वे दोनों साधु, जो सन्दूक के अन्दर झांक न मालूम क्या देखकर बेहोश हो गए थे, थोड़ी देर बाद होश में आए और चीख-चीखकर रोने लगे। एक ने कहा, “हाय-हाय इन्द्रजीतसिंह, तुम्हें क्या हो गया! तुमने तो किसी के साथ बुराई न की थी, फिर किस कम्बख्त ने तुम्हारे साथ बदी की प्यारे कुमार, तुमने बड़ा बुरा धोखा दिया, हम लोगों को छोड़कर चले गए, क्या दोस्ती का हक इसी तरह अदा करते हैं हाय, अब हम लोग जीकर क्या करेंगे, अपना काला मुंह लेकर कहां जाएंगे हमको अपने भाई से बढ़कर मानने वाला अब दुनिया में कौन रह गया! तुम हमें किसके सुपुर्द करके चले गये'
दूसरा बोला - “प्यारे कुमार, कुछ तो बोलो! जरा अपने दुश्मनों का नाम तो बताओ, कुछ कहो तो सही कि किस बेईमान ने तुम्हें मारकर इस सन्दूक में डाल दिया हाय, अब हम तुम्हारी मां बेचारी चन्द्रकांता के पास कौन मुंह लेकर जायेंगे किस मुंह से कहेंगे कि तुम्हारे प्यारे होनहार लड़के को किसी ने मार डाला! नहीं-नहीं, ऐसा न होगा, हम लोग जीतेजी अब लौटकर घर न जायंगे, इसी जगह जान दे देंगे। नहीं-नहीं, अभी तो हमें उससे बदला लेना है जिसने हमारा सर्वनाश कर डाला। प्यारे कुमार, जरा तो मुंह से बोलो, जरा आंखें खोलकर देखो तो सही, तुम्हारे पास कौन खड़ा रो रहा है। क्या तुम हमें भूल गए हाय, यह यकायक कहां से गजब आकर टूट पड़ा!”
अब तो पाठक समझ गए होंगे कि इस सन्दूक में कुंअर इन्द्रजीतसिंह की लाश थी और ये दोनों साधु उनके दोस्त भैरोसिंह और तारासिंह थे। इन दोनों के रोने से कामिनी असल बात समझ गई, वह झट कोठरी के बाहर निकल आई और मोमबत्ती की रोशनी में कुमार की लाश देख जोर-जोर से रोने लगी। किशोरी इस तहखाने के बगल वाली कोठरी में थी। उसने जो कुंअर इन्द्रजीतसिंह का नाम ले-लेकर रोने की आवाज सुनी तो उसकी अजब हालत हो गई। उसका पका हुआ दिल इस लायक न था कि इतनी ठेस सम्हाल सके, बस एक दफे 'हाय' की आवाज तो उसके मुंह से निकली मगर फिर तन-बदन की सुध न रही। वह ऐसी जगह न थी कि कोई उसके पास जाय या उसे सम्हाले और देखे कि उसकी क्या हालत है।
भैरोसिंह और तारासिंह ने जो कामिनी को देखा, तो वह लोग फूट-फूटकर रोने लगे। तहखाने में हाहाकर मच गया। घण्टे भर यही हालत रही। जब कामिनी ने रोकर यह कहा कि 'इसी बगल वाली कोठरी में बेचारी किशोरी भी है, हाय, हम लोगों का रोना सुनकर उस बेचारी की क्या अवस्था हुई होगी।' तब भैरोसिंह और तारासिंह चुप हुए और कामिनी का मुंह देखने लगे।
भैरोसिह - तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि यहां किशोरी भी है?
कामिनी - मैं उससे बातें कर चुकी हूं।
तारासिंह - क्या तुम बड़ी देर से इस तहखाने में हो?
