यदि विचारपूर्वक देखा जाए तो मानना होगा कि 'योग' एक पेचीदा पहेली है। जितने अर्थों में इस योग शब्द का प्रयोग अब तक हुआ है शायद ही किसी अन्य शब्द का उतने अर्थों में हुआ हो। यद्यपि कोषों में -

योगोऽपूर्वार्थ संप्रा प्तौ संग तिध्याहनयुक्तिषु।

वपु:स्थैर्यप्रयोगे च वि ष्कंभा दिषु भेषजे॥

विश्रब्धघातिनि द्रव्योपायसंनहनेष्वपि।

कार्मणेऽपि च योग: स्यात्...।

आदि वचनों के द्वारा नई चीज की प्राप्ति, संगति, ध्याथन, युक्ति, शरीर की दृढ़ता, प्रयोग, (ज्योतिषियों के) विष्कंभ आदि, औषधि, विश्वासघाती, द्रव्य, उपाय, कवच, तंत्र-मंत्र क्रिया, कर्मठ इन चौदह अर्थों में इसे व्यवहृत किया है और धातु पाठ में युजिर तथा युज इन दो धातुओं के तीन अर्थ योग, समाधि तथा संयमन लिखे गए हैं; तथापि इससे यह नहीं मान लेना होगा कि योग शब्द के इतने ही अर्थ हैं। केवल श्रीमद्भगवद्गीता के ही अठारह अध्याियों में प्रत्येक के प्रतिपाद्य विषय को भी 'योग' ही नाम दिया गया है - अर्जुन विषाद योग, सांख्य योग, कर्म योग आदि। इससे यह तो सिद्ध ही है कि योग शब्दार्थ के भीतर कम-से-कम अठारह पदार्थ और भी आ गए। बेशक गीता के सांख्य योग, कर्म योग आदि शब्दों के साथ ही प्रत्येक अध्यादय के अंत में पठित समाप्ति सूचक संकल्पों में 'योगशास्त्रे' को देखकर बहुत लोगों ने 'योगशास्त्र' का 'कर्मयोगशास्त्र' अर्थ कर दिया है और नारायणीय धर्म के साथ, जिसका प्रतिपादन महाभारत के शांति पर्व में आया है, गीता प्रतिपादित विषय का मिलान करके गीता में भी नारायणीय धर्म का ही निरूपण माना है और इस निर्णय पर पहुँचने में उन्होंने 'भगवद्गीता' नाम से भी सहायता ली है। कारण, नारायणीय धर्म के वक्ता जहाँ नारायण हैं तहाँ गीता धर्म के वक्ता भी भगवान या नारायण ही हैं और भगवद्गीता शब्द का यही अर्थ भी है। फिर भी हमारे जानते ऐसा करना खींच-तान की पराकाष्ठा एवं दूर की कौड़ी लाना है। आखिर 'अर्जुनविषादयोग' में, जो प्रथमाध्याौय का प्रतिपाद्य विषय है, कौन-सा कर्मयोग है? केवल तीसरे अध्या,य के अंत में संकल्प में 'कर्मयोग' आया है। बाकी में तो सांख्य योग, ज्ञानकर्मसंन्यास योग, श्रद्धात्रयविभाग योग, दैवासुरसंपद्विभाग योग आदि शब्द आए हैं। इनमें कहाँ कर्मयोग छिपा हुआ है? और अगर इन सभी का अर्थ प्रकारांतर से कर्मयोग ही करने का हठ किया जाए, जो असंभव है, तो फिर योग शब्द वही भानमती की पिटारी ही सिद्ध हो जाता है और इसके भीतर संसार भर के पदार्थों का समावेश हो ही जाता है। इससे अच्छा है कि गीता के प्रत्येक अध्याभय के प्रतिपाद्य विषयों को ही योग नाम दे डालें और भगवद्गीता नाम उसका केवल इसीलिए मान लें कि उसमें सर्वत्र 'भगवानुवाच' यही लिखा है। न कि नारायणीय धर्म से इसका कोई भी संबंध है। इसीलिए 'भगवद्गीता' यह स्त्री लिंग नाम भी ठीक हो जाता है। क्योंकि यह गीता तो शब्दांतर से भगवान के द्वारा गाई हुई (उपदिष्ट) उपनिषद् ही है और उपनिषद् शब्द के स्त्री लिंग होने के कारण उसका विशेषण रूप गीता शब्द भी स्त्रीटलिंग हो गया है। यदि नारायणीय धर्म की बात होती तो 'भगवानुवाच' की जगह 'नारायण उवाच' कहते और नाम भी नारायणगीता रखते। या नहीं तो धर्म शब्द का खयाल करके पुल्लिंग या नपुंसकलिंग 'गीत:' 'गीतम्' रखते।

