जो ग्रंथ इतना प्राचीन है, जिसकी बौद्ध संप्रदाय में महान प्रतिष्ठा है, तथा अन्य विद्वानों ने भी जिसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है, उसमें सामान्य व्यावहारिक नीति के अतिरिक्त कैसा तत्वचिंतन उपस्थित किया गया है, इसकी स्वभावत: जिज्ञासा होती हैं। ग्रंथ में बौद्धदर्शनसम्मत त्रिशरण, चार आर्यसत्य तथा अष्टांगिक मार्ग का तो उल्लेख है ही (गा. 190-192), किंतु उसमें आत्मा, निर्वाण, पुनर्जन्म, पुण्य-पाप वा स्वर्ग नरक आदि ऐसी बातों पर भी कुछ स्पष्ट विचार पाए जाते हैं जिनके संबंध में स्वयं बौद्ध धर्म के नाना संप्रदायों में मतभेद है। यहाँ स्वयं भगवान बुद्ध कहते हैं, "मैं अनेक जन्मों रूप संसार में लगातार दौड़ा और उस गृहकारक शरीर के निर्माता को ढूंढता फिरा, क्योंकि यह बार-बार का जन्ममरण दु:खदायी है। रे गृहकारक, अब मैंने तुझे देख लिया, अब तू पुन: घर न बना पावेगा। मैंने तेरी सब कड़ियों को भग्न कर डाला, गृहकूट बिखर गया, चित्त संस्काररहित हो गया और मेरी तृष्णा क्षीण हो गई" (गा. 153-54) यहाँ एक जीव और उसके पुनर्जन्म तथा संस्कार व तृष्णा के विनाश द्वारा पुनर्जन्म से मुक्ति की मान्यता सुस्पष्ट है। मोक्ष का स्वरूप एवं उसे प्राप्त करने की क्रिया का यहाँ इस प्रकार वर्णन है- "जिनके पापों का संचय नहीं रहा या जिनका भोजनमात्र परिग्रहशेष रहा है, तथा आस्रव क्षीण हो गए हैं, उनको वह शून्यात्मक व अनिमित्तक मोक्ष गोचार है (गा. 92-93)। यहाँ पापबंध के कारणों, आस्रवों तथा संचित कर्मों के क्षय से मोक्षप्राप्ति मोक्ष के शून्यात्मक और अनिमित्तक स्वरूप का विधान किया गया है। "कोई पापकर्मी गर्भ से मनुष्य या पशुयोनि में उत्पन्न होते हैं, कोई नरक हो और कोई सुमति द्वारा स्वर्ग को जाते हैं, तथा जिनके आस्रव नहीं रहा वे परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं। अंतरिक्ष, समुद्र, पर्वतविवर आदि जगत् भर में ऐसा कोई प्रदेश नहीं जहाँ जाकर पापी कर्मफल पाने से छूट सके" (गा. 126-27) "असत्यवादी पापी और असंयमी कषायधारी भिक्षु प्रमादी, परधरसेवी, मिथ्यादृष्टि आदि सब नरकगामी है" (306-09)। यहाँ जीव की गर्भ योनि, नरक, स्वर्ग व मुक्ति इन गतियों तथा कर्मफल की अनिवार्यता की स्वीकृति में संदेह नहीं रहता। ब्राह्मण का स्वरूप एक पूरे वग्ग (गा. 383-423) में बतलाया गया है, जो ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं। जाति, गोत्र, जटा तथा मृगचर्म मात्र से एवं भीतर मैला रहकर बाहर मल मलकर स्नान करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता। मैं तो ब्राह्मण उसी को कहूँगा जो कामतृष्णा का त्यागी, अनासक्त, अहिंसक, मन-वचन-काय से पापहीन, रागद्वेष मान से रहित, क्षमाशील, ज्ञानी, ध्यानी, क्षीणस्रव अरहंत हैं। 100 वर्षों तक प्रति मास सहस्रों का दान देते हुए यज्ञ करनेवाले की अपेक्षा एक मूहर्तमात्र आत्मभावना से पूजा करनेवाला श्रेष्ठ है (गा.106)

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