कामिनी - देर क्या, मैं तो कई दिनों से भूखी-प्यासी इस तहखाने में कैद हूं। (उस आदमी की तरफ इशारा करके) यह मेरा पहरा देता था।
भैरोसिंह - खैर, जो होना था सो हो गया। अब हम लोग अगर रोने-धोने में लगे रहेंगे, तो इनके दुश्मन का पता न लगा सकेंगे और न उससे बदला ही ले सकेंगे। यों तो जन्म भर रोना ही है परन्तु जब इनके दुश्मन से बदला ले लेंगे तो कलेजे में कुछ ठण्डक पड़ेगी। तुम यहां कैसे आईं और इन दुष्टों के हाथ क्योंकर फंसीं, खुलासा कहो तो शायद कुछ पता लगे।
कामिनी ने अपना खुलासा हाल कहा और इसके बाद पूछा, “तुम दोनों का आना कैसे हुआ'
भैरोसिंह - कमला ने इस तहखाने का पता देकर हम लोगों को यहां भेजा है। थोड़ी ही देर में राजा वीरेन्द्रसिंह और कुंअर आनन्दसिंह भी बहुत से आदमियों को साथ लिए आना ही चाहते हैं, कमला भी उनके साथ होगी, हम लोग कुंअर इन्द्रजीतसिंह को छुड़ाने के लिए किसी दूसरी जगह जाने वाले थे, मगर हाय, यह क्या खबर थी कि रास्ते में ही हम लोगों पर यह पहाड़ टूट पड़ेगा। हाय, जब महाराज यहां आयेंगे तो हम किस मुंह से कहेंगे कि तुम्हारे प्यारे लड़के की लाश इस तहखाने में पाई गई।
इसके बाद भैरोसिंह ने इस तहखाने में आने का बाकी हाल कहा तथा यह भी बताया कि “जब खंडहर के बाहर कुएं पर हम दोनों आदमी बैठे थे, तभी तीन आदमियों की बातचीत से मालूम हो गया कि तुमको उन लोगों ने कैद कर लिया है। परन्तु यह आशा न थी कि हम तुम्हें इस अवस्था में देखेंगे। उन लोगों ने मुझे देखा तो पहचानकर डरे और भाग गये, मगर मुझे यह न मालूम हुआ कि वे लोग कौन हैं और उन्होंने मुझे कैसे पहचाना'
कामिनी - (हाथ का इशारा करके) उन्हीं लोगों में से एक यह भी है जिसे तुमने बांध रखा है।
भैरोसिंह - (उस आदमी से) बता, तू कौन है?
आदमी - बताने को तो मैं सब-कुछ बता सकता हूं, परन्तु मेरी जान किसी तरह न बचेगी।
भैरोसिंह - क्या तुझे अपने मालिक का डर है?
आदमी - जी हां।
भैरोसिंह - मैं वादा करता हूं कि तेरी जान बचाऊंगा, और तुझे बहुत-कुछ इनाम भी दिलाऊंगा।
आदमी - इस वादे से मेरी तबीयत नहीं भरती। क्योंकि मुझे तो आप लोगों के ही बचने की उम्मीद नहीं। हाय, क्या आफत में जान फंसी है। अगर कुछ कहें तो मालिक के हाथ से मारे जायं और न कहें तो इन लोगों के हाथ से दुःख भोगें!
भैरोसिंह - तेरी बातों से मालूम होता है कि तेरा मालिक बहुत जल्द ही यहां आना चाहता है?
आदमी - बेशक ऐसा ही है।
यह सुनते ही भैरोसिंह ने तारासिंह के कान में कुछ कहा और उनका ऐयारी का बटुआ लेकर अपना बटुआ उन्हें दे दिया जिसे ले वे तुरन्त वहां से रवाना हुए और तहखाने के बाहर निकल गए। तारासिंह ने जल्दी-जल्दी खंडहर के बाहर होकर उस कुएं में से एक लुटिया पानी खींचा और बटुए में से कोई चीज निकालकर पत्थर पर रगड़ जल में घोलकर पी ली। फिर एक लुटिया जल निकालकर वही चीज पत्थर पर घिस पानी में मिलाई और बहुत जल्द तहखाने में पहुंचे। जल की लुटिया भैरोसिंह के हाथ में दी, भैरोसिंह ने बटुए से कुछ खाने की चीज निकाली और कामिनी से कहा, “इसे खाकर तुम यह जल पी लो।”
कामिनी - भला खाने और जल पीने का यह कौन-सा मौका है यद्यपि मैं कई दिनों से भूखी हूं, परन्तु क्या कुमार की लाश के सिरहाने बैठकर मैं खा सकूंगी, क्या यह अन्न मेरे गले के नीचे उतरेगा?