लेकिन इतने से ही योग के शब्दार्थ का निश्चय तो हो नहीं जाता और योग क्या है यह पहेली सुलझने के बजाए और भी उलझ जाती है। बहुत लोग यह समझते होंगे कि पतंजलि के योग दर्शन में शायद इसकी सुलझन हो। लेकिन उन्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि जहाँ गीता के अठारहों अध्याायों में सब मिलाकर योग, युक्त, युंजन आदि अर्थात उसी युज धातु से बने शब्दों का प्रयोग प्राय: डेढ़ सौ बार आया है और यदि इसी में हर एक अध्या य के समाप्ति संकल्प में दो-दो बार लिखे योग शब्द को जोड़ दें तो एक सौ नब्बे से अधिक या प्राय: दो सौ बार आया है ऐसा कह सकते हैं, तहाँ योग दर्शन में कुल मिलाकर केवल नौ-दस ही बार इसका प्रयोग हुआ है और उसमें भी योग के अर्थ में केवल चार ही बार, जैसा कि पहले पाद के दूसरे, दूसरे के पहले और अट्ठाईसवें और चौथे के सातवें सूत्रों से स्पष्ट है। इसके विपरीत गीता के प्राय: सभी प्रयोग इसी अर्थ में हैं। अत: यह तो मानना ही होगा कि योग शब्द को किसी-न-किसी रूप में गीता में जितनी बार दुहराया गया है उतनी बार शायद ही किसी और पुस्तक में दुहराया है। एक बात और है। गीता में योग शब्द के अभ्यास के साथ ही उसका निर्वचन भी स्पष्ट रूप से दो श्लोकों में जरूर किया है और वे हैं द्वितीय अध्या य के 48 तथा 50 श्लोक जिनमें लिखा है कि 'कर्म और उसके फल में लिपटने के भाव (आसक्ति) को छोड़ और उद्देश्य पूरा होने-न-होने में बेफिक्र होकर योग-बुद्धि से कर्म करो, क्योंकि इसी अनासक्ति (आसक्ति त्याग) और पूरा होने-न-होने में बेफिक्री को - समता को योग कहते हैं।' - 'कर्म के संबंध की विशेषता को - कौशल को - योग कहते हैं।'

योगस्थ: कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय। सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥

(गीता 2। 48)

' योग: कर्मसु कौशलम् ' (गीता 2। 50)

यद्यपि योग दर्शन में भी 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:' (1। 2) तथा 'तप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधनानि क्रिया योग:' (2। 1) सूत्रों में योग शब्द की व्याख्या की गई है। फिर भी वह दूसरे ढंग की है - संकुचित एवं एकदेशी है। वह व्याख्या केवल योग दर्शन वालों के ही काम की है और यह तो मानना ही होगा कि योग-दर्शन जनसाधारण की पहुँच के परे की चीज है - व्यावहारिक जीवन की चीज़ नहीं है। उससे केवल विरक्त या अध्यासत्मँवादी ही लाभ उठा सकते हैं जिनकी संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है, संसार तो दिन-रात कामों (कर्म) में लिप्त है, फँसा है, उसे चित्तवृत्ति निरोध से क्या काम? फलत: जिन कामों को वह कर रहा है उनसे उसे न हटाकर भी कोई ऐसी युक्ति (तरकीब) बताई जाए जिससे अभीष्ट की सिद्धि और असिद्धि, हार-जीत, हानि-लाभ आदि की उसके दिल पर चोट न पहुँचे और हर हालत में वह एक-सा रहे - निर्द्वंद्व रहे तथा जनक की तरह हिम्मत से कह सके कि समूची मिथिला जली सही, लेकिन मेरा क्या जला?

