राजस्थान के लोकदेवताओ मे ईलोजी सर्वथा भिन्न किस्म के लोक्देवता जिनकी होली पर ही विशेष पूजा प्रतिष्ठा होती है। अन्य देवी देवताओं की तरह इनक मजाधजा मन्दिर भी नहीं होता और न विधिवत पूजा अनुष्ठान ही। न वैसी साप्ताहिक चौकी लगी ही कही देखी गई और न वैसे विशिष्ट पुजारी भोपे ही। राजसी वेश में ईलोजी: ईट-पत्थर से बनी प्लम्तर की हुई विशाल राजसी वेश विन्यास वाली इनर्व प्रतिमाए यत्र-तत्र देखने को मिलती है। इनका चेहरा भरा भारी, हृष्टपुष्ट शरीर, बार्व तनी मूळे, कानो में कुंडल, गले में हार, भुजाओं पर बाजूबन्द, कलाइयों में कगन, स मूर्ति में ही उभारे हुए या फिर तरह-तरह के रंगों में चितेरे मिलेंगे। जहा इनका कमर ऊपर का सारा शरीर सजाधजा मिलेगा वहा नीचे का भाग खुली नग्नता लिये एक अजी माहौल खड़ा कर देता है।

लिंग के स्थान पर लकड़ी का एक मोटा गोटा रखा रहता है बालको के लिये जहा मनोविनोदकारी होता है वहा निपूती औरतें इसे अपनी योनी छुवाकर सन्तान प्राप्ति का वरदान लेती हैं।

ईलोजी की बरात: राज परिवार से जुडे हुए ये ईलोजी राजा हिरण्यकश्यप के बहनोई थे। जिस वि ईलोजी नास्तिक राजा हिरण्यकश्यप की बहिन होलिका को ब्याहने के लिए ग्शिा बारात और अपने वैभवशाली स्वरूप के साथ आ रहे थे कि हिरण्यकश्यप को होलिक के माध्यम से प्रहलाद से मुक्ति पा लेने की सूझी। दोनों भाई-बहन के बीच प्रगाढ़ में था। एक दूसरे की कही बात को कोई टालने की स्थिति में नहीं था। उसने होली प्रहलाद का खात्मा करने को कहा' कहते हैं कि होली के पास एक दिव्य चीर था जि अगितामाई टण्ट पता था| उसी को ओद को अपनी गोद

बारात और अपने वैभवशाली स्वरूप के साथ आ रहे थे कि हिरण्यकश्यप को होलिका के माध्यम से प्रहलाद से मुक्ति पा लेने की सूझी। दोनों भाई-बहन के बीच प्रगाढ़ प्रेम था। एक दूसरे की कही बात को कोई टालने की स्थिति में नही था। उसने होली से प्रहलाद का “खात्मा करने को कहा” कहते हैं कि होली के पास एक दिव्य चीर था जिस जगह सानो भात टर्टी पट ता था उसी को ओढ को अपनी गोद में लेकर होली अग्नि में बैठ गई परन्तु हुआ यह कि प्रहलाद तो बाल बाल बा गया और होली ही अग्नि को समर्पित हो गई..!

इधर ईलोजी की बरात आ यहुची। जव सब लोगों को इस घटना का मा चन्न नो बडा दुख हुआ। ईलोजी तो सुधबुध ही खो बेठे! उन्होंने अपने सारे राजसी यश सार फैके और होली के वियोग में विलाप करते हुए दहनस्थल पहुचे और उस गम गाव को ही अपने शरीर पर लपेटने लगे। ईलोजी ने फिर विवाह नहीं किया! आजावन कुवारे रहे इसलिये आज भी जिसका विवाह नही हो पाता है उसे ईलोजी नाम ही थाप दिया जाता है। ईलोजी द्वारा अपने शरीर पर राख लपेटने का यही प्रसंग धुलेंडी नाम से प्रारम्भ हुआ। इसलिए प्रथम दिन होलिका दहन होता है और दूसरे दिन धुलेंडी को सारे लोग धूल-गुलाल उछालते मौज-मस्ती करते हैं।

भैरव रूप में ईलोजी: क्षेत्रपाल व भैरव के रूप मे भी ईलोजी की मान्यता रही है। विवाह के तुरन्त बाद क्षेत्रपाल अथवा भैरूजी की पूजा करने की परम्परा यहां घर-घर गांव-गांव रही है। इससे वैवाहिक जीवन सुखी व सुरक्षित मान लिया जाता है। यदि क्षेत्रपाल नहीं पूजे गये तो ईलोजी जैसे आजीवन कुंवारे रहे वैसा ही अनिष्ट आकर घेर लेगा| ऐसी धारणा घर कर लेती है। इसलिये किसी अनघड पत्थर को लेकर उसके सिन्दूर पनी लगा दी जाती है और नारियल की धूप देकर पति-पत्नी एक साथ उनके ढोक देते है और जोड़ी अमर रहने का प्रसाद पाते हैं। ईलोजी की मान्यता होली से लेकर शीतला सप्तमी तक चलती रहती है। कई जगह ईलोजी की सवारी निकलती है।

