'चंद्रकान्ता को ले जाकर कहां रखा होगा? अच्छे कमरे में या अंधेरी कोठरी में? उसको खाने को क्या दिया होगा और वह बेचारी सिवाय रोने के क्या करती होगी। खाने-पीने की उसे कब सुध होगी। उसका मुंह दु:ख और भय से सूख गया होगा। उसको राजी करने के लिए तंग करते होंगे। कहीं ऐसा न हो कि उसने तंग होकर जान दे दी हो।' इन्हीं सब बातों को सोचते और ख्याल करते कुमार को रात-भर नींद न आई। सबेरा हुआ ही चाहता था कि महाराज शिवदत्त के लश्कर से डंके की आवाज आई। मालूम हुआ कि दुश्मनों की तरफ लड़ाई का सामान हो रहा है। कुमार भी उठ बैठे, हाथ-मुंह धोए। इतने में हरकारे ने आकर खबर दी कि दुश्मनों की तरफ लड़ाई का सामान हो रहा है। कुमार ने भी कहा, “हमारे यहां भी जल्दी तैयारी की जाय।” हुक्म पाकर हरकारा रवाना हुआ। जब तक कुमार ने स्नान-सन्धया से छुट्टी पाई तब तक दोनों तरफ की फौजें भी मैदान में जा डटीं। बेलदारों ने जमीन साफ कर दी। कुमार भी अपने अरबी घोड़े पर सवार हो मैदान में गये और देवीसिंह से कहा, “शिवदत्त को कहना चाहिए कि बहुत से आदमियों का खून कराना अच्छा नहीं, जिस-जिस को बहादुरी का घमण्ड हो एक पर एक लड़ के जल्दी मामला तै कर लें। शिवदत्तसिंह अपने को अर्जुन समझते हैं, उनके मुकाबले के लिए मैं मौजूद हूं, क्यों बेचारे गरीब सिपाहियों की जान जाय।”

देवीसिंह ने कहा, “बहुत अच्छा, अभी इस मामले को तै कर डालता हूं!” यह कह मैदान में गये और अपनी चादर हवा में दो-तीन दफे उछाली। चादर उछालनी थी कि झट बद्रीनाथ ऐयार महाराज शिवद्त्त के लश्कर से निकल के मैदान में देवीसिंह के पास आये और बोले, “जय माया की!” देवीसिंह ने भी जवाब दिया, “जय माया की!” बद्रीनाथ ने पूछा, “क्यों क्या बात है जो मैदान में आकर ऐयारों को बुलाते हो?”

देवी-तुमसे एक बात कहनी है!

बद्री-कहो।

देवी-तुम्हारी फौज में मर्द बहुत हैं कि औरत?

बद्री-औरत की सूरत भी दिखाई नहीं देती!

देवी-तुम्हारे यहां कोई बहादुर भी है कि सब गरीब सिपाहियों की जान लेने और आप तमाशा देखने वाले ही हैं?

बद्री-हमारे यहां खचियों बहादुर भरे हैं?

देवी-तुम्हारे कहने से तो मालूम होता है कि सब खेत की मूली ही हैं!

बद्री-यह तो मुकाबला होने ही से मालूम होगा!

देवी-तो क्यों नहीं एक पर एक लड़ के हौसला निकाल लेते? ऐसा करने से मामला भी जल्द तै हो जायगा और बेचारे सिपाहियों की जानें भी मुफ्त में न जायेंगी। हमारे कुमार तो कहते हैं कि महाराज शिवदत्त को अपनी बहादुरी का बड़ा भरोसा है, आवें पहले हम से ही भिड़ जायं, या वही जीत जायं या हम ही चुनार की गद्दी के मालिक हों, बात की बात में मामला तय होता है।

बद्री-तो इसमें हमारे महाराज कभी न हटेंगे, वह बड़े बहादुर हैं। तुम्हारे कुमार को तो चुटकी से मसल डालेंगे।

देवी-यह तो हम भी जानते हैं कि उनकी चुटकी बहुत साफ है, फिर आवें मैदान में!