मिथिलायां प्रदग्धायां न मे किंचन दह्यते।

- तो कितना सुंदर हो, कितना अच्छा हो और इस बेहाल दुनिया को वह कितनी रुचे! इतना ही नहीं, काम करते-करते थक गए और नतीजा कुछ न हुआ तो फिर शुरू किया और इस तरह करते-करते थक गए, मरने की नौबत आ गई, फिर भी यदि काम छूट जाने का मौका आया तो मारे चिंता के जलने लगे, यहाँ तक कि अंत दम में भी उस काम की फिक्र से ही बेहाल हैं! ठीक वही हालत है कि बंदरी का बच्चा तो मर गया, मगर वह उसे फिर भी छाती से चिपकाए फिरती है और छोड़ना नहीं चाहती। ऐसी मनोवृत्ति भी कैसी भयंकर और दु:खद है! यह कर्म की ममता भी कैसी भयावनी है! ठीक वैसी भी है, जैसी फल की। आसक्ति सभी बुरी है फिर वह चाहे फल की हो या कर्म की, वह समुद्र या नदी में तैरनेवाले के गले की चक्की है। फल जब तक कच्चा है, डाल में लगा रहता है और बलात उसका तोड़ना ठीक नहीं है। साथ ही, पकने पर जब वह अनायास डाल (वृंत) से छूट रहा तो हठात वृंत में ही उसे चिपकाए रखना या रखने की कोशिश कम बुरी नहीं है, ऐसा करना तो फल, वृंत, डाल, वृक्ष सभी को बेकार बनाना है। ऐसी हालत में यदि इस मनोवृत्ति को हटाने का कोई उपाय हो तो कितना बढ़िया हो, रमणीय हो! यह उपाय, तरकीब या रास्ता योग दर्शन के अरण्य में मिलने का नहीं, इसीलिए भर्तृहरि ने कहा है और ठीक ही कहा है कि योग में तो रोगों का खतरा है - 'योगे रोगभयम्'। परिणाम यह होता है कि साधारण जनता की ज्ञानपिपासा और आकांक्षा योग दर्शन के पढ़ने के बाद भी शांत नहीं होती। वह या तो उसे समझ पाती ही नहीं या उसे अपने लिए बेकार समझती है। साथ ही सांसारिक झंझटों में लिप्त रहने के कारण कार्यों के फलाफल से होने वाली वेदनाओं से समय-समय पर ऊबकर उनसे छुटकारा भी चाहती है जो सहज हो। क्योंकि समय-समय पर की यह ऊब तो केवल मसानियाँ वैराग्य है, स्वभावत: लोग कामों से तो अलग हो ही नहीं सकते, उन्हें कामों में ही मज़ा आता है। हाँ, कभी-कभी वह मज़ा किरकिरा हो जाया करता है और उसी किरकिरेपन से पिंड छुड़ाने की इच्छा लोगों को स्वभावत: रहती है और गीता के 'योग' निर्वचन की खूबी, इसी में है कि वह उस आकांक्षा की पूर्ति करता है, यद्यपि आज हमें यह बात विदित न हो और मतवाद एवं सांप्रदायिक आग्रह में पड़कर हमने गीता के इस रहस्य को भुला दिया हो, तथापि गीता के सर्वाधिक लोकप्रिय बनने का प्रारंभिक कारण यही है कि जन-साधारण के भावों को समझ उन्हीं के उपयुक्त साधनों के संपादन द्वारा उनकी पूर्ति का उपाय उसमें बताया गया है।

