श्रीपराशरजी बोले

सत्वतके भजन, भजमान, दिव्य, अन्धक, देवावृध महाभोज और वृष्णि नामक पुत्र हुए ॥१॥

भजमनाके निमि, कृकण और वृष्णि तथ इनके तीन सौतेले भाइ शतजित सहस्त्रजित् और अयुतजित- ये छः पुत्र हुए ॥२॥

देवावृधके बभ्रु नामक पुत्र हुआ ॥३॥

इन दोनों ( पिता - पुत्रों ) के विषयमें यह श्‍लोक प्रसिद्ध है ॥४॥

'जैसा हमने दुरसे सुना था वैसा ही पास जाकर भी देखा; वास्तवमें बभ्रु मनुष्योंमें श्रेष्ठ है और देवावृध तो देवताओंके समान है ॥५॥

बभ्रु और देवावृध ( के उपदेश किये हुए मार्गका अवलम्बन करने ) से क्रमशः छः हजार चौहत्तर (६०७४) मनुष्योंने अमरपद प्राप्त किया था' ॥६॥

महाभोज बड़ा धर्मात्मा था, उसकी सन्तानमें भोजवंशी तथा । मृत्तिकावरपुर निवासी मार्त्तिकावर नृपतिगण हुए ॥७॥

वृष्णिके दो पुत्र सुमित्र और युधाजित हुए, उनमेसें सुमित्रके अनमित्र, अनमित्रके निघ्न तथा निघ्नसे प्रसेन और सत्राजित्‌का जन्म हुआ ॥८-१०॥

उस सत्राजित्‌के मित्र भगवान आदित्य हुए ॥११॥

एक दिन समुद्र - तटपर बैठे हुए सत्राजितने सूर्यभगवान्‌की स्तुति की । उसके तन्मय होकर स्तुति करनेसे भगवान् भास्कर उसके सम्मुख प्रकट हुए ॥१२॥

उस समय उनको अस्पष्ट मूर्ति धारण किये हुए देखकर सत्राजित्‌ने सूर्यसे कहा ॥१३॥

" आकाशमें अग्निपिण्डके समान आपको जैसा मैंने देखा है वैसा ही सम्मुख आनेपर भी देख रहा हूँ । यहाँ आपकी प्रसादस्वरूप कुछ विशेषता मुझे नहीं दीखती ।" सत्राजित्‌के ऐसा कहनेपर भगवान् सूर्यने अपने गलेसे स्ममन्तक नामकी उत्तम महामणि उतारकर अलग रख दी ॥१४॥

तब सत्रजित्‌ने भगवान् सुर्यको देखा - उनका शरीर कित्र्चित ताम्रवर्ण, अति उज्वल और लघु था तथा उनके नेत्र कुछ पिंगलवर्ण थे ॥१५॥

तदनन्तर सत्राजित्‌के प्रणाम तथा स्तुति आदि कर चुकनेपर सहस्त्रांशु भगाअन आदित्यने उससे कहा - " तुम अपना अभीष्ट वर माँगो " ॥१६॥

सत्राजितने उस स्यमन्तकमणिको ही माँगा ॥१७॥

तब भगवान सूय्र उसे वह मणि देकर अन्तरिक्षमें अपने स्थानको चले गये ॥१८॥

फिर सत्राजितने उस निर्मल मणिरत्नसे अपना कण्ठ सुशोभित होनेके कारण तेजसे सूर्यके समान समस्त दिशाओंको प्रकाशित करते हुए द्वारकामें प्रवेश किया ॥१९॥

द्वारकावासी लोगोंने उसे आते देख, पृथिवीका भार उतारनेके लिये अंशरूपसे अवतीर्ण हुए मनुष्यरूपधारी आदिपुरुष भगवान् पुरुषोत्तमसे प्रमाण करके कहा ॥२०॥

" भगवन् ! आपके दर्शनोंके लिये निश्चय ही ये भगवान् सूर्यदेव आ रहे है' उनके ऐसा कहनेपर भगवान्‌ने उससे कहा ॥२१॥

" ये भगवान् सूर्य नहीं हैं, सत्राजित है । यह सूर्यभगवान्‌से प्राप्त हुई स्यमन्तक नामकी महामणिको धारणकर यहाँ आ रहा है ॥२२॥

तुमलोग अब विश्वस्त होकर इसे देखो ।" भगवान्‌के ऐसा कहनेपर द्वरकावासी उसे उसी प्रकार देखने लगे ॥२३॥