इस बातचीत के बाद बद्रीनाथ लौटकर अपनी फौज में गये और जो कुछ देवीसिंह से बातचीत हुई थी जाकर महाराज शिवदत्त से कहा। सुनते ही महाराज शिवदत्त तो लाल हो गए और बोले, “यह कल का लड़का मेरे साथ मुकाबला करना चाहता है!” बद्रीनाथ ने कहा, “फिर हियाव ही तो है, हौसला ही तो है, इसमें रंज होने की क्या बात है? मैं जहां तक समझता हूं, उनका कहना ठीक है!” यह सुनते ही महाराज शिवदत्त झट घोड़ा कुदा के मैदान में आ गये और भाला उठाकर हिलाया, जिसको देख वीरेन्द्रसिंह ने भी अपने घोड़े को एड़ मारी और मैदान में शिवदत्त के मुकाबले में पहुंचकर ललकारा, “अपने मुंह अपनी तारीफ करता है और कहता है कि मैं वीर हूं? क्या बहादुर लोग चोट्टे भी होते हैं? जवांमर्दी से लड़कर चंद्रकान्ता न ली गई? लानत है ऐसी बहादुरी पर!” वीरेन्द्रसिंह की बात तीर की तरह महाराज शिवदत्त के कलेजे में लगी। कुछ जवाब तो न दे सके, गुस्से में भरे हुए बड़े जोर से कुमार पर नेजा चलाया, कुमार ने अपने नेजे से ऐसा झटका दिया कि उनके हाथ से नेजा छटककर दूर जा गिरा।

यह तमाशा देख दोस्त-दुश्मन दोनों तरफ से 'वाह-वाह' की आवाज आने लगी। शिवदत्त बहुत बिगड़ा और तलवार निकालकर कुमार पर दौड़ा, कुमार ने तलवार का जवाब तलवार से दिया। दोपहर तक दोनों में लड़ाई होती रही, बाद दोपहर कुमार की तलवार से शिवदत्त का घोड़ा जख्मी होकर गिर पड़ा, बल्कि खुद महाराज शिवदत्त को कई जगह जख्म लगे। घोड़े से कूदकर शिवदत्त ने कुमार के घोड़े को मारना चाहा मगर मतलब समझ के कुमार भी झट घोड़े पर से कूद पड़े और आगे होकर एक कोड़ा इस जोर से शिवदत्त की कलाई पर मारा कि हाथ से तलवार छूटकर जमीन पर गिर पड़ी जिसको दौड़ के देवीसिंह ने उठा लिया। महाराज शिवदत्त को मालूम हो गया कि कुमार हर तरह से जबर्दस्त है, अगर थोड़ी देर और लड़ाई होगी तो हम बेशक मारे जायेंगे या पकड़े जायेंगे। यह सोचकर अपनी फौज को कुमार पर धावा करने का इशारा किया। बस एकदम से कुमार को उन्होंने घेर लिया। यह देख कुमार की फौज ने भी मारना शुरू किया। फतहसिंह सेनापति और देवीसिंह कोशिश करके कुमार के पास पहुंचे और तलवार और खंजर चलाने लगे। दोनों फौजें आपस में खूब गुथ गईं और गहरी लड़ाई होने लगी।

शिवदत्त के बड़े-बड़े पहलवानों ने चाहा कि इसी लड़ाई में कुमार का काम तमाम कर दें मगर कुछ बन न पड़ा। कुमार के हाथ से बहुत दुश्मन मारे गये। शाम को उतारे का डंका बजा और लड़ाई बंद हुई। फौज ने कमर खोली। कुमार अपने खेमे में आये मगर बहुत सुस्त हो रहे थे, फतहसिंह सेनापति भी जख्मी हो गये थे। रात को सबों ने आराम किया।