जैसलमेर में कभी धुलडी के दिन एक आदमी ईलोजी बन निकलता जिसके लिगाकर बडा डडा जिसके ओरछोर मूंज के बाल लगे रहते। यह व्यक्ति राजमहल में जाकर राजाजी को सलामी करता। ईलोजी के स्यांग: उदयपुर में भी ईलाजी के नीमड़े से एक ब्राह्मण काले कपडे पहन ईलोजी बन निकलता| इसी नीमडे के यहा गोबर के ईलोजी बनाये जाते तब महाराणा स्वयं यहां पधारते| दो दिन तक ऐसा अश्लील वातावरण छाया रहता कि औरतें घरों से बाहर तक नहीं निकलती। महाराणा सज्जनसिंह के पश्चात् यह कार्यक्रम नहीं चला।

पहले कभी ढोलामारू की सवारी भी इस दिन निकला करती। तैली लोग भी उल्टे खाट पर ईलोजी की सवारी निकालते तब किसी मनचले व्यक्ति को उसका सारा शरीर मिट्टी से पोत थोप कर खाट पर बिठा दिया जाता और हाहल्लह में लोग बाग निकलते होली पर दरबार के छल्ले मे अश्लील चित्र लगे रहते। चितेरे इन चित्रों को दो माह पहले से ही बनाने शुरू कर देते।

नंगी औरतों द्वारा ईलोजी की पूजा उदयपुर के देवगढ कस्बे में तो शीतला सप्तमी को लकडी के बने ईलोजी ही मुख्य सडक पर रख दिये जाते है। रास्ते से जो भी बस, ट्रक आदि वाहन उधर होकर गुजरते है उन्हें अनिवार्यतः उन ईलोजी के एक रूपया नारियल भेंट करना होता है नही तो उनका उधर से निकलना ही वर्जित कर दिया जाता है। इधर के गांवो मे इस दिन लोग- बाग भोजन कर दूर जगलों मे शिकार के लिये निकल जाते है।

पीछे से प्रत्येक घर की औरतें नगी होकर रहती है और ईलोजी का पिंड अपने से छुडवाती हैं। कहने का तात्पर्य यह कि ईलोजी एक ऐसा विचित्र लोकदेवता है जो एक ओर निःसंतान औरतों को संतान देता है तो दूसरी ओर हंसी, मजाक व तिरस्कार का पात्र भी बनता है। नामर्द व्यक्ति के लिए भी ईलोजी शब्द का प्रयोग एक गाली के रूप में सुनने को मिलता है।

हिमाचल के ईलोजी: हिमाचल प्रदेश के आदिम जातीय त्यौहारों में चेत्रोलखोन नामक पर्व का मुख्य आकर्षण ही ईलोजी का स्वांग रहा है। यह पर्व चैत्रमास में मनाया जाता है जो भूत-प्रेतो से सम्बन्धित है। चगांव में इस अवसर पर बड़े आकर्षक स्वांग निकाले जाते हैं| इस सम्बन्ध में प्रो. एन डी. पुरोहित ने रगायन के जून, ८० के अंक में लिखा है-

“इसमें एक विशेष परिवार का व्यक्ति अपने चेहरे पर ब्रकलिड लकडी का बना राक्षस का प्रतीक भीमकाय मुखौटा (खोर) लगाता है और शेष शरीर को देवता के कपड़ों से ढकता है। इस वीभत्स मुखौटे में दांत बाहर निकले होते हैं और सिर पर जानवरों के सींग लगे रहते है। मुखौटा काले-सफेद रगों की धारियों वाला होता है और कपड़े पीले। इसकी गर्दन के पास लकडी का बना मोटा लिंग हड्डियों की माला के बीच फंसाकर लटका दिया जाता है। इसका अग्रभाग लाल और शेष काला होता है। 

गांव के मुख्य पर्वस्थल पर ईलोजी का स्वॉग गाजे-बाजे के साथ जुलूस रूप में ले जाया जाता है। इसमें भाग लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति के हाथ में लिंगाकार लम्बी लकड़ियां होती हैं। ये शिश्न का प्रतीक मानी जाती हैं। इन्हें ग्रामीण युवक अपने हाथो में हिलाकर अश्लील क्रियाओं का अनुसरण करते है। स्त्रिया भी ईलोजी के गले मे झूलते लिंग को स्पर्श करती हैं|

Please join our telegram group for more such stories and updates.telegram channel