सत्राजितने वह स्ममन्तकमाणि अपने घरमें रख दी ॥२४॥

वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना देती थी ॥२५॥

उसके प्रभावसे सम्पूर्ण राष्ट्रमें रोग, अनावृष्टि तथा सर्प, अग्नि, चोर या दुर्भिक्षि आदिका भय नहीं रहता था ॥२६॥

भगवान् अच्युतको भी ऐसी इच्छा हुई कि यह दिव्य रत्न तो राजा उग्रसेनके योग्य है ॥२७॥

किंतु जातीय विद्रोहके भयसे समर्थ होते हुए भी उन्होंने उसे छीना नहीं ॥२८॥

सत्राजितको जब यह मालुम हुआ कि भगवान् मुझसे यह रत्न माँगनेवाले है तो उसने लोभवश उसे अपने भाई प्रसेनको दे दिया ॥२९॥

किंतु इस बातको न जानते हुए कि पवित्रतापूर्वक धारण करनेसे तो यह मणि सुवर्ण दान आदि अनेक गुण प्रकट करती है और अशुद्धावस्थामें धारण करनेसे घातक हो जाती है, प्रसेन उसे अपने गलेमें बाँधे, हुए घोड़ेपर चढकर मृगयाके लिये वनको चला गया ॥३०॥

वहाँ उसे एक सिंहने मार डाला ॥३१॥

जब वह सिंह घोड़के सहित उसे मारकर उस निर्मल मणिको अपने मुँहमें लेकर चलनेकी तैयार हुआ तो उसी समय ऋक्षराज जाम्बवान्‌ने उसे देखकर मार डाला ॥३२॥

तदनन्तर उस निर्मल मनिरत्नको लेकर जाम्बवान अपनी गुफामें आया ॥३३॥

और उसे सुकुमार नामक अपने बालकके लिये खिलौना बना लिया ॥३४॥

प्रसेनके न लौटनेपर सब यादवोंमें आपसमें यह कानाफूँसी होने लगी कि " कृष्ण इस मणिरत्नको लेना चाहते थे, अवश्य ही इन्हीनें उसे ले लिया हैं - निश्चय यह इन्हींका काम हैं :" ॥३५॥

इस लोकपावादका पता लगनेपर सम्पूर्ण यादवसेनाके सहित भगवान्‌ने प्रसेनके घोड़के चरण - चिह्नोका अनुसरण किया और आगे जाकर देखा की प्रसेनको घोड़ेसहित सिंहने मार डाला है ॥३६-३७॥

फिर सब लोगोंके बीच सिंहके चरण - चिह्न देख लिये जानेसे अपनी सफाई हो जानेपर भी भगवान्‌ने उन चिह्मोका अनुसरण किया और थोड़ी ही दुरीपर ऋक्षराजद्वारा मारे हुए सिंहको देखाः किन्तु उस रन्तके महत्त्वके कारण उन्होंने जाम्बवान्‌के पद - चिन्होंका भी अनुसरण किया ॥३८-३९॥

और सम्पुण यादव सेनाको पर्वतके तटपर छोड़कर ऋक्षराजके चरणोंका अनुसरण करते हुए स्वयं उनकी गुफामें घुस गये ॥४०॥

भीतर जानेपर भगवान्‌ने सुकुमारको बहलाती हुई धात्रीकी यह वाणी सुनी ॥४१॥

सिंहने प्रसेनको मारा और सिंहको जाम्बवानने; हे सुकुमार ! तू रो मत यह स्यमन्तकमणि तेरी ही है ॥४२॥

यह सुननेसे स्यमन्तकका पता लगनेपर भगवान्‌ने भीतर जाकर देखा की सुकुमारके लिये खिलौना बनी हुई स्यमन्तकमणि धात्रीके हाथपर अपने तेजसे देदीप्यमान हो रही है ॥४३॥

स्यमन्तकर्मणिकी और अभिलाषापूर्ण दृष्टिसे देखते हुए एक विलक्षण पुरुषको वहाँ आया देख धात्री, ' त्राहि - त्राहि' करके चिल्लाने लगी ॥४४॥