बहुत लोगों के मन में यह शंका होती है कि गीता में ही योग की दो परिभाषाएँ क्यों कर दी गई हैं जो परस्पर मेल नहीं खाती हैं। एक में तो 'समत्व' का नाम योग रक्खा गया है और दूसरे में 'कौशल' का। समत्व कर्म तथा फल की अनासक्ति है जो निषेधात्मक है और कर्म में 'कौशल' विशेषज्ञता या विशेष रूप की जानकारी है जो भावात्मक है। कुशल या विशेषज्ञ (specialist) तो वही होता है जो उस वस्तु के रग-रेशे को रत्तीत-रत्तीञ जाने। ऐसी हालत में तो यह विशेष ज्ञान विधानात्मक (positive) हुआ और पूर्वोक्त अनासक्ति निषेधात्मक (negative)। लेकिन यदि थोड़ा भी प्रवेशपूर्वक देखा जाए तो यह बात नहीं है। आखिर योग के उक्त दोनों निर्वचन गीता के द्वितीय अध्याशय में ही नहीं, किंतु पास-पास के ही श्लोकों में लिखे गए हैं। 48 और 50 के बीच में तो केवल 49 संख्या वाला श्लोक ही व्यवधायक है। बल्कि 49वें श्लोक में जो 'बुद्धियोग' शब्द आया है उसी का स्पष्टीकरण 50वें में है। फलत: व्यवधान भी नहीं है, किंतु दोनों निर्वचन आगे-पीछे मिले ही हुए हैं। ऐसी दशा में पूर्वापर विरोध का अवसर ही कहाँ? जब साधारण मनुष्य भी एक साथ बोलने में एक समय पूर्वापर विरोध से बचता है तो फिर गीतोपदेशक श्रीकृष्ण या गीता के पदबद्धकर्त्ता व्यास का क्या कहना? असल में यह मानव स्वभाव है कि बुरा-भला जो कुछ किया जाता है उसका, उसके फल का तथा संसार में निरंतर होनेवाली घटनाओं का प्रभाव दिल-दिमाग पर आत्मा पर - पड़ता ही है। यह असंभव है कि आईने के सामने कोई पदार्थ लाया जाए और उसकी छाया उसमें न पड़े - प्रतिबिंब न दीखे। और घटना-चक्र का यही आत्मा पर पड़ने वाला प्रभाव हमारे सभी कष्टों एवं वेदनाओं का कारण है। जब तक दिल-दिमाग दुरुस्त हैं, काम करते हैं तब तक ये वेदनाएँ अनिवार्य हैं। गाढी नींद के बाद जब कोई हृष्ट-पुष्ट मनुष्य उठता है तो उसके दिल-दिमाग शांत और एकरस - सम मालूम होते हैं और इस दशा को हम दूसरे शब्दों में बैलेंस्ड (balanced) कह सकते हैं। लेकिन उसके बाद घटनाचक्र के करते रसभंग शुरू होता है और मनुष्य कभी प्रसन्न और कभी खिन्न होता है, कभी रोता है तो कभी हँसता और कभी उदासीन बनता है। यही विषमता की (Unbalanced) अवस्था उसके दिल-दिमाग की है। यदि यह अवस्था न आवे तो जिंदगी कितनी मजेदार हो, जीवन कितना सरस हो, जैसा कि अबोध बच्चों में प्राय: पाया जाता है। गाढ़ निद्रा और बेहोशी की हालत में भी इस विषमता का पता नहीं रहता, मानो आईना बंद है और प्रतिबिंब नहीं पड़ते। मानव-हृदय और मानव-मस्तिष्क इतने भावग्राही हैं, भाव-व्यंजक हैं, संसर्गग्राही हैं, (sensitive) हैं कि प्रत्येक घटना का प्रभाव लिए बिना नहीं रहते, अवश्य प्रभावित हो जाते हैं। इधर हमारी हालत यह है कि अच्छे भावों और उनके परिणामों के साथ तो तन्मय होना हमें पसंद है लेकिन असद्भावों और दुष्परिणामों से बचना चाहते हैं। यह परस्पर विरोधी बातें हैं। यह ऐसी ही हैं जैसी दिन को चाहकर रात को न चाहना। संसार तो परिणामी है, परिवर्तनशील है। फलत: अच्छे के बाद बुरे और बुरे के बाद अच्छे का आना अनिवार्य है। इसमें कोई अंतर नहीं कि हम दु:ख चाहें या सुख। इन दोनों को तो अयुत सिद्ध कहना चाहिए जिसके मानी हैं कि एक के बिना दूसरा रह ही नहीं सकता। अतएव बुद्धिमानी इसी में है कि हम एक को भी न चाहें। यह कोई असंभव बात नहीं। हाँ, कठिन अवश्य है। और जब यह दशा प्राप्त हो गई तो दिल-दिमाग एकरस (balanced) रहते हैं, सम रहते हैं। इसी दशा का नाम 'समत्व' है जिसका उल्लेख उक्त 48वें श्लोक में है।

