“तुमने यह क्या किया है|” चारुदत्त गाड़ीवाले पर चिल्लाया।

“वसन्त- सेना कहाँ है ? उसे तुम कहाँ छोड़ आये हो, बेवकूफ आदमी ?" और वह उसे मारने लगा।

“कृपा करके गाड़ीवाले को मारना बन्द कर दीजिए," आर्यक ने विनती कसूर मेरा है।

“मैं आर्यक हूँ। मैंने यह गाड़ी चारुदत्त के घर के सामने देखी तो इसमें चढ़ गया और गाड़ीवान इसे यहाँ ले आया।"

“श्रीमान जी," गाड़ीवान बोला, “मैंने घंटियों के बजने की आवाज सुनी तो सोचा कि वसन्तसेना है और गाड़ी हाँक दी।"

“तुम आर्यक हो?" चारुदत्त ने पूछा। “जिसे सरकार ने अवैध रूप से जेल में डाल दिया था।"

"मैं वही हूँ,” आर्यक बोला, “और मुझे खुशी है कि आप भी यही समझते हैं कि मुझे बिना कारण जेल में बन्द कर दिया गया था। अब आप मेरी थोड़ी सी सहायता करें। मेरी जंजीर उतार दें। फिर अपने गाड़ीवान से कहें कि मैं जहाँ जाना चाहूं मुझे वहाँ ले जाये। यदि आप ऐसा कर देंगे तो मैं सदा आपको याद रखूगा। मैंने वसन्तसेना को नहीं देखा। आप यहाँ से एक या दो घोड़े लेकर घर चले जाएं और उसकी खोज करें। इसी बीच में मेरी यहाँ से निकलने में सहायता करें।"

“आर्यक ठीक कहते हैं," मैत्रेय बोला। "उन्हें हमारी गाड़ी में बाहर जाने दो। हम यहाँ से दो घोड़े लेकर वसन्तसेना को ढूंढने चलते हैं।"

“हाँ, यह ठीक है|" चारुदत्त ने कहा। “हमारे लिए यही एक रास्ता बचा है|”

फिर उसने आर्यक के हाथ और पैर से जंजीर हटा दी और उसे अपनी तलवार भी दे दी और कहा, “ईश्वर तुम्हारी सहायता करे।" 

चारुदत्त की यह बात आर्यक के हृदय को छू गई। उसने कहा कि वह उसे सदा अपना मित्र मानेगा और वह चला गया। चारुदत्त और मैत्रेय ने दो घोड़े किराये पर लिए और वसन्तसेना की खोज में चल पड़े।

Listen to auto generated audio of this chapter
Comments
हमारे टेलिग्राम ग्रुप से जुड़े। यहाँ आप अन्य रचनाकरों से मिल सकते है। telegram channel