उसकी आर्त्त- वाणीकी सुनकर जाम्बवान क्रोधपूर्ण हृदयसे वहाँ आया ॥४५॥

फिर परस्पर रोष बढ़ जानेसे उन दोनोंका इक्कीस दीनतक घोर युद्ध हुआ ॥४६॥

पर्वतके पास भगवान्‌की प्रतीक्षा करनेवाले यादव सैनिक सात आठ दिनतक उनके गुफासे बाहर आनेकी बाट देखते रहे ॥४७॥

किंतु जब इतने दिनोंतके वे उसमेंसे न निकले तो उन्होंने समझा कि अवश्य ही श्रीमधुसुदन इस गुफांमें मारे गये, नहीं तो जीवित रहनेपर शत्रुके जीतनेमें उन्हें इतने दिन क्यों लगते ? ' ऐसा निश्चिय कर वे द्वारकामें चले आये और वहाँ कह दिया कि श्रीकृष्ण मारे गये ॥४८॥

उनके बन्धुओंने यह सुनकर समयोचित सम्पुर्ण और्ध्वदैहिक कर्म कर दिये ॥४९॥

इधर, अति श्रद्धापूर्वक दिये हुए विशिष्ट पात्रोंसहित इनके अन्न और जलसे युद्ध करते समय श्रीकृष्णचन्द्रके बल और प्राणकी पुष्टी हो गयी ॥५०॥

तथा अति महान् पुरुषके दारा मर्दित होते हुए उनके अत्यन्त निष्ठुर प्रहारोंके आघातसे पीडित शरीरवाले जाम्बवान्‌का बल निराहार रहनेसे क्षीण हो गया ॥५१॥

अन्तमें भगवानसे पराजित होकर जाम्बवान्‌ने उन्हें प्रणाम करके कहा ॥५२॥

" भगवान् ! आपको तो देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस आदि कोई भी नहीं जीत सकते , फिर पृथिवीतलपर रहनेवाले अल्पवीर्य मनुष्य अथवा मनुष्योंके अवयवभुत हम जैसे तिर्यक योनिगत जीवोकी तो बात ही क्या है ? अवश्य ही आप हमारे प्रभु श्रीरामन्द्रजीके समान सकल लोक - प्रतिपालक भगवान् नारायणके ही अंशसे प्रकट हुए हैं । " जम्बवान्‌के ऐसा कहनेपर भगवान्‌ने पृथिवीका भार उतारनेके लिये अपने अवतार लेनेका सम्पूर्ण वृतान्त उससे कह दिया और उसे प्रीतिपूर्वक अपने हाथसे छुकर युद्धके श्रमसे रहित कर दिया ॥५३-५४॥

तदनन्तर जाम्बवान्‌ने पुनः प्रणाम करके उन्हें प्रसन्न किया और घरपर आये हुए भगवान्‌के लिये अर्घ्यस्वरूप अपनी जाम्बवती नामकी कन्या दे दी तथा उन्हें प्रणाम करके मणिरत्न स्यमन्तक भी दे दिया ॥५५-५६॥

भगवान् अच्युतने भी उस अति विनीतसे लेने योग्य न होनेपर भी अपने कलंग - शोधनके लिये वह मणिरत्न ले लिया और जाम्बवतीके सहित द्वारकामें आये ॥५७-५८॥

उस समय भगवान् कृष्णचन्द्रके आगमनसे जिनके हर्षका वेग अत्यन्त बढ़् गया है उन द्वारकावासियोंमेंसे बहुत ढली हूइ अवस्थावालोंमें भी उनके दर्शनके प्रभावसे तक्ताल ही मानो नवयौवनका सत्र्चार हो गया ॥५९॥

तथा सम्पूर्ण यादवगण और उनकी स्त्रियाँ ' अहोभाग्य ! अहोभाग्य !' ऐसा कहकर उनका अभिवादन करने लगीं ॥६०॥

भगवानने भी जो - जो बात जैसे जैसे हुई थी वह ज्यों कि त्यों यादव समाजमें सुना दी और सत्राजितको स्यमन्तकमणि देकर मिथ्या कलंकसे छुटकारा पा लिया । फिर जाम्बवतीको अपने अन्तः पुरमें पहूँचा दिया ॥६१-६३॥

सत्राजितने भी यह सोचकर कि मैंने ही कृष्णचन्द्रको मिथ्या कलंग लगाया था, डरते डरते उन्हें पत्नीरूपसे अपनी कन्या सत्यभामा विवाह दी ॥६४॥

