बादशाह दो दिन से शिकार को गए थे। आज इतनी रात हो गई, अभी तक नहीं आए। सलीमा चाँदनी में दूर तक आँखें बिछाए सवारों की गर्द देखती रही। आखिर उससे न रहा गया, वह खिड़की से उठकर, अनमनी-सी होकर मसनद पर आ बैठी। उम्र ओर चिन्ता की गर्मी जब उससे सहन न हुई, तब उसने अपनी चिकन की ओढ़नी भी उतार फेंकी और आप ही आप झुँझलाकर बोली - 'कुछ भी अच्छा नहीं लगता। अब क्या करूँ?' इसके बाद उसने पास रक्खी बीन उठा ली। दो-चार उँगली चलाई, मगर स्वर न मिला। भुनभुनाकर कहा - 'मर्दों की तरह यह भी मेरे वश में नहीं है।' सलीमा ने उकताकर उसे रखकर दस्तक दी। एक बाँदी दस्तबस्ता हाजिर हुई।