कही चुके हैं कि कामों का प्रभाव दिल-दिमाग पर पड़ता ही है। बल्कि यों कहना चाहिए कि कर्मों के फल के रूप में जो हानि-लाभ, जय-पराजय, सुख-दु:ख आदि होते हैं उनका अनुभव दिल-दिमाग तभी करते हैं, उनसे प्रभावित तभी होते हैं, जब उन कर्मों से पहले प्रभावित हो लेते हैं। बीज में अंकुर उत्पादन की शक्ति होती है जो प्रतीत नहीं होती। लेकिन भाड़ में डाल देने पर वह शक्ति नष्ट हो जाती है यद्यपि बीज ज्यों-का-त्यों रहता है। ठीक यही दशा कामों की है। जो काम हमारे दिल-दिमाग को प्रभावित नहीं करते उनकी सुख-दु:खानुभावक शक्ति नष्ट हो जाती है। बेहोश आदमी को छुरी भोंकने की जानकारी न होने से उसके बाद होनेवाली पीड़ा का भी अनुभव नहीं होता।...अतएव बुरे-भले कर्मों के साथ यदि हमारी तन्मयता छूट जाए तो फिर उनके फलों से भी पिंड अनायास ही छूटे। इसके लिए यदि कोई हिकमत, उपाय या तदवीर हो तो क्या खूब! काम करने से तो पिंड छूट नहीं सकता। मजबूरन कुछ-न-कुछ करना ही पड़ता है -

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।

कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:॥

( गीता 3। 5)

फिर कर्मों से बचने की निरर्थक कोशिश से क्या प्रयोजन और क्या प्रयोजन इस बेहूदा दुराग्रह से कि मैं अमुक कर्म करूँगा ही? एकमात्र उनकी आसक्ति से बचने की कोशिश में बुद्धिमानी है जिससे फल भोगने न पड़ें। इसी बुद्धिमानी को, चातुरी को, कौशल को 'योग' कहा है उक्त 50वें श्लोक में और यह कौशल वही अनासक्ति या समता या दिल-दिमाग का balance है। इस प्रकार देखने से दोनों में विरोध कहाँ है? बात असल यह है कि 48वें श्लोक में 'समत्व' नामक जिस योग का उल्लेख किया है उसी का विशदीकरण 49, 50, 51 आदि आगे के श्लोकों में किया है और कहा है कि कर्मों को करता हुआ भी ऐसी बुद्धिमत्ता का संपादन करे, ऐसे कौशल को प्राप्त करे जिससे सिद्धि, असिद्धि में हमेशा बेफिक्र रहे। क्योंकि बिना ऐसी बुद्धिमत्ता के सुकृत-दुष्कृत या भले-बुरे कर्मों तथा उनके फलों से छुटकारा नहीं हो सकता। इसके बाद के 51वें श्लोक 'कर्मजं बुद्धियुक्ता हि' में फिर उसी बुद्धिमत्ता का विवेचन किया है और दिखलाया है कि किस प्रकार अनासक्ति या समत्वज्ञानरूपी बुद्धिमत्ता के प्राप्त होने पर जन्म-मरण से छुटकारा हो जाता है।