उस कन्याको अक्रुर , कृतवर्मा और शतधन्वा आदि यादवोंने पहले वरण किया था ॥६५॥

अतः श्रीकृष्णचन्द्रके साथ उसे विवाह देनेसे उन्होंने अपना अपना अपमान समझकर सत्राजितसे वैर बाँध लिया ॥६६॥

तदनन्तर अक्रूर और कृतवर्मा आदिने शतधन्वासे कहा ॥६७॥

" यह सत्राजित बड़ा ही दुष्ट है, देखो इसने हमारे और आपके माँगनेपर भी हमलोगोंको कुछ भी न समझकर अपनी कन्या कृष्णचन्द्रको दे दी ॥६८॥

अतः अब इसके जीवनका प्रयोजन ही क्या है; इसको मारकर आप स्ममन्तक महामणि क्यों नहीं ले लेते हैं ? पीछे , यदि अच्युत आपसे किसी प्रकारका विरोध करेंगे तो हमलोग भी आपका साथ देंगे । उनके ऐसा कहनेपर शतधन्वाने कहा - " बहुत अच्छा, ऐसा ही करेंगे" ॥६९॥

इसी समय पाण्डवोंके लाक्षागृहमें जलनेपर यथार्थ बातको जानते हुए भी भगवान् कृष्णचन्द्र दुर्योधनके प्रयत्नको शिथिल करनेके उद्देश्यसे कुलोचित कर्म करनेके लिये वारणावत नगरको गये ॥७०॥

उनके चले जानेपर शतधन्वाने सोते हुए सत्राजितको मारकर वह मणिरत्न ले लिया ॥७१॥

पिताके वधसे क्रोधित हुई सत्यभामा तुरन्त ही रथपर चढकर वारणावत नगरमें पहूँची और भगवान् कृष्णसे बोली, " भगवान् ! पिताजीने मुझे आपके करकमलोंमें सौंप दिया - इस बातको सहन न कर सकनेके कारण शतधन्वाने मेरे पिताजीको मार दिया है और उस स्यमन्तक नामक मणिरत्नको ले लिया है जिसके प्रकाशसे सम्पूर्ण त्रिलोकी भी अन्धकारशुन्य हो जायगी ॥७२॥

इसमें आपहीकी हँसी है इसलिये सब बातोंका विचार करके जैसा उचित समझें , करें " ॥७३॥

सत्गभामाके ऐसा कहनेपर भगवान् श्रीकृष्णने मन-ही-मन प्रसन्न होनेपर भी उनसे क्रोधसे आँखें लाल करके कहा ॥७४॥

"सत्ये ! अवश्य इसमें मेरी ही हँसी है , उस दुरात्माके इस कृकर्मको मैं सहन नहीं कर सकता, क्योंकी यदि ऊँचे वृक्षका उल्लघंन न किया जा सके तो उसपर घोंसला बनाकर रहनेवाले पक्षियोंको नहीं मारा दिया जाता ( अर्थात बडे़ आदमियोंसे पार न पानेपर उनके आश्रितोंको नहीं दबाना चाहिये । ) इसलिये अब तुम्हें हमारे सामने इन शोक प्रेरित वाक्योंके कहनेकी और आवश्यकता नहीं हैं । ( तुम शोक छोड़ दो मैं इसका भली प्रकार बदला चुका दूँगा । ) " सत्यभासासे इस प्रकार कह भगवान वासुदेवने द्वारकामें आकर श्रीबलदेवजीसे एकान्तमें कहा ॥७५-७६॥

'वनमें आखेटके लिये गये हुए प्रसेनको तो सिंहने मार दिया था ॥७७॥

अब शतधन्वाने सत्राजितको भी मार दिया हैं ॥७८॥

इस प्रकार उन दोनोंके मारे जानेपर मणीरत्न स्यमन्तकपर हम दोनोंका समान अधिकार होगा ॥७९॥

इसलिये उठिये और रथपर चढ़कर शतधन्वाके मारनेका प्रयन्त कीजिये ॥ ' कृष्णचन्द्रके ऐसा कहनेपर बलदेवजीने भी ' बहुत अच्छा' कह उसे स्वीकार किया ॥८०॥

कृष्ण और बलदेवको ( अपने वधके लिये ) उद्यत जान शतधन्वाने कृतवर्माके पास जाकर सहायताके लिये प्रार्थना की ॥८१॥