भैरोसिह - हाय! इस बात का मैं कुछ भी जवाब नहीं दे सकता। खैर, इस पानी में से थोड़ा तुम्हें पीना ही पड़ेगा। अगर इससे इन्कार करोगी तो हम सब लोग मारे जायंगे। (धीरे से कुछ कहकर) बस, देर न करो।
कामिनी - अगर ऐसा है तो मैं इन्कार नहीं कर सकती।
भैरोसिंह ने उस लुटिया में से आधा जल कामिनी को पिलाया और आधा आप पीकर लुटिया तारासिंह के हवाले की। तारासिंह तुरन्त तहखाने में से बाहर निकल आए और जहां तक जल्द हो सका, इधर-उधर से सूखी हुई लकड़ियां और कण्डे बटोरकर खंडहर के बीच में एक जगह रखा, तब बटुए में से चकमक पत्थर निकाला और उसमें से आग झाड़कर गोठों और लकड़ियों को सुलगाया।
तारासिंह यह सब काम बड़ी फुर्ती से कर रहे थे और घड़ी-घड़ी में खंडहर के बाहर मैदान की तरफ देखते भी जाते थे। आग सुलगाने के बाद जब तारासिंह ने मैदान की तरफ देखा तो बहुत दूर पर गर्द उड़ती हुई दिखाई दी। वह अपने काम में फिर जल्दी करने लगे। बटुए में से एक शीशी निकाली जिसमें किसी प्रकार का तेल था, वह तेल आग में डाल दिया, आग पर दो- तीन दफे पानी का छींटा दिया, फिर मैदान की तरफ देखा। मालूम हुआ कि दस-पन्द्रह आदमी घोड़ों पर सवार बड़ी तेजी से इसी तरफ आ रहे हैं। उस समय तारासिंह के मुंह से यकायक निकल पड़ा - “ओफ, अगर जरा भी देर होती तो काम बिगड़ ही चुका था, खैर, अब ये लोग कहां जा सकते हैं!”
आग में से बहुत ज्यादे धुआं निकला और खंडहर भर में फैल गया। इसके बाद तारासिंह खंडहर के बाहर निकले और कुएं के पास जाकर नीम के पेड़ पर चढ़ गए तथा अपने को घने पत्तों की आड़ में छिपा लिया। वह पेड़ इतना ऊंचा था कि उस पर से खंडहर के भीतर का मैदान साफ नजर पड़ता था। वे सवार, जिन्हें तारासिंह ने दूर से देखा था, अब खंडहर के पास आ पहुंचे, तारासिंह ने पेड़ पर चढ़े-चढ़े गिना तो मालूम हुआ कि बारह सवार हैं। उनमें सबके आगे एक साधु था जिसकी सफेद दाढ़ी नाभि तक पहुंच रही थी।
पाठक, यह वही बाबाजी हैं जिन्होंने रोहतासगढ़ में राजा दिग्विजयसिंह के पास रात के समय पहुंचकर उन्हें भड़काया और राजा वीरेन्द्रसिंह वगैरह को कैद कराया था।

खंडहर के पास पहुंचकर वे लोग रुके। घोड़ों की बागडोरें पत्थरों से अटकाकर दस आदमी तो खंडहर में अन्दर घुसे और दो आदमी घोड़ों की हिफाजत के लिए बाहर रह गये।
खंडहर के अन्दर धुआं देखकर बुड्ढे साधु ने कहा, “यह धुआं कैसा है'
एक - किसी मुसाफिर ने आकर रसोई बनाई होगी।
दूसरा - मगर धुआं बहुत कड़वा है।
तीसरा - ओफ, आंखों से और नाक से पानी बहने लगा।
साधु - अगर किसी मुसाफिर ने यहां आकर रसोई पकाई होती तो हांडी, पत्तल और पानी का बर्तन इत्यादि कुछ और भी तो यहां दिखाई देता! (एक आदमी की तरफ देखकर) हमें इस धुएं का रंग बेढब मालूम होता है, इसकी कड़वाहट, इसकी रंगत और इसकी बू कहे देती है कि धुएं में बेहोशी का असर है। है, है, जरूर ऐसा ही है, कुछ अमल भी आ चला और सिर भी घूमने लगा! (जोर से) अरे बहादुरो, बेशक तुम लोग धोखे में डाले गए, यहां कोई ऐयार आ पहुंचा है, क्या ताज्जुब है, अगर तहखाने में से कामिनी को निकालकर ले गया हो।
नीम के पेड़ पर बैठे हुए तारासिंह उस साधु की सब बातें सुन रहे थे क्योंकि वह नीम का पेड़ खंडहर के फाटक के पास ही था। साधु की बातें अभी पूरी न होने पाई थीं कि खंडहर के पिछवाड़े की तरफ से एक आदमी दौड़ता हुआ आया। मालूम होता है कि साधु की आखिरी बात उसने सुन ली थी, क्योंकि पहुंचने के साथ ही उसने पुकारकर कहा, “नहीं-नहीं, कामिनी को कोई निकालकर नहीं ले गया मगर इसमें भी सन्देह नहीं कि वीरेन्द्रसिंह के दो ऐयार यहां आए हैं, एक तहखाने के अन्दर है दूसरा (हाथ से इशारा करके) इस नीम के पेड़ पर चढ़ा हुआ है।”