गीता के इस योग का निष्कर्ष यह है कि मनुष्य को किसी प्रकार का आग्रह कर्म के संबंध में नहीं होना चाहिए। प्राकृत नियमों के अनुसार प्रवाह पतित कर्मों से भागना भी ठीक नहीं और अगर संस्कारवश कर्म अपने-आप ही छूट जाएँ या एक छूटकर उसकी जगह दूसरा आ जाए तो हर हालत में महाभारतोक्त धर्मव्याध की तरह उसमें भला-बुरा नहीं मानना चाहिए। क्योंकि न तो कर्मों में ही कुछ रक्खा है और न उनके त्याग में ही। कर्मों के करने या उनके त्याग के संबंध में जो हमारी मनोवृत्ति है, भावना है वही असल चीज है और उसी के संपादन में हमारा ध्याीन रहना चाहिए। यदि कर्मों में हमारी आसक्ति या ममता न हो तो वे हमसे छूट जाएँगे, यह धारणा भ्रांत है। कर्म तो सृष्टि के नियमांतर्गत हैं। फिर वे छूटेंगे कैसे? और अगर उन्हें छूटना ही है तो आसक्ति या ममता उन्हें रख नहीं सकती। प्रत्युत यह आसक्ति विचार को अंधा और दुर्बल बना देती है। कारण, आसक्ति तो एक प्रकार का हठ है और हठ के साथ विवेक का संबंध ही क्या? आसक्ति में बहुत बड़ा दोष है कि वह मनुष्य को अधीर बना देती है, साहसहीन कर देती है और अधीरता की दशा में कोई भी काम ठीक-ठीक किया ही नहीं जा सकता। यह तो केवल कर्म की आसक्ति की बात है। फल की आसक्ति तो और भी बुरी है। वह मनुष्य के ध्यासन को बाँट देती है और जब ध्यान बलात फल की ओर चला जाता है तो पूरी शक्ति से कर्म का अनुष्ठान हो नहीं सकता। साथ ही, जिस पर आसक्ति होती है उसी पर अधिक दृष्टि होती है। फल यह होता है कि कर्म या फल पर आसक्ति के करते उसी में दृष्टि बँध जाती है और कर्म के साधनों पर पूर्ण दृष्टि नहीं रहती। परिणाम यह होता है कि साधन-संपत्ति पूर्ण न होने से क्रिया (कर्म) ठीक नहीं होती, जिससे फल भी संदिग्ध रहता है। अतएव कर्म या उसके फल की ओर से दृष्टि हटाकर कर्म के साधनों पर रखनी चाहिए। एतदर्थ दोनों की आसक्ति त्याज्य है। बात भी है कि जब मनोयोगपूर्वक कर्म के साधन ठीक रहेंगे तो कर्म की पूर्ति और उसके द्वारा फल की सिद्धि को कोई रोक नहीं सकता, वह अनिवार्य है। ऐसी दशा में कर्म और फल दोनों की आसक्ति सर्वथा हेय है और जब वह रही ही नहीं तो दिल-दिमाग की समता (Balance) अवश्य ही रहेगी। गीता के 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' (2। 47), 'कृपणा: फलहेतव:' (2। 49), आदि का यही भाव है।

हृदय तथा मस्तिष्क इस समता (balance) को पातंजल योग वाले भी अपने रास्ते से प्राप्त करना चाहते हैं। लेकिन यह मार्ग साधारण लोगों के लिए, जिनमें संसार से वैराग्य नहीं है, नहीं बताया गया है। क्योंकि 'अभ्यासवैराग्याभ्यां सन्निरोध:' (1। 12) सूत्र के द्वारा योग की सिद्धि अभ्यास और वैराग्य दोनों की सहायता से बताई गई है। इसीलिए इस योग को हम व्यावहारिक नहीं कहते। जीते जी मृतक बनने को कितने लोग तैयार हो सकते हैं? दूसरी ओर गीता का योग है। इसमें किसी भी काम की मनाही नहीं है। प्रत्युत 'कर्मज्यायो ह्यकर्मण:' ( गीता 3। 8) के द्वारा नहीं करने की अपेक्षा कुछ भी करना अच्छा बताया गया है। यह भी नहीं कि कर्म के फल से वंचित करने का यत्न किया गया हो। प्रत्युत जहाँ आसक्ति के करते फल संदिग्ध रहता है, तहाँ गीता ने अनासक्ति के द्वारा उसे और भी निश्चित कर दिया है, कारण, कर्मों के सुसंपादन से उनके फल अवश्यंभावी हैं। यह भी नहीं कि किन्हीं विशेष प्रकार के कर्मों में कोई महत्ता रक्खी गई हो। वहाँ तो -