तब कृतवर्माने इससे कहा ॥८२॥

'मैं बलदेव और वासुदेवसे विरोध करनेमें समर्थं नहीं हूँ । ' उसके ऐसा कहनेपर शतधन्वाने अक्रूरसे सहायता माँगी, तो अक्रुरने भी कहा ॥८३-८४॥

' जो अपने पाद - प्रहारसे त्रिलोकीको कम्पायमान कर देते हैं, देवशत्रु असुरगणकी स्त्रियोंको वैधव्यदान देते है तथा अति प्रबल शत्रु सेनासे भी जिनका चक्र अप्रतिहत रहता है उन चक्रधारी भगवान वासुदेवसे तथा जो अपने मदोन्मत्त नयनोखी चितवनसे सबका दमन करनेवाले और भयकंर शत्रुसमुहरूप हाथियोंको खींचनेके लिये अखण्ड महिमाशाली प्रचण्ड हल धारण करनेवाले है उन श्रीहलधरसे युद्ध करनेमें तो निखिल लोक वन्दनीय देवगणमें भी कोई समर्थ नहीं हैं फिर मेरी तो बात ही क्या है? ॥८५॥

इसलिये तुम दूसरोंकी शरण लो' अक्रुरके ऐसा कहनेपर शतधन्वाने कहा ॥८६॥

' अच्छा , यदि मेरी रक्षा करनेमें आप अपनेको सर्वथा असमर्थ समझते हैं तो मैं आपको यह मणि देता हूँ इसे लेकर इसीकी रक्षा किजिये ॥८७॥

इसपर अक्रुरने कहा ॥८८॥

'मैं इसे तभी ले सकता हूँ जब कि अन्तकल उपस्थित होनेपर भी तुम किसीसे भी यह बात न कहो ॥८९॥

शतधन्वाने कहा - ' ऐसा ही होगा ।' इसपर अक्रुरने वह मणिरत्न अपने पास रख लिया ॥९०॥

तदनन्तर शतधन्वा सौ योजनतक जानेवाली एक अत्यन्त वेगवती घोड़ीपर चढ़कर भागा ॥९१॥

और शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प तथा बलाहक नामक चार घोड़ोंवाले रथपर चढ़कर बलदेव और वासुदेवने भी उसका पीछा किया ॥९२॥

सौ योजन मार्ग पार कर जानेपर पुनः आगे ले जानेसे उस घोड़ीने मिथिला देशके वनमें प्राण छोड़ दिये ॥९३॥

तब शतधन्वा उसे छोड़्कर पैदल ही भागा ॥९४॥

उस समय श्रीकृष्णचन्द्रने बलभद्रजीसे कहा ॥९५॥

' आप अभी रथमें ही रहिये मैं इस पैदल दौडते हुए दुराचारीको पैदल जाकर ही रहिये मैं इस पैदल दौड़ते हुए दुराचारीको पैदल जाकर ही मारे डालता हूँ । यहाँ ( घोड़ीके मरने आदि ) दोषोंको देखनेसे घोड़े भयभीत हो रहे हैं , इसलिये आप इन्हें और आगे न बढ़ाइयेगा ॥९६॥

तब बलदेवजी ' अच्छा ' ऐसा कहकर रथमें ही बैठे रहे ॥९७॥

श्रीकृष्णचन्द्रने केवल दो ही कोसतक पीछाकर अपना चक्र फेंक दूर होनेपर भी शतधन्वाका सिर काट डाला ॥९८॥

किंतु उसके शरीर और वस्त्र आदिमें बहुत कुछ ढूँढनेपर भी जब सयमन्तकमणिको न पाया तो बलभद्रजीके पास जाकर उनसे कहा ॥९९॥

'हमने शतधन्वाको व्यर्थ ही मारा, क्योंकी उसके पास सम्पूर्ण संसारकी सारभूत स्यमन्तकमणि तो मिली ही नहीं । यह सुनकर बलदेवजीने ( यह समझकर कि श्रीकृष्णचन्द्र उस मणिको छिपनेके लिये ही ऐसी बातें बना रहे हैं ) क्रोधपूर्वक भगवान् वासुदेवसे कहा ॥१००॥

'तुमको धिक्कार है, तुम बड़े ही अर्थलोलुप होः भाई होनेके कारण ही मैं तुम्हें क्षमा किये देता हूँ । तुम्हारा मार्ग खुला हुआ है, तुम खुशीसे जा सकते हो । अब मुझे तो द्वारकासे, तुमसे अथवा और सब सगे सम्बन्धियोंसे कोई काम नहीं है । बस , मेरे आगे इन थोथी शपथोंका अब कोई प्रयोजन नहीं ।' इस प्रकार उनकी बातको काटकर बहुत कुछ मनानेपर भी वे वहाँ न रुके और विदेहनगरको चले गये ॥१०१-१०२॥