साधु - बस, तब तो मार लिया। बेशक हम लोग आफत में फंस गए हैं परन्तु कामिनी और इन्द्रजीत, जिन्हें तुम लोग तहखाने में पहुंचा चुके हो, अब बाहर नहीं जा सकते। ताज्जुब नहीं कि इन ऐयारों ने इन्द्रजीतसिंह को मुर्दा समझ लिया हो! देखो, मैं शाहदरवाजे को अभी ऐसा बन्द करता हूं कि फिर ऐयार का बाप भी तहखाने में नहीं जा सकेगा।
इसके जवाब में उस आदमी ने, जो अभी दौड़ता हुआ आया था, कहा कि “हमारा एक आदमी भी तहखाने में ही है।”
साधु - खैर, अब तो उसका भी उसी तहखाने में घुटकर मर जाना बेहतर है।
तारासिंह ने उस आदमी को पहचान लिया जो खंडहर के पिछवाड़े की तरफ से दौड़ता हुआ आया था। यह उन्हीं दोनों आदमियों में से एक था जो भैरोसिंह और तारासिंह को कुएं पर देख डर के मारे भाग गये थे। न मालूम कहां छिपा रहा था जो इस समय बाबाजी को देखकर बेधड़क आ पहुंचा।
साधु ने धुएं का खयाल बिल्कुल ही न किया और खंडहर के अन्दर जाकर न मालूम किस कोठरी में घुस गया।
तारासिंह को कुंअर इन्द्रजीतसिंह के मरने का जितना गम था, उसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं परन्तु उनको उस समय बड़ा ही आश्चर्य हुआ जब साधु के मुंह से यह सुना कि “ताज्जुब नहीं कि इन्द्रजीतसिंह को मुर्दा समझ लिया हो!” बल्कि यों कहना चाहिए कि इस बात ने तारासिंह को खुश कर दिया। वे अपने दिल में सोचने लगे कि बेशक हम लोगों ने धोखा खाया, मगर न मालूम उन्हें कैसी दवा खिलाई गई जिसने बिल्कुल मुर्दा ही बना दिया। यदि इस समय भैरोसिंह के पास पहुंचकर यह खुशखबरी सुनाई जाती है तो क्या ही अच्छी बात थी। मगर कम्बख्त साधु तो कहता है कि मैं शाहदरवाजे को ही बन्द कर देता हूं जिसमें फिर कोई आदमी तहखाने में न जा सके। यदि ऐसा हुआ तो बड़ी ही मुश्किल होगी। इन्द्रजीतसिंह अगर जीते भी हैं तो अब मर जायेंगे! न मालूम यह शाहदरवाजा कौन-सा है और किस तरह खुलता और बन्द होता है?
वे लोग तो सुन ही चुके थे कि वीरेन्द्रसिंह का एक ऐयार नीम के पेड़ पर चढ़ा हुआ है। बाबाजी शाहदरवाजा बन्द करने चले गये, मगर तारासिंह को इसकी कुछ भी चिन्ता नहीं थी, क्योंकि वे इस बात को बखूबी जानते थे कि बेहोशी का धुआं जो इस खंडहर में फैला हुआ है, अब इन लोगों को ज्यादा देर तक ठहरने न देगा, थोड़ी ही देर में बेहोशी आ जायगी और फिर किसी योग्य न रहेंगे, और आखिर वैसा ही हुआ।
यद्यपि वे लोग ज्यादा धुएं में नहीं फंसे थे, तो भी जो कुछ उन लोगों की आंखों और नाक की राह से पेट में चला गया था, वही उन लोगों को बेदम करने के लिए काफी था। वे लोग कुएं पर आ पहुंचे और चारों तरफ से उस नीम के पेड़ को घेर लिया। इस समय उन लोगों की अवस्था शराबियों की-सी हो रही थी। उसी समया तारासिंह ने पेड़ पर से चिल्लाकर कहा, “ओ हो हो हो, क्या अच्छे वक्त पर हमारा मालिक आ पहुंचा। अब जरूर इन कम्बख्तों की जान जायगी!”
तारासिंह की बात सुनते ही वे लोग ताज्जुब में आ गये और मैदान की तरफ देखने लगे। वास्तव में पूरब की तरफ गर्द उठ रही थी और मालूम होता था कि किसी राजा की सवारी इस तरफ आ रही है। उन लोगों के दिमाग पर अब बेहोशी का असर अच्छी तरह हो चुका था। वे लोग बैठ गए और फिर जमीन पर लेटकर दीन-दुनिया से बेखबर हो गये।
तारासिंह की निगाह उसी गर्द की तरफ थी। धीरे-धीरे आदमी और घोड़े दिखाई देने लगे और जब थोड़ी दूर रह गये तो साफ मालूम हो गया कि कई सवारों को साथ लिये राजा वीरेन्द्रसिंह आ पहुंचे। ऐयारों में तेजसिंह और पंडित बद्रीनाथ उनके साथ थे और मुश्की घोड़े पर सवार कमला आगे-आगे आ रही थी। जब तक वे लोग खंडहर के पास आवें, तब तक तारासिंह पेड़ के नीचे उतरे, कुएं में से एक लुटिया जल निकालकर मुंह-हाथ धोया और कुछ आगे बढ़कर उन लोगों से मिले। वीरेन्द्रसिंह ने तारासिंह से पूछा, “कहो, क्या हाल है'?
