उपमन्यु बड़ा ही परिश्रमी और हंसमुख बालक था, इस कारण सभी लोग उससे बहुत प्रसन्न थे। जब कुछ दिनों बाद वह अपने आश्रम में लौटा तो गुरुजी ने उसे बुल भेजा। गुरुदेव ने पूछा, "बेटा उपमन्यु, क्या तुम इतने दिनों तक उपवास करते रहे?" "नहीं तो, गुरुदेव," उपमन्यु ने चकित होकर उत्तर दिया। "मेरी भी यही धारणा थी।" गुरुदेव ने कहा, “तुम काफी हृष्ट-पुष्ट लग रहे हो। तुमने महल के बढ़िया-बढ़िया पकवान छककर तो नहीं खाये?" "नहीं, गुरुदेव। मैंने महल के पक्वान नहीं खाये। सदा की तरह अपना भोजन गांव से ही मांग कर लाता था। गांव महल से तीन मील दूर ही तो है।" गुरुजी ने कहा, "लेकिन मैंने तो तुम आश्रम में भोजन लाते नहीं देखा।" उपमन्यु को सहसा याद आया कि आश्रम के नियम के अनुसार उसे सारा खाना गुरुजी के आगे लाकर रख देना चाहिए था। उसने अपना माथा ठोक कर भूल स्वीकार की ओर गुरुदेव से क्षमा मांगी। उस दिन उपमन्यु ने भिक्षा में मिला सारा भोजन लाकर गुरुजी के आगे रख दिया।
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