यह उसकी रानी को अच्छा न लगता। न वह व्रत करती और न ही किसी को एक पैसा दान में देती। राजा को भी ऐसा करने से मना किया करती। एक समय की बात है कि राजा शिकार खेलने वन को चले ग‌ए। घर पर रानी और दासी थी। उस समय गुरु वृहस्पति साधु का रुप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा मांगने आ‌ए। साधु ने रानी से भिक्षा मांगी तो वह कहने लगी, हे साधु महाराज। मैं इस दान और पुण्य से तंग आ ग‌ई हूँ। आप को‌ई ऐसा उपाय बता‌एं, जिससे यह सारा धन नष्ट हो जाये और मैं आराम से रह सकूं।

साधु रुपी वृहस्पति देव ने कहा, हे देवी। तुम बड़ी विचित्र हो। संतान और धन से भी को‌ई दुखी होता है, अगर तुम्हारे पास धन अधिक है तो इसे शुभ कार्यों में लगा‌ओ, जिससे तुम्हारे दोनों लोक सुधरें।

परन्तु साधु की इन बातों से रानी खुश नहीं हु‌ई। उसने कहा, मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं, जिसे मैं दान दूं तथा जिसको संभालने में ही मेरा सारा समय नष्ट हो जाये।

साधु ने कहा, यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो जैसा मैं तुम्हें बताता हूं तुम वैसा ही करना। वृहस्पतिवार के दिन तुम घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिट्टी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से हजामत बनाने को कहना, भोजन में मांस मदिरा खाना, कपड़ा धोबी के यहाँ धुलने डालना। इस प्रकार सात वृहस्पतिवार करने से तुम्हारा समस्त धन नष्ट हो जायेगा। इतना कहकर साधु बने वृहस्पतिदेव अंतर्धान हो गये।

साधु के कहे अनुसार करते हु‌ए रानी को केवल तीन वृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो ग‌ई। भोजन के लिये परिवार तरसने लगा। एक दिन राजा रानी से बोला, हे रानी। तुम यहीं रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूँ, क्योंकि यहां पर मुझे सभी जानते है। इसलिये मैं को‌ई छोटा कार्य नही कर सकता। ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया। वहां वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता। इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा।

इधर, राजा के बिना रानी और दासी दुखी रहने लगीं। एक समय जब रानी और दासियों को सात दिन बिना भोजन के रहना पड़ा, तो रानी ने अपनी दासी से कहा, हे दासी। पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है। वह बड़ी धनवान है। तू उसके पास जा और कुछ ले आ ताकि थोड़ा-बहुत गुजर-बसर हो जा‌ए।

दासी रानी की बहन के पास ग‌ई। उस दिन वृहस्पतिवार था। रानी का बहन उस समय वृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी। दासी ने रानी की बहन को अपनी रानी का संदेश दिया, लेकिन रानी की बहन ने को‌ई उत्तर नहीं दिया। जब दासी को रानी की बहन से को‌ई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुखी हु‌ई। उसे क्रोध भी आया। दासी ने वापस आकर रानी को सारी बात बता दी। सुनकर, रानी ने अपने भाग्य को कोसा।

उधर, रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आ‌ई थी, परन्तु मैं उससे नहीं बोली, इससे वह बहुत दुखी हु‌ई होगी। कथा सुनकर और पूजन समाप्त कर वह अपनी बहन के घर ग‌ई और कहने लगी, हे बहन। मैं वृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी। तुम्हारी दासी ग‌ई परन्तु जब तक कथा होती है, तब तक न उठते है और न बोलते है, इसीलिये मैं नहीं बोली। कहो, दासी क्यों ग‌ई थी।

रानी बोली, बहन। हमारे घर अनाज नहीं था। ऐसा कहते-कहते रानी की आंखें भर आ‌ई। उसने दासियों समेत भूखा रहने की बात भी अपनी बहन को बता दी। रानी की बहन बोली, बहन देखो। वृहस्पतिदेव भगवान सबकी मनोकामना पूर्ण करते है। देखो, शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो। यह सुनकर दासी घर के अन्दर ग‌ई तो वहाँ उसे एक घड़ा अनाज का भरा मिल गया। उसे बड़ी हैरानी हु‌ई क्योंकि उसे एक एक बर्तन देख लिया था। उसने बाहर आकर रानी को बताया। दासी रानी से कहने लगी, हे रानी। जब हमको भोजन नहीं मिलता तो हम व्रत ही तो करते है, इसलिये क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाये, हम भी व्रत किया करेंगे। दासी के कहने पर रानी ने अपनी बहन से वृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा। उसकी बहन ने बताया, वृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें तथा दीपक जलायें। पीला भोजन करें तथा कथा सुनें। इससे गुरु भगवान प्रसन्न होते है, मनोकामना पूर्ण करते है। व्रत और पूजन की विधि बताकर रानी की बहन अपने घर लौट आ‌ई।

रानी और दासी दोनों ने निश्चय किया कि वृहस्पतिदेव भगवान का पूजन जरुर करेंगें। सात रोज बाद जब वृहस्पतिवार आया तो उन्होंने व्रत रखा। घुड़साल में जाकर चना और गुड़ बीन ला‌ईं तथा उसकी दाल से केले की जड़ तथा विष्णु भगवान का पूजन किया। अब पीला भोजन कहाँ से आ‌ए। दोनों बड़ी दुखी हु‌ई। परन्तु उन्होंने व्रत किया था इसलिये वृहस्पतिदेव भगवान प्रसन्न थे। एक साधारण व्यक्ति के रुप में वे दो थालों में सुन्दर पीला भोजन लेकर आ‌ए और दासी को देकर बोले, हे दासी। यह भोजन तुम्हारे लिये और तुम्हारी रानी के लिये है, इसे तुम दोनों ग्रहण करना। दासी भोजन पाकर बहुत प्रसन्न हु‌ई। उसने रानी को सारी बात बतायी।

उसके बाद से वे प्रत्येक वृहस्पतिवार को गुरु भगवान का व्रत और पूजन करने लगी। वृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास धन हो गया। परन्तु रानी फिर पहले की तरह आलस्य करने लगी। तब दासी बोली, देखो रानी। तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थी, तुम्हें धन के रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गाय। अब गुरु भगवान की कृपा से धन मिला है तो फिर तुम्हें आलस्य होता है। बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है, इसलिये हमें दान-पुण्य करना चाहिये। अब तुम भूखे मनुष्यों को भोजन करा‌ओ, प्या‌ऊ लगवा‌ओ, ब्राहमणों को दान दो, कु‌आं-तालाब-बावड़ी आदि का निर्माण करा‌ओ, मन्दिर-पाठशाला बनवाकर ज्ञान दान दो, कुंवारी कन्या‌ओं का विवाह करवा‌ओ अर्थात् धन को शुभ कार्यों में खर्च करो, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़े तथा स्वर्ग प्राप्त हो और पित्तर प्रसन्न हों। दासी की बात मानकर रानी शुभ कर्म करने लगी। उसका यश फैलने लगा।

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