तारासिंह - विचित्र हाल है।
वीरेन्द्रसिंह - सो क्यों, भैरो कहां है?
तारासिंह - भैरोसिंह इसी खंडहर के तहखाने में हैं, और किशोरी, कामिनी तथा कुंअर इन्द्रजीतसिंह भी उसी तहखाने में कैद हैं।
तारासिंह ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह का जो कुछ हाल तहखाने में देखा था, वह किसी से कहना मुनासिब न समझा, क्योंकि सुनते ही वे लोग अधमरे हो जाते और किसी काम लायक न रहते और वीरेन्द्रसिंह की तो न मालूम क्या हालत होती, सिवाय इसके यह भी मालूम हो ही चुका था कि कुंअर इन्द्रजीतसिंह मरे नहीं हैं। ऐसी अवस्था में उन लोगों को बुरी खबर सुनाना बुद्धिमानी के बाहर था, इसलिए तारासिंह ने इन्द्रजीतसिंह के बारे में बहुत-सी बातें बनाकर कहीं, जैसा कि आगे चलकर मालूम होगा।
कुंअर आनन्दसिंह ने जब तारासिंह की जुबानी यह सुना कि कामिनी भी इसी तहखाने में कैद है तो बहुत ही खुश हुए और सोचने लगे कि अब थोड़ी देर में माशूका से मुलाकात हुआ ही चाहती है। ईश्वर ने बड़ी कृपा की कि ढूंढ़ने और पता लगाने की नौबत न पहुंची। उन्होंने सोचा कि बस, अब हमारा दुःखान्त नाटक सुखान्त हुआ ही चाहता है।
वीरेन्द्रसिंह ने फिर तारासिंह से पूछा, “क्या तुमने अपनी आंखों से उन लोगों को इस तहखाने में कैद देखा है'?
तारासिंह - जी हां, कुंअर इन्द्रजीतसिंह और कामिनी से तो हम दोनों आदमी मिल चुके हैं और भैरोसिंह उन दोनों के पास ही हैं, मगर किशोरी को हम लोग न देख सके, कामिनी की जुबानी मालूम हुआ कि जिस तहखाने में वह है उसी के बगल वाली कोठरी में किशोरी भी कैद है। पर कोई तरकीब ऐसी न निकली जिससे हम लोग किशोरी तक पहुंच सकते।
वीरेन्द्रसिंह - क्या यहां की कोठरियों और दरवाजों में किसी तरह का भेद है?
तारासिंह - भेद क्या, मुझे तो यह एक छोटा तिलिस्म ही मालूम होता है!
वीरेन्द्रसिंह - भला तुम और भैरोसिंह इन्द्रजीतसिंह के पास तक पहुंच गए तो उसे तहखाने के बाहर क्यों न ले आए?
तारासिंह - (कुछ अटककर) मुलाकात होने पर हम लोग उसी तहखाने में बैठकर बातें करने लगे। दुश्मन का एक आदमी उस तहखाने में कैदियों की निगहबानी कर रहा था। कैदी हथकड़ी और बेड़ी के सबब बेबस थे। जब हम दोनों ने उस आदमी को गिरफ्तार किया और हाल जानने के लिए बहुत-कुछ मारा-पीटा, तब वह राह पर आया। उसकी जुबानी मालूम हुआ कि हम लोगों का दुश्मन अर्थात् उसका मालिक बहुत से आदमियों को साथ ले यहां आया ही चाहता है। तब भैरोसिंह ने मुझे कहा कि इस समय हम लोगों को इस तहखाने से बाहर निकलना मुनासिब नहीं है, कौन ठिकाना बाहर निकलकर दुश्मनों से मुलाकात हो जाय। वे लोग बहुत होंगे और हम लोग केवल तीन आदमी हैं ताज्जुब नहीं कि तकलीफ उठानी पड़े, इससे यही बेहतर है कि तुम बाहर जाओ और जब दुश्मन लोग इस खंडहर में आ जायें, तो उन्हें किसी तरह गिरफ्तार करो। उन्हीं की आज्ञा पाकर मैं अकेला तहखाने के बाहर निकल आया और मैंने दुश्मनों को गिरफ्तार भी कर लिया।
तेजसिंह - (खुश होकर और हाथ का इशारा करके) मालूम होता है कि वे लोग जो उस पेड़ के नीचे पड़े हैं और कुछ खंडहर के दरवाजे पर दिखाई देते हैं, सब तुम्हारी ही कारीगरी से बेहोश हुए हैं। उन्हें किस तरह बेहोश किया?
