श्री भगवान्
बोले अतिश्रेष्ठ ज्ञानों में बताता ज्ञान मैं अब और भी ॥

मुनि पा गये हैं सिद्धि जिसको जानकर जग में सभी ॥१॥


इस ज्ञान का आश्रय लिए जो रूप मेरा हो रहें ॥

उत्पत्ति-काल न जन्म लें, लय-काल में न व्यथा सहें ॥२॥


इस प्रकृति अपनी योनि में, मैं गर्भ रखता हूँ सदा ॥

उत्पन्न होते हैं उसीसे सर्व प्राणी सर्वदा ॥३॥


सब योनियों में मूर्तियों के जो अनेकों रूप हैं ॥

मैं बीज-प्रद पिता हूँ, प्रकृति योनि अनूप हैं ॥४॥


पैदा प्रकृति से सत्त्व, रज, तम त्रिगुण का विस्तार है ॥

इस देह में ये जीव को लें बांध, जो अविकार है ॥५॥


अविकार सतगुण है प्रकाशक, क्योंकि निर्मल आप है ॥

यह बांध लेता जीव को सुख ज्ञान से निष्पाप है ॥६॥


जानो रजोगुण रागमय, उत्पन्न तृष्णा संग से ॥

वह बांध लेता जीव को कौन्तेय, कर्म-प्रसंग से ॥७॥


अज्ञान से उत्पन्न तम सब जीव को मोहित करे ॥

आलस्य, नींद, प्रमाद से यह जीव को बन्धित करे ॥८॥


सुख में सतोगुण, कर्म में देता रजोगुण संग है ॥

ढ़क कर तमोगुण ज्ञान को, देता प्रमाद प्रसंग है ॥९॥


रज तम दबें तब सत्त्व गुण, तम सत्व दबते रज बढ़े ॥

रज सत्त्व दबते ही तमोगुण देहधारी पर चढ़  ॥१०॥


जब देह की सब इन्द्रियों में ज्ञान का हो चाँदना ॥

तब जान लेना चाहिए तन में सतोगुण है घना ॥११॥


तृष्णा अशान्ति प्रवृत्ति होकर मन प्रलोभन में पड़े ॥

आरम्भ होते कर्म के अर्जुन, रजोगुण जब बढ़े ॥१२॥


कौन्तेय, मोह प्रमाद हो, जब हो न मन में चाँदना ॥

उत्पन्न हो आलस्य जब, होता तमोगुण है घना ॥१३॥


इस देह में यदि सत्त्वगुण की वृद्धि मरते काल है ॥

तो प्राप्त करता ज्ञानियों का शुद्ध लोक विशाल है ॥१४॥


रज-वृद्धि में मर, देह कर्मासक्त पुरुषों में धरे ॥

जड़ योनियों में जन्मता, यदि जन तमोगुण में मरे ॥१५॥


फल पुण्य कर्मों का सदा शुभ श्रेष्ठ सात्त्विक ज्ञान है ॥

फल दुख रजोगुण का, तमोगुण-फल सदा अज्ञान है ॥१६॥


उत्पन्न सत से ज्ञान, रज से नित्य लोभ प्रधान है ॥

है मोह और प्रमाद तमगुण से सदा अज्ञान है ॥१७॥


सात्त्विक पुरुष स्वर्गादि में, नरलोक में राजस बसें ॥

जो तामसी गुण में बसें, वे जन अधोगति में फँसें ॥१८॥


कर्ता न कोई तज त्रिगुण, यह देखता द्रष्टा जभी ॥

जाने गुणों से पार जब, पाता मुझे है जन तभी ॥१९॥


जो देहधारी, देह-कारण पार ये गुण तीन हो ॥

छुट जन्म मृत्यु जरादि दुख से, वह अमृत में लीन हो ॥२०॥


अर्जुन बोले

लक्षण कहो उनके प्रभो, जन जो त्रिगुण से पार हैं ॥

किस भाँति होते पार, क्या उनके कहो आचार हैं ॥२१॥


श्री भगवान् बोले

पाकर प्रकाश, प्रवृत्ति, मोह, न पार्थ, इनसे द्वेष है ॥

यदि हों नहीं वे प्राप्त, उनकी लालसा न विशेष है ॥२२॥


रहता उदासीन-सा गुणों से, होए नहीं विचलित कहीं ॥

सब त्रिगुण करते कार्य हैं, यह जान जो डिगता नहीं ॥२३॥


है स्वस्थ, सुख-दुख सम जिसे, सम ढेल पत्थर स्वर्ण भी ॥

जो धीर, निन्दास्तुति जिसे सम, तुल्य अप्रिय-प्रिय सभी ॥२४॥


सम बन्धु वैरी हैं जिसे अपमान मान समान है ॥

आरम्भ त्यागे जो सभी, वह गुणातीत महान है ॥२५॥


जो शुद्ध निश्चल भक्ति से भजता मुझे है नित्य ही ॥

तीनों गुणों से पार होकर ब्रह्म को पाता वही ॥२६॥


अव्यय अमृत मैं और मैं ही ब्रह्मरूप महान हूँ ॥

मैं ही सनातन धर्म और अपार मोद-निधान हूँ ॥२७॥


ॐ तत्सदिति चतुर्दशोऽध्यायः

चौदहवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥१४॥

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