यत्करोपि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।

( गीता 9। 27)

- के द्वारा साधारण खान-पान से लेकर यज्ञ-हवनादि सभी के द्वारा समान रूप से कल्याण लिखा हुआ है। यम, नियमादि कठिन व्रतों का भी प्रश्न नहीं है और प्राणायाम, आसन आदि का भी नहीं। किंतु सभी कुछ करते-करते रहने पर भी या तो यह भाव रखना कि इन कर्मों के द्वारा हम भगवान की पूजा करते हैं, या यह कि प्रकृति नियम के वश ये हमारे लिए कर्तव्य हैं, इसी से इन्हें करते हैं, अथवा जो कुछ करते हैं वह यज्ञ हो रहा है -

तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥ ( गीता 9।27) कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन। ( गीता 18।9) यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र। ( गीता 3।9)

- बस, इन तीनों में से किसी भी भावना से, लेकिन कर्म के करने, न करने या उसकी फल की आसक्ति छोड़कर, जितने भी कर्म छोटे से बड़े तक (यहाँ तक कि मल-मूत्र त्याग से लेकर समाधि तक) किए जाते हैं, सभी कल्याणकारक होते हैं। इस प्रकार 'आम का आम और गुठली का दाम' चरितार्थ होता है। क्योंकि एक तो कोई विशेष परिश्रम या तैयारी नहीं करनी पड़ती, दूसरे कर्मों के सांसारिक फल भी मिलते ही हैं, तीसरे दिल-दिमाग की एकरसता (balance) बनी रहती है जिससे जीवन किरकिरा नहीं होता। चौथे परलोक में बंधन नहीं होता और अंत में कल्याण होता है। यद्यपि प्रारंभिक अवस्था में ये सभी बातें नहीं होती हैं किंतु धीरे-धीरे एक के बाद दूसरी होती हैं। फिर भी इनका होना असंभव नहीं। साथ ही यह मार्ग साधारण लोगों के लिए भी सुकर होने से सार्वभौम एवं व्यावहारिक है। यही गीता के योग की विशेषता है और इसी से इसे सार्वभौम धर्म कहते हैं। इसके अनुसार किसी भी हिंदू, मुसलमान, क्रिस्तान आदि संप्रदाय का मनुष्य समान रूप से कल्याण प्राप्त कर सकता है -

श्रे यांस्व धर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

(गीता 18। 47)

-का भी यही अभिप्राय है। यदि गीता का यह योग प्रचलित हो जाए तो धार्मिक कलह स्वयमेव विलीन हो जाएँ।

जैसा कि पहले कह चुके हैं गीता में योग शब्द का प्रयोग प्राय: दो सौ बार आया है - सभी अध्या यों में यह शब्द ओत-प्रोत है। केवल प्रथम और सत्रहवें अध्या:य के श्लोकों में यह नहीं मिलता। यह भी बात है कि सर्वत्र योग शब्द का प्रयोग हमारे बताए अर्थ में ही नहीं हुआ है, किंतु पातंजलयोग के अर्थ में तथा कोष में निर्दिष्ट अर्थों में भी हुआ है और प्रत्येक अध्याहय के प्रतिपाद्य विषय की भी योग संज्ञा गीता में है। फिर भी यह गीता की कोई माननीय विशेषता नहीं है और इससे जनता का कोई विशेष लाभ नहीं। गीता ने मनुष्य के व्यावहारिक जीवन की पारमार्थिक या पारलौकिक जीवन के साथ एकता करके उसे जो सर्वजनसाध्यक व्यावहारिकता प्रदान की है यही उसकी विशेषता एवं उपादेयता का कारण है। चाहे घर में हो या जंगल में, हल जोतता हो या समाधिस्थ हो, नमाज पढ़ता हो, प्रार्थना करता हो या संध्योपासन में लगा हो, हर हालत में वह समान रूप से कल्याण का अधिकारी हो सकता है, इसे गीता ने दार्शनिक रूप से बताया है। यह बात इस रूप में कहीं नहीं मिलती। यह गीता की देन है - उसकी अपनी वस्तु है और यही गीता का योग है।

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