैयार किये गये। प्रत्येक डोले मे दासी की जगह हथियारबद सिपाही बिताया गया।

सबसे आगे पद्मिनी का डोला रहा जिसमे छदम वेश में गोरा व बादल बैठे। गनी अपने महल में ही रही। विदा देते समय उसने अपने बारह वर्षीय पुत्र वाढल्न को रक्त का टीका किया और कहा हुसियार सूं जाइजो। बाबल ने लाइजो। जो बाबल न आने तो थाई मत आइजो। होशियारी से जाना। पिता को लेकर आना। यदि पिता न आ सके तो खुद भी मत आना। डोले चले। दिल्ली पहुंचते ही प्रमुख डोला पद्मिनी का रतनसिंह के पास भेज दिया गया। वहां जाते ही दोनों वीरो ने हाथों पांवो में बेडियों से जकडे बदी रतनसिंह को जजीरों मसिन उठाया और डोले में बिठाकर वहा से रवाना कर दिया। गोरा बादल दुश्मनों पर टूट पड़े। खिलजी के सैनिक भौचक्के देखते रह गये।

देखते-देखत सभी डोलों से वीर निकल पडे और धमासान युद्ध छिड गया। सभी वीर बड़ी बहादरी संगिड़े। अंत में एक मुसलमान सैनिक ने बादल की पीठ में भाला झोंक कर उसे ऊपर उठा लिया और गोरा से कहा-

"देख इस बालक को। क्या तू भी ऐसी ही मौत मरना चाहता है ?"

इस पर गोरा बोला-

“ऐसे कितने हीवीरों को तुम उठालो तो भी मैं विचलित होने वाला नहीं हूँ।"

लेकिन मुगलों की अपरिमित सैन्य शक्ति के आगे इन वीरों की कब तक चलती। अन्त में गोरा की छाती में भी बल्लम धुसेडकर उसका काम तमाम कर दिया। गोरा व बादल दोनों काका-भतीजों ने मिलकर जो रणकौशल दिखाया वह इतिहास का अमर अध्याय बन गया। सात दिनों के भीतर ऊंट पर दोनों रणबांकुरो की लाशें चिनौड पहुची। ये लाशें फूलकर इतनी क्षत विक्षत और भयावह हो गई थीं कि पन्धिनी को नजदीक से नहीं दिखाकर महल के पीछे बने गजसाल के आखरी छोर की ऊंचाई पर बनी छतरी से दिखाई गई।

दोनों वीरों की पास-पास चंदन की चितायें की गई। चिता स्थल पर दोनों की कीर्ति स्मृति में छतरियां बनवाई गई। ये छतरियां पूरे चित्तौड़ के किले पर बनी अन्य छतरियो से सर्वाधिक ऊची है इन वीरों ने जैसा जलवा दिखाया वैसा ही उनकी आकाश छूती ये छतरियां आज भी उन वीरों की अमरता को अंकित किये हैं। निनौट जब जब भी जाता ह, पद्मिनी के शूर वीरत्व सने सौन्दर्य की कथा

गाथाओ मे अभिभूत हो जाता है और गोरा- आदल के अग्यूट समर वित्त को याद कर उनकी विभूति को मस्तक नवाता हूं। सुप्रसिद्ध कालिका मंदिर के पास पीछे की ओर नौ गज पोर की मगार भी यह के दर्शनीय देवस्थानो मे से एक है। नौ गज की यह मजार पछी नही होकर व नात्य पर पत्थर खडक, पर बनाई हुई है। इस मजार पर सभी जाने है। मित्रत मागते है। मनौती पूरी करते हैं पर इसके सबंध में किसी को कोई जानकारी नहीं है। यह मजार है शमशुद्दीन अमान की जो काबुल के बादशाह का लडका था। कहा जाता है कि लाखा के एक लडकी थी जिसका नाम हसकुवर था। यह २५ फीट की थी।

इतनी लबी होने के कारण बहुत तलाश करने बाद भी लाखा को उपयुक्त वर नहीं मिल पाया तब खुला फरमान जारी करवाया गया कि हंसकुंवर से बड़ा जो भी लडका होगा उसके साथ इसका विवाह कर दिया जायेगा। फरमान सुन काबुल के बादशाह का लडका शमशुद्दीन अपने साथ कुछ बरातियों को लेकर चित्तौड आ धमका। यह नौ गज का था उम्र में हंसकुंवर तीन बरम बड़ा कुल १८ बरस का था। सूरजपोल पर तोरण वांदने की सारी तैयारी की गई तोरण वादन के लिए ज्योंही शमशुद्दीन ने तलवार ऊंचाई कि पीछे से हंसकुंवर का मामा आ लपका और देखते-देखते दुल्हे व बरातियों का सर कलम कर दिया। इस मारकाट में ईसकुंवर भी बच नही पाई। सूरजपोल पर ही हंसकुंवर की दाहक्रिया कर दी गई जबकि दुल्हे व बरातियों को वहा लाया गया जहां वर्तमान में मजार बनी हुई है।