तारासिंह - खंडहर के अन्दर आग सुलगाई और उसमें बेहोशी की दवा डाली, जब तक वे लोग आवें तब तक धुआं अच्छी तरह फैल गया। ऐसी कड़ी दवा से वे लोग क्योंकर बच सकते थे, जरा-सा धुआं आंख में लगना बहुत था। दुश्मन के केवल दो आदमी बच गये हैं, (घोड़ों की तरफ देखकर) मालूम होता है, आपको आते देख वे लोग भाग गए, यह क्या हुआ!
तेजसिंह - (चारों तरफ देखकर) जाने दो, क्या हर्ज है। हां तो अब हम लोगों को तहखाने में चलना चाहिए।
तारासिंह - शायद अब हम लोग तहखाने में न जा सकें।
कमला - सो क्यों?
तारासिंह - उन लोगों में एक साधु भी था, वह बड़ा ही चालाक और होशियार था। आंख में धुआं लगते ही समझ गया कि इसमें बेहोशी का असर है, अब दम के दम में हम लोग बेहोश हो जायेंगे। उसी समय एक आदमी ने जो पहले हम लोगों को देखकर भाग गया था और छिपकर मेरी कार्रवाई देख रहा था, पहुंचकर उसे हम लोगों के आने की खबर दे दी और यह भी कह दिया कि अभी तक कामिनी, किशोरी और इन्द्रजीतसिंह तहखाने में हैं बल्कि राजा वीरेन्द्रसिंह का एक ऐयार भी तहखाने में है। यह सुनते ही वह कुछ खुश हुआ और बोला, “अब हम लोग तो बेहोश हुआ ही चाहते हैं, धोखे में पड़ ही चुके हैं, मगर अब हम यहां के शाहदरवाजे को बन्द कर देते हैं, फिर किसी की मजाल नहीं कि तहखाने में जा सके और उन लोगों को निकाल सके जो तहखाने के अन्दर अभी तक बैठे हुए हैं।” इस बात को सुनकर उस जासूस ने कहा कि “हम लोगों का एक आदमी भी उसी तहखाने में है।” साधु ने जवाब दिया कि “अब उसका भी उसी में घुटकर मर जाना बेहतर होगा।” फिर न मालूम क्या हुआ और उस साधु ने क्या किया अथवा शाहदरवाजा कौन है और किस तरह खुलता या बन्द होता है!
तारासिंह की इस बात ने सभी को तरद्दुद में डाल दिया और थोड़ी देर तक वे लोग सोच-विचार में पड़े रहे इसके बाद कमला ने कहा, “पहले खंडहर में चलकर तहखाने का दरवाजा खोलना चाहिए, देखें खुलता है या नहीं, अगर खुल गया तो सोच-विचार की कुछ जरूरत नहीं, यदि न खुल सका तो देखा जायगा।”
इस बात को सभी ने पसन्द किया और राजा वीरेन्द्रसिंह ने कमला को आगे चलने और तहखाने का दरवाजा खोलने के लिए कहा। खंडहर में इस समय धुआं कुछ भी न था, सब साफ हो चुका था। कमला सभी को साथ लिए हुए उस दालान में पहुंची जहां से तहखाने में जाने का रास्ता था। मोमबत्ती जलाकर हाथ में ली और बगल वाली कोठरी में जाकर मोमबत्ती तारासिंह के हाथ में दे दी। इस कोठरी में एक आलमारी थी जिसके पल्लों में दो मुट्ठे लगे हुए थे। इन्हीं मुट्ठों के घुमाने से दरवाजा खुल जाता था और फिर एक कोठरी में पहुंच जाने से तहखाने में उतरने के लिए सीढ़ियां मिलती थीं। इस समय कमला ने इन्हीं दोनों मुट्ठों को कई बार घुमाया, वे घूम तो गए मगर दरवाजा न खुला। इसके बाद तारासिंह ने और फिर तेजसिंह ने भी उद्योग किया मगर कोई काम न चला। तब तो सभी का जी बेचैन हो गया और विश्वास हो गया कि उस बेईमान साधु ने जो कुछ कहा, सो किया। इस खंडहर में कोई शाहदरवाजा जरूर है जिसे साधु ने बन्द कर दिया और जिसके सबब से यह दरवाजा अब नहीं खुलता।
सब लोग उस कोठरी से बाहर निकले और उस साधु को ढूंढ़ने लगे। खंडहर में और नीम के पेड़ के नीचे आठ आदमी बेहोश पड़े हुए थे जो सब इकट्ठे किए गए। दो आदमी जो घोड़ों की हिफाजत करने के लिए रह गये थे और बेहोश नहीं हुए थे वे तो न मालूम कहां भाग ही गए थे, अब साधु रह गए सो उनके शरीर का कहीं पता न लगा। चारों तरफ खोज होने लगी।