महाराज शिवदत्त ने अपने दीवान और पहलवानों से राय ली थी कि अब क्या करना चाहिए। फौज तो वीरेन्द्रसिंह की हमसे बहुत कम है मगर उनकी दिलावरी से हमारा हौसला टूट जाता है क्योंकि हमने भी उससे लड़ के बहुत जक उठाई। हमारी तो यही राय है कि रात को कुमार के लश्कर पर धावा मारें। इस राय को सबों ने पसंद किया। थोड़ी रात रहे शिवदत्त ने कुमार की फौज पर पांच सौ सिपाहियों के साथ धावा किया। बड़ा ही गड़बड़ मचा। अंधेरी रात में दोस्त-दुश्मनों का पता लगाना मुश्किल था। कुमार की फौज दुश्मन समझ अपने ही लोगों को मारने लगी। यह खबर वीरेन्द्रसिंह को भी लगी। झट अपने खेमे से बाहर निकल आए। देवीसिंह ने बहुत से आदमियों को महताब जलाने के लिए बांटीं। यह महताब तेजसिंह ने अपनी तरकीब से बनाई थीं। इसके जलाते ही उजाला हो गया और दिन की तरह मालूम होने लगा। अब क्या था, कुल पांच सौ आदमियों को मारना क्या, सुबह होते-होते शिवदत्त के पांच सौ आदमी मारे गए मगर रोशनी होने के पहले करीब हजार आदमी कुमार की तरफ के नुकसानहो चुके थे जिसका रंज वीरेन्द्रसिंह को बहुत हुआ और सुबह की लड़ाई बंद न होने दी।

दोनों फौजें फिर गुथ गईं। कुमार ने जल्दी से स्नान किया और संध्या-पूजा करके हरबों को बदन पर सजा दुश्मन की फौज में घुस गए। लड़ाई खूब हो रही थी, किसी को तनोबदन की खबर न थी। एकाएक पूरब और उत्तार के कोने से कुछ फौजी सवार तेजी से आते हुए दिखाई दिये जिनके आगे-आगे एक सवार बहुत उम्दा पोशाक पहिरे अरबी घोड़े पर सवार घोड़ा दौड़ाए चला आता था। उसके पीछे और भी सवार जो करीब-करीब पांच सौ के होंगे घोड़ा फेंके चले आ रहे थे। अगले सवार की पोशाक और हरबों से मालूम होता था कि यह सबों का सरदार है। यह सरदार मुंह पर नकाब डाले हुए था और उसके साथ जितने सवार पीछे चले आ रहे थे उन लोगों के भी मुंह पर नकाब पड़ी हुई थी।

इस फौज ने पीछे से महाराज शिवदत्त की फौज पर धावा किया और खूब मारा। इधर से वीरेन्द्रसिंह की फौज ने जब देखा कि दुश्मनों को मारने वाला एक और आ पहुंचा, तबीयत बढ़ गई और हौसले के साथ लड़ने लगे। दोतरफी चोट महाराज शिवदत्त की फौज सम्हाल न पाई और भाग चली। फिर तो कुमार की बन पड़ी, दो कोस तक पीछा किया, आखिर फतह का डंका बजाते अपने पड़ाव पर आए। मगर हैरान थे कि ये नकाबपोश सवार कौन थे जिन्होंने बड़े वक्त पर हमारी मदद की और फिर जिधर से आये थे उधर ही चले गये। कोई किसी की जरा मदद करता है तो अहसान जताने लगता है मगर इन्होंने हमारा सामना भी नहीं किया, यह बड़ी बहादुरी का काम है। बहुत सोचा मगर कुछ समझ न पड़ा।

महाराज शिवदत्त का बिल्कुल माल-खजाना और खेमा वगैरह कुमार के हाथ लगा। जब कुमार निश्चित हुए उन्होंने देवीसिंह से पूछा, “क्या तुम कुछ बता सकते हो कि वे नकाबपोश कौन थे जिन्होंने हमारी मदद की?” देवीसिंह ने कहा, “मेरे कुछ भी ख्याल में नहीं आता, मगर वाह! बहादुरी इसको कहते हैं!!”इतने में एक जासूस ने आकर खबर दी कि दुश्मन थोड़ी दूर जाकर अटक गये हैं और फिर लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं।

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