शमशुद्दीन की इस मजार के पास अन्य कब्रे हैं जो बरातियों की हैं| हंसकुंवर का मामा यह कतई नहीं चाहता था कि कोई मुसलमान हिन्दू बालकी से विवाह करे। यह घटना संवत् १४५२ ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीया की है। इस दिन मजार से आवाज पडती है-

“है कोई काबुलवाला जो यहां आकर मुझे काबुल ले जाये।"

मृतक अमान का मन आज भी काबुल लगा हुआ है इसलिए मजार भी पक्की नहीं बनने दी जा रही है! पत्थर पर पत्थर खड़के हुए कच्ची बनी हुई है। दीवाली पर तो रात्रि को इस मजार के यहा मुसलमान पीरों की दिव्य आत्माओं का मेला भरता है तब बाकायदा जाजम ढलती है और सामुहिक भोज का आयोजन किया जाता है। उस समय का यहां का वातावरणा ही कुछ निराला ठाठ लिये होता है। इस मजार की यह बड़ी मानता है प्रतिदिन यहां भक्त लोग आते जाते रहते हैं| सुनने में आया है कि जो लोग मजार पर चढाने के लिये चादर लाते है, चढ़ाते समय वह छोटी जान अब तक तो यही सुनता रहा कि चिता बिना कोई जौहर नही होना परन्तु जब बार-बार चित्तौड़ जाना हुआ और वहां के खंडहरो का नजदीक से अध्ययन अन्वेषण किया तो पता चला कि यहां एक जौहर ऐसा भी हुआ जिसके लिए किसी प्रकार की कोई अग्नि जलित नहीं की गई।

यों इस किले पर सत्रह तो अग्नि जौहर ही हो गये। तीन जौहर तो कुभा महल में ही हुए जहा गरख के रूप में आज भी जौहर की निशान मौजूद है। एक जौहर रानी पद्मिनी ने अपने महला के पीछे किया। इस जौहर में रानी अकेली नहीं थी। पूरा लवाजमा था। कीनिम्तम्भ के पास भी जौहर भूमि है जहां करमावती ने जौहर किया। विजय स्तम के पास भी ऐसा ही एक जोहर ओसवालों की स्त्रियों ने किया पर सबसे बडा जौहर श्रा जोहर शाला जिसमें सर्वाधिक औरतें सती हुई। जिसे जोहर कुड वाहते हैं, वह कभी जल कुड था। यह करीब दो सौ फीट नम्बा. मो फीट चोदा और तीस फीट गहरा है। इसके तल मे बावन चौकिया बनी हुई है।

कभी किमी ने नहीं सोचा कि इस कुड में ये चौकिया कहा से आई? क्यों बनी? क्या कारण है कि बहुत अधिक पानी बरसने पर भी इस कुड में पानी की एक बूद भी नही ठहर पाती। दरअसल ये त्रीकियां उन सतियों की है जो बिना किसी लकडी की आग के मत्र बल द्वारा पैदा की गई आग में स्वयमेव ही जल मरी। उन्हीं सतियों का तेज तप आज भी इतना अधिक दीम प्रदीप्त है कि चाहे कितना ही पानी बरसे, एक बूंद भी वहां नही रह पाती है। कुड के तान में जाकर देखने से पता लगेगा कि वहा की चट्टाने कितनी जली हुई काली क्लूटी है। जौहर की राख आज भी इन पर जमी हुई है। कुड के चारों ओर की नीचे से करीब बीस फीट ऊपर तक की दीवाल पर लगा निशान मुह बोलता मौन साक्षी है उस जोहर का कि वह जौहर कितना विशाल, भयावह और दिल दहला देने वाला रहा होगा । कहां-कहां तक उसकी चिता पहुंची होगी।

कितने दिन महीनों तक इसकी ज्वाला, आग और अगारे इस बात की साक्षी देते रहे होंगे कि यहा की ललनाये देश की, मातृभूमि की रक्षार्थ जल भरना जानती है मगर दुश्मन के हाथ अपनी काया तो क्या छाया??

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