राजा वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और तारासिंह को साथ लिए हुए कमला उस कोठरी में पहुंची जिसमें दीवार के साथ लगी हुई पत्थर की मूरत थी, जिसमें एक दफे रात के समय कामिनी जा चुकी थी, और जिसका हाल ऊपर के किसी बयान में लिखा जा चुका है। इसी कोठरी में पत्थर की मूरत के पास ही साधु महाशय बेहोश पड़े हुए थे।
तेजसिंह - (मूरत को अच्छी तरह देखकर) मालूम होता है कि शाहदरवाजे से इस मूरत का कोई सम्बन्ध है।
वीरेन्द्रसिंह - शायद ऐसा ही हो, क्योंकि मुझे यह खंडहर तिलिस्मी मालूम होता है। हाय, बेचारा लड़का इस समय कैसी मुसीबत में पड़ा है। अब दरवाजा खुलने की तरकीब किससे पूछी जाय और उसका कैसे पता लगे मेरी राय तो यह है कि इस खंडहर में जो कुछ मिट्टी-चूना पड़ा है, सब बाहर फिंकवाकर जगह साफ करा दी जाय और दीवार तथा जमीन भी खोदी जाय।
तेजसिंह - मेरी भी यही राय है।
तारासिंह - जमीन और दीवार खुदने से जरूर काम चल जायगा। तहखाने की दीवार खोदकर हम लोग अपना रास्ता निकाल लेंगे, बल्कि और भी बहुत - सी बातों का पता लग जायगा।
वीरेन्द्रसिंह - (तेजसिंह की तरफ देखकर) बहुत जल्द बन्दोबस्त करो और दो आदमी रोहतासगढ़ भेजकर एक हजार आदमी की फौज बहुत जल्द मंगवाओ। वह फौज ऐसी हो कि सब काम कर सके, अर्थात् जमीन खोदने, सेंध लगाने, सड़क बनाने इत्यादि का काम बखूबी जानती हो।
तेजसिंह - बहुत खूब।
राजा वीरेन्द्रसिंह के साथ-साथ सौ आदमी आये हुए थे। वे सब-के-सब काम में लग गये। बेहोश दुश्मनों के हाथ-पैर बांध दिये गये और उन्हें उठाकर एक दालान में रख देने के बाद सब लोग खंडहर की मिट्टी उठा-उठाकर बाहर फेंकने लगे। जल्दी के मारे मालिकों ने भी काम में हाथ लगाया।
रात हो गई। कई मशाल भी जलाये गये, मिट्टी की सफाई बराबर जारी रही, मगर तारासिंह का विचित्र हाल था, उन्हें घड़ी-घड़ी रुलाई आती थी, और उसे वे बड़ी मुश्किल से रोकते थे। यद्यपि तारासिंह ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह का हाल बहुत-कुछ झूठ-सच मिलाकर राजा वीरेन्द्रसिंह से कहा था, मगर वे बखूबी जानते थे कि इन्द्रजीतसिंह की अवस्था अच्छी नहीं है, उनकी लाश तो अपनी आंखों से देख ही चुके थे, परन्तु साधु की बातों ने उनकी कुछ तसल्ली कर दी थी। वे समझ गये थे कि इन्द्रजीतसिंह मरे नहीं, बल्कि बेहोश हैं, मगर अफसोस तो यह है कि यह बात केवल तारासिंह को ही मालूम है, भैरोसिंह को भी यदि इस बात की खबर होती, तो तहखाने में बैठे-बैठे कुमार को होश में लाने का कुछ उद्योग करते। कहीं ऐसा न हो कि बेहोशी में ही कुमार की जान निकल जाय, ऐसी कड़ी बेहोशी का नतीजा अच्छा नहीं होता है, इसके अतिरिक्त कई दिनों से कुमार बेहोशी की अवस्था में पड़े हैं, बेहोशी भी ऐसी कि जिसने बिल्कुल ही मुर्दा बना दिया, क्या जाने, जीते भी हैं या वास्तव में मर ही गये।
ऐसी - ऐसी बातों के विचार से तारासिंह बहुत ही बेचैन थे, मगर अपने दिल का हाल किसी से कहते नहीं थे।
