मातृ-प्रेम, तुझे धन्य है ! संसार में और जो कुछ है, मिथ्या है, निस्सार है। मातृ-प्रेम ही सत्य है, अक्षय है, अनश्वर है। तीन दिन से सुखिया के मुँह में न अन्न का एक दाना गया था, न पानी की एक बूँद। सामने पुआल पर माता का नन्हा-सा लाल पड़ा कराह रहा था। आज तीन दिन से उसने आँखें न खोली थीं। कभी उसे गोद में उठा लेती, कभी पुआल पर सुला देती। हँसते-खेलते बालक को अचानक क्या हो गया, यह कोई नहीं बताता। ऐसी दशा में माता को भूख और प्यास कहाँ ? एक बार पानी का एक घूँट मुँह में लिया था, पर कंठ के नीचे न ले जा सकी। इस दुखिया कि विपत्ति का वारपार न था।

साल भर के भीतर दो बालक गंगा जी की गोद में सौंप चुकी थी। पतिदेव पहिले ही सिधार चुके थे। अब उस अभागिनी के जीवन का आधार, अवलम्ब, जो कुछ था, यही बालक था। हाय ! क्या ईश्वर इसे भी उसकी गोद से छीन लेना चाहते हैं ?- यह कल्पना करते ही माता की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगते थे। इस बालक को वह क्षण भर के लिए भी अकेला न छोड़ती थी। उसे साथ लेकर घास छीलने जाती। घास बेचने बाजार जाती तो बालक गोद में होता।

उसके लिए उसने नन्हीं-सी खुरपी और नन्हीं-सी खाँची बनवा दी थी। जियावन माता के साथ घास छीलता और गर्व से कहता-अम्माँ, हमें भी बड़ी-सी खुरपी बनवा दो, हम बहुत-सी घास छीलेंगे, तुम द्वारे माची पर बैठी रहना, अम्माँ; मैं घास बेंच लाऊँगा। माँ पूछती-हमारे लिए क्या-क्या लाओगे, बेटा ? जियावन लाल-लाल साड़ियों का वादा करता। अपने लिए बहुत-सा गुड़ लाना चाहता था। वे ही भोली-भाली बातें इस समय याद आ-आकर माता के हृदय को शूल के समान बेध रही थीं। जो बालक को देखता, यही कहता कि किसी की डीठ है;
इस विधवा का भी संसार में कोई बैरी है ? अगर उसका नाम मालूम हो जाता, तो सुखिया जाकर उसके चरणों पर गिर पड़ती और बालक को उसकी गोद में रख देती। क्या उसका हृदय दया से न पिघल जाता ? पर नाम कोई नहीं बताता। हाय ! किससे पूछे, क्या करें ?

2


तीन पहर रात बीत चुकी थी। सुखिया का चिंता-व्यथिक चंचल मन कोठे-कोठे दौड़ रहा था। किस देवी की शरण जाय, किस देवता की मनौती करे, इस सोच में पड़े-पड़े उसे एक झपकी आ गयी। क्या देखती है कि उसका स्वामी आकर बालक के सिरहाने खड़ा हो जाता है और बालक के सिर पर हाथ फेरकर कहता है-रो मत, सुखिया ! तेरा बालक अच्छा हो जायेगा। कल ठाकुर जी की पूजा कर दे, वही तेरे सहायक होंगे। यह कहकर वह चला गया।
सुखिया की आँख खुल गयी अवश्य ही उसके पतिदेव आये थे। इसमें सुखिया को जरा भी संदेह न हुआ। उन्हें अब भी मेरी सुधि है, यह सोच कर उसका हृदय आशा से परिप्लावित हो उठा। पति के प्रति श्रद्धा और प्रेम से उसकी आँखें सजल हो गयीं। उसने बालक को गोद में उठा लिया और आकाश की ओर ताकती हुई बोली-भगवान् ! मेरा बालक अच्छा हो जाए तो मैं तुम्हारी पूजा करूँगी। अनाथ विधवा पर दया करो।

उसी समय जियावन की आँखे खुल गयीं। उसने पानी माँगा। माता ने दौड़ कर कटोरे में पानी लिया और बच्चे को पिला दिया।
जियावन ने पानी पीकर कहा-अम्मा रात है कि दिन ? सुखिया-अभी तो रात है बेटा, तुम्हारा जी कैसा है ?
जियावन-अच्छा है अम्माँ ! अब मैं अच्छा हो गया।
सुखिया-तुम्हारे मुँह में घी-शक्कर, बेटा, भगवान् करे तुम जल्द अच्छे हो जाओ। कुछ खाने को जी चाहता है ?
जियावन-हाँ अम्माँ थोड़ा-सा गुड़ दे दो।