विदेहनगरमें पहूँचनेपर राजा जनक उन्हें अर्घ्य देकर अपने घर ले आये और वे वहीं रहने लगे ॥१०३-१०४॥

इधर, भगवान् वासुदेव द्वारकामें चले आये ॥१०५॥

जितने दोनोंतक बलदेवजी राजा जनकके यहाँ रहे उतने दिनतक धृतराष्ट्रका पुत्र दुर्योधन उनसे गदायुद्ध सीखता रह ॥१०६॥

अनन्तर, बभ्रु और उग्रसेन आदि यादवोंके जिन्हें यह ठिक मालुम था कि ' कृष्णने स्यमन्तकमणि नहीं ली है' विदेहनगरमें जाकर शपथपूर्वक विश्वास दिलानेपर बलदेवाजी तीन वर्ष पश्चात द्वारकामें चले आये ॥१०७॥

अक्रुरजी भी भगवद्ध्यान परायन रहते हुए उस मणिरत्नसे प्राप्त सुवर्णके द्वारा निरन्तर यज्ञानुष्ठान करने लगे ॥१०८॥

यज्ञ दीक्षित क्षत्रिय और वैश्योंके मारनेसे ब्रह्महत्या होती हैं, इसलिये अक्रूरजी सदा यज्ञदीक्षारूप कवच धारण ही किये रहते थे ॥१०९॥

उस मणिके प्रभावसे बासठ वर्षतके द्वारकामें रोग, दुर्भिक्ष, महामारी या मृत्यु आदि नहीं हुए ॥११०॥

फिर अक्रूर, पक्षीय भोजवशियोंद्वारा सात्वतके प्रपौत्र शत्रुघ्नके मारे जानेपर भोजोंके साथ अक्रूर भी द्वारकको छोडकर चले गये ॥१११॥

उनके जाते ही, उसी दिनसे द्वारकामें रोग, दुर्भिक्ष, सर्प, अनावृष्टि और मरी आदि उपद्रव होने लगे ॥११२॥

तब गरुडध्वज भगवान् कृष्ण बलभद्र और उग्रसेन आदि यदुंवशियोंके साथ मिलकर सलाह करने लगे ॥११३॥

'इसका क्या कारण है जो एक साथ ही इतने उपद्रवोंका आगमन हुआ, इसपर विचार करना चाहिये । ' उनके ऐसा कहनेपर अन्धक नामक एक वृद्ध यादवने कहा ॥११४॥

' अक्रुरके पिता श्वफल्क जहाँ-जहाँ रहते थे वहाँ वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी और अनावृष्टि आदि उपद्रव कभी नही होते थे ॥११५॥

एक बार काशिराजके देशमें अनावृष्टि हुई थी । तब श्वफल्कको वहाँ ले जाते ही तत्काल वर्षा होने लगी ॥११६॥

उस समय काशिराजकी रानीके गर्भमें एक कन्यारत्न थीं ॥११७॥

वह कन्या प्रसुतिकालके समाप्त होनेपर भी गर्भसे बाहर न आयी ॥११८॥

इस प्रकार उस गर्भको प्रसव हुए बिना बारह वर्ष व्यतीत हो गये ॥११९॥

तब काशिराजने अपनी उस गर्भस्थिता पुत्रीसे कहा ॥१२०॥

' बेटी ! तु उप्तन्न क्यों नहीं होती ? बाहर आ, मैं तेरा मुख देखना चाहता हुँ ॥१२१॥

अपनी इस माताको तु इतने दिनोंसे क्यों कष्ट दे रही है ? ' राजाके ऐसा कहनेपर उसने गर्भमें रहते हुए ही कहा - पिताजी ! यदि आप प्रतिदिन एक गौ ब्राह्मणको दान देंगे तो अगले तीन वर्षं बीतनेपर मैं अवश्य गर्भसे बाहर आ जाऊँगी । ' इस बातको सुनकर राजा प्रतिदिन ब्राह्मणको एक गौ देने लगे ॥१२२॥

