गंगा नदी
से सटा एक पोखरा था, जिसके प्राणी इच्छानुसार नदी का
भ्रमण कर वापिस भी आ जाते थे।
जलचर आदि अनेक प्राणियों को दुर्भिक्ष-काल की
सूचना पहले ही प्राकृतिक रुप से प्राप्य होती है।
अत: जब पोखर-वासियों ने आने वाले
सूखे का अन्देशा पाया वे नदी को पलायन कर गये। रह गया तो सिर्फ एक कछुआ क्योंकि उसने
सोचा:
"हुआ था मैं पैदा यहाँ
हुआ हूँ मैं युवा यहाँ
रहते आये मेरे माता-पिता भी यहाँ
जाऊँगा मैं फिर यहाँ से कहाँ!"
कुछ ही दिनों में पोखर का पानी सूख गया और वह केवल गीली मिट्टी का दल-दल दिखने
लगा। एक दिन एक कुम्हार और उसके मित्र चिकनी मिट्टी की तलाश
में वहाँ आये और कुदाल से मिट्टी निकाल-निकाल कर अपनी टोकरियों
में रखने लगे। तभी कुम्हार का कुदाल मिट्टी
में सने कछुए के सिर पड़ी। तब कछुए को अपनी आसक्ति के दुष्प्रभाव का ज्ञान हुआ और दम तोड़ते उस कछुए ने कहा:-
"चला जा वहाँ
चैन मिले जहाँ
जैसी भी हो वह जगह
जमा ले वहीं धूनी
हो वह कोई
वन, गाँव या हो तेरी ही जन्म-भूमि
मिलता हो जहाँ तुझे खुशी का जीवन
समझ ले वही है तेरा घर और मधुवन"