यहां से थोड़ी दूर पर एक गांव था। कई आदमी दौड़ गये और कुदाल-फावड़ा इत्यादि जमीन खोदने का सामान वहां से ले आये और बहुत से मजदूरों को साथ लिवाते आये। रात-भर काम लगा रहा, और सवेरा होते-होते तक खंडहर साफ हो गया।
अब उस दालान की खुदाई शुरू हुई, जिसके बगल वाली कोठरी के अन्दर से तहखाने में जाने का रास्ता था। हाथ-भर तक जमीन खुदने के बाद लोहे की सतह निकल आई, जिसमें छेद होना भी मुश्किल था। यह देखकर वीरेन्द्रसिंह को भी बहुत रंज हुआ और उन्होंने खंडहर के बीच की जमीन अर्थात् चौक को खोदने का हुक्म दिया।
दूसरे दिन चौक की खुदाई से छुट्टी मिली। खुद जाने पर वहां एक छोटी-सी खूबसूरत बावली निकली, जिसके चारों तरफ छोटी-छोटी संगमरमर की सीढ़ियां थीं। यह बावली दस गज से ज्यादा गहरी न थी, और इसके नीचे की सतह तीन गज चौड़ी और इतनी ही लम्बी होगी। दो पहर दिन चढ़ते-चढ़ते उस बावली की मिट्टी निकल गई और नीचे की सतह में पीतल की एक मूरत दिखाई पड़ी। मूरत बहुत बड़ी न थी, एक हिरन का शेर ने शिकार किया था, हिरन की गर्दन का आधा हिस्सा शेर के मुंह में था। मूरत बहुत ही खूबसूरत और कीमती थी, मगर मिट्टी के अन्दर बहुत दिनों तक दबे रहने से मैली और खराब हो रही थी। वीरेन्द्रसिंह ने उसे अच्छी तरह झाड़पोंछकर साफ करने का हुक्म दिया।
वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह से कहा, “इस खुदाई में समय भी नष्ट हुआ, और कुछ काम भी न निकला।”
तेजसिंह - मैं इस मूरत पर अच्छी तरह गौर कर रहा हूं, मुझे आशा है कि कोई अनूठी बात जरूर दिखाई पड़ेगी।
वीरेन्द्रसिंह - (ताज्जुब में आकर) देखो - देखो, शेर की आंखें इस तरह घूम रही हैं जैसे वह इधर-उधर देख रहा हो!
आनन्दसिंह - (अच्छी तरह देखकर) हां, ठीक तो है!
इसी समय एक आदमी दौड़ता हुआ आया, और हाथ जोड़कर बोला, “महाराज, चारों तरफ से दुश्मन की फौज ने आकर हम लोगों को घेर लिया है। दो हजार सवारों के साथ शिवदत्त आ पहुंचा, जरा मैदान की तरफ देखिए।”
न मालूम शिवदत्त इतने दिनों तक कहां छिपा हुआ था, और वह क्या कर रहा था। इस समय दो हजार फौज के साथ उसका यकायक आ पहुंचना और चारों तरफ से खंडहर को घेर लेना बड़ा ही दुखदायी हुआ, क्योंकि वीरेन्द्रसिंह के पास इस समय केवल सौ सिपाही थे।
सूर्य अस्त हो चुका था, चारों तरफ से अंधेरी घिरी चली आती थी। फौज सहित राजा शिवदत्त जब तक खंडहर के पास पहुंचे, तब तक रात हो गई। राजा शिवदत्त को तो यह मालूम ही हो चुका था कि केवल सौ सिपाहियों के साथ राजा वीरेन्द्रसिंह, कुंअर आनन्दसिंह और उनके ऐयार लोग इसी खंडहर में हैं, परन्तु राजा वीरेन्द्रसिंह, कुमार और उनके ऐयारों की वीरता और साहस को भी वह अच्छी तरह जानता था, इसलिए रात के समय खंडहर के अन्दर डेढ़ दो सौ सिपाहियों से ज्यादा नहीं जा सकते थे, क्योंकि उसके अन्दर ज्यादा जमीन न थी, और वीरेन्द्रसिंह तथा उनके साथी इतने आदमियों को कुछ भी न समझते, इसलिए शिवदत्त ने सोचा कि रात भर इस खंडहर को घेरकर चुपचाप पड़े रहना ही उत्तम होगा। वास्तव में शिवदत्त का विचार बहुत ठीक था और उसने ऐसा ही किया भी। राजा वीरेन्द्रसिंह को भी रात भर सोचने-विचारने की मोहलत मिली। उन्होंने कई सिपाहियों को फाटक पर मुस्तैद कर दिया और उसके बाद अपने बचाव का ढंग सोचने लगे।

 

 


 

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