तब उतने समय ( तीन वर्ष ) बीतनेपर वह उप्तन्न हूई ॥१२३॥

पिताने उसका नाम गान्दिनी रखा ॥१२४॥

और उसे अपने उपकारका श्वफल्कको , घर आनेपर अर्घ्यरूपसे दे दिया ॥१२५॥

उसीसे श्वफल्कके द्वारा इन अक्रूरजीका जन्म हुआ है ॥१२६॥

इनकी ऐसी गुणवान् माता - पितासे उप्तत्ति है तो फिर उनके चले जानेसे यहाँ दुर्भिक्ष और महामारी आदि उपद्रव क्यों न होंगे ? ॥१२७-१२८॥

अतः उनको यहाँ ले आना चाहिये, अति गुणवानके अपराधकी अधिक जाँच परताल करना ठीक नहीं है । यादववृद्ध अन्धकके ऐसे वचन सुनकर कृष्ण, उग्रसेन और बलभद्र आदि यादव श्वफल्कपुत्र अक्रूरके अपराधको भुलाकर उन्हें अभय्दान देकर अपने नगरमें ले आये ॥१२९॥

उनके वहाँ आते ही स्यमन्तकमणिके प्रभावसे अनावृष्टि , महामारी , दुर्भिक्ष और सर्पभय आदि सभी उपद्रव्य शान्त हो गये ॥१३०॥

तब श्रीकृष्णचन्द्रने विचार किया ॥१३१॥

अक्रुरका जन्म गान्दिनीसे श्वफल्कके द्वारा हुआ है यह तो बहुत सामान्य कारण है ॥१३२॥

किन्तु अनावृष्टि , दुर्भिक्ष, महामारी आदि उपद्रवोंको शान्त कर देनेवाला इसका प्रभाव तो अति महान् है ॥१३३॥

अवश्य ही इसके पास वह स्यमन्तक नामक महामणि है ॥१३४॥

उसीका ऐसा प्रभाव सुना जाता है ॥१३५॥

इसे भी हम देखते हैं कि एक यज्ञके पीछे दूसरा और दुसरेके पीछे तीसरा इस प्रकार निरन्तर अखण्ड यज्ञनुष्ठान करता रहता है ॥१३६॥

और इसके पास यज्ञके साधन ( धन आदि ) भी बहुत कम है; इसलिये इसमें सन्देह नहीं कि इसके पास स्यमन्तकमणि अवश्य है । ऐसा निश्चयकर किसी और प्रयोजनके उद्देश्यसे उन्होंने सम्पूर्ण यादवोंको अपने महलमें एकत्रित किया ॥१३७॥

समस्त यदुवंशियोंके वहाँ आकर बैठ जानेके बाद प्रथम प्रयोजन बताकर उसका उपसंहार होनेपर प्रसंगन्तरसे अक्रुरके साथ परिह्यास करते हुए भगवान् कृष्णने उनसे कहा ॥१३८॥

"हे दानपते ! जिस प्रकार शतधन्वाने तुम्हें सम्पूण संसारकी सारभुत वह स्यमन्तक नामकी महामणि सौपिं थी वह हमें सब मालूम है । वह सम्पूर्ण राष्ट्रका उपकार करती हुई तुम्हारे पास है तो रहे, उसके प्रभावका फल तो हम सभी भोगते हैं, किन्तु ये बलभद्रजी हमारे ऊपर सन्देह करते थे, इसलिये हमारी प्रसन्नताके लिये आप एक बार उसे दिखला दीजिये ।" भगवान् वासुदेवके ऐसा कहकर चुप हो जानेपर रत्न साथ ही लिये रहनेके कारण अक्रुरजी सोचने लगे ॥१३९॥

" अब मुझे क्या करना चाहिये, यदि और किसी प्रकार कहता हूँ तो केवल वस्त्रोके ओटमें टटोलनेपर ये उसे देख ही लेंगे और इनसे अत्यन्त विरोध करनेंमें हमारा कुशल नहीं है ।" ऐसा सोचकर निखिल संसारके कारणस्वरूप श्रीनारायणसे अक्रूरजी बोले ॥१४०॥

" भगवान् ! शतधन्वाने मुझे वह मणि सौप दी थी । उसके मर जानेपर मैंने यह सोचते हुए बड़ी ही कठिनतासे इसे इतने दिन अपने पास रखा है कि भगवान् आज, कल या परसों इसे माँगेगे ॥१४१॥

इसकी चौकसीके क्लेशसे सम्पूर्ण भोगोंमें अनासक्तचित्त होनेके कारण मुझे सुखका लेशमात्र भी नहीं मिला ॥१४२॥