सुखिया-गुड़ मत खाओ भैया, अवगुन करेगा। कहो तो खिचड़ी बना दूँ।
जियावन-नहीं मेरी अम्माँ, जरा सा गुड़ दे दो, तेरे पैरों पड़ूँ।

माता इस आग्रह को न टाल सकी। उसने थोड़ा-सा गुड़ निकाल कर जियावन के हाथ में रख दिया और हाँड़ी का ढक्कन लगाने जा रही थी कि किसी ने बाहर से आवाज दी। हाँड़ी वहीं छोड़ कर वह किवाड़ खोलने चली गयी। जियावन ने गुड़ की दो पिंडियाँ निकाल लीं और जल्दी-जल्दी चट कर गया।

3


दिन भर जियावन की तबीयत अच्छी रही। उसने थोड़ी सी खिचड़ी खायी, दो-एक बार धीरे-धीरे द्वार पर भी आया और हमजोलियों के साथ खेल न सकने पर भी उन्हें खेलते देखकर उसका जी बहल गया। सुखिया ने समझा, बच्चा अच्छा हो गया। दो-एक दिन में जब पैसे हाथ में आ जायेंगे, तो वह एक दिन ठाकुर जी की पूजा करने चली जाएगी। जाड़े के दिन झाड़ू-बहारू, नहाने-धोने और खाने-पीने में कट गये; मगर जब संध्या के समय फिर जियावन का जी भारी हो गया, तब सुखिया घबरा उठी। परंतु मन में शंका उत्पन्न हुई कि पूजा में विलम्ब करने से ही बालक फिर मुरझा गया है। अभी

थोड़ा-सा दिन बाकी था। बच्चे को लेटा कर वह पूजा का सामान तैयार करने लगी। फूल तो जमींदार के बगीचे में मिल गये। तुलसीदल द्वार पर था, पर ठाकुर जी के भोग के लिए कुछ मिष्ठान तो चाहिए। सारा गाँव छान आई कहीं पैसे उधार न मिले। अब वह हतास हो गयी। हाय रे अदिन ! कोई चार आने पैसे भी नहीं देता। आखिर उसने अपने हाथों के चाँदी के कड़े उतारे और दौड़ी हुई बनिये कि दुकान पर गयी, कड़े गिरों रखे,

बतासे लिए और दौड़ी हुई घर आयी। पूजा का सामान तैयार हो गया, तो उसने बालक को गोद में उठाया और दूसरे हाथ में पूजा की थाली लिये मंदिर की ओर चली।
मन्दिर में आरती का घंटा बज रहा था। दस-पाँच भक्तजन खड़े स्तुति कर रहे थे। इतने में सुखिया जाकर मन्दिर के सामने खड़ी हो गयी।
पुजारी ने पूछा क्या है रे ? क्या करने आयी है ?
सुखिया चबूतरे पर आकर बोली-ठाकुर जी की मनौती की थी महाराज पूजा करने आयी हूँ।
पुजारी जी दिन भर जमींदार के असामियों की पूजा किया करते थे और शाम –सबेरे ठाकुर जी की। रात को मन्दिर ही में सोते थे, मन्दिर ही में आपका भोजन भी बनता था, जिससे ठाकुरद्वारे की सारी अस्तरकारी काली पड़ गयी थी। स्वभाव के बड़े दयालु थे, निष्ठावान इतने थे कि चाहे कितनी ही ठंड पड़े कितनी ही ठंडी हवा चले, बिना स्नान किये मुँह में पानी तक न डालते थे। अगर इस पर भी उनके हाथों और पैरों में मैल की मोटी तह जमी हुई थी, तो इसमें उनका कोई दोष न था ! बोले-तो क्या भीतर चली आयेगी। हो तो चुकी पूजा। यहा आकर भरभ्रष्ट करेगी।
एक भक्तजन ने कहा-ठाकुर जी को पवित्र करने आयी है ?

सुखिया ने बड़ी दीनता से कहा-ठाकुर जी के चरन छूने आयी हूँ सरकार ! पूजा की सब सामग्री लाई हूँ।
पुजारी-कैसी बेसमझी की बात करती है रे, कुछ पगली तो नहीं हो गयी है। भला तू ठाकुर जी को कैसे छुएगी ?
सुखिया को