भगवान् ये विचार करते कि , यह सम्पूर्ण राष्ट्रके उपकारक इतने - से भारको भी नहीं उठा सकता, इसलिये स्वयं मैंने आपसे कहा नहीं ॥१४३॥

अब, लीजिये आपकी वह स्यमन्तकमणि यह रही , आपकी जिसे इच्छा हो उसे ही इसे दे दिजिये " ॥१४४॥

तब अक्रुरजीने अपने कटि- वस्त्रमें छिपाई हुई एक छोटी-सी सोनेकी पिटरीमें स्थित वह स्यमन्तकमणि प्रकट की और उस पिटरीसे निकालकर यादवसमाजमें रख दी ॥१४५-१४६॥

उसके रखते ही वह सम्पूर्ण स्थान उसकी तीव्र कान्तिसे देदीप्यमान होने लगा ॥१४७॥

तब अक्रुरजीने कहा, "मुझे यह मणि शतधन्वाने दी , थी, यह जिसकी हो वह ले ले ॥१४८॥

उसको देखनेपर सभी यादवोंका विस्मयपूर्वक 'साधु, साधु' यह वचन सुना गया ॥१४९॥

उसे देखकर बलभद्रजीने 'अच्युतके ही समान इसपर मेरा भी अधिकार है' इस प्रकार अपनी अधिक स्पृहा दिखलाई ॥१५०॥

तथा ' यह मेरी ही पैतृक सम्पत्ति है' इस तरह सत्यभामाने भी उसके लिये अपनी उत्कट अभिलाषा प्रकट की ॥१५१॥

बलभद्र और सत्यभामाको देखकर कृष्णचन्द्रने अपनेको बैल और परियेके बीचमें पड़े हुए जीवके समान दोनों ओरसें संकटग्रस्त देखा ॥१५२॥

और समस्त यादवोंके सामने वे अक्रुरजीसे बोले ॥१५३॥

"इस मणिरत्नको मैंने अपनी सफाई देनेके लिये ही इन यादवोंको दिखवाया था । इस मणिपर मेरा और बलभद्रजीका तो समान अधिकार है और सत्यभामाकी यह पैतृक सम्पत्ति है; और किसीकी इसपर कोई अधिकार नहीं है ॥१५४॥

यह मणि सदा शुद्ध और ब्रह्मचर्य आदि गुणयुक्त रहकर धारण करनेसे सम्पूर्ण राष्ट्रका हित करती है और अशुद्धावस्थामें धारण करनेसे अपने आश्रयदाताको भी मार डालती है ॥१५५॥

मेरे सोलह हजार स्त्रियाँ हैं, इसलिये मैं इसके धारण करनेंमें समर्थं नहीं हूँ, इसीलिये सत्यभामा भी इसके धारण करनेमें समर्थ नहीं हूँ, इसीलिये सत्यभामा भी इसको कैसे धारण कर सकती हैं ? ॥१५६॥

आर्य बलभद्रको भी इसके कारणसे मदिरापान आदि सम्पुर्ण भोगोंको त्यागना पड़ेगा ॥१५७॥

इसलिये हे दानपते ! ये यादवगण, बलभद्रजी, मैं और सत्यभामा सब मिलकर आपसे प्रार्थना करते हैं कि इसे धारण करनेसे आप ही समर्थं हैं ॥१५८-१५९॥

आपके धारण करनेसे यह सम्पुर्ण राष्ट्रका हित करेगी, इसलिये सम्पूर्ण राष्ट्रके मंगलके लिये आप ही इसे पूर्ववत धारण कीजिये ; इस विषयमें आप और कुछ भी न कहें । " भगवानके ऐसा कहनेपर दानपति अक्रुरने जो आज्ञा ' कह वह महारत्न ले लिया । तबसे अक्रुरजी सबके सामने उस अति देदीप्यमान मणिको अपने गलेमें धारणकर सूर्यके समान किरण जालसे युक्त होकर विचरने लगे ॥१६०-१६१॥

भगवान्‌के मिथ्या - कलंक शोधनरूप इस प्रसंगका जो कोई स्मरण करेगा उसे कभी थोड़ा सा भी मिथ्या कलंक न लगेगा, उसकी समस्त इन्दियाँ समर्थ रहेंगी तथा वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जायगा ॥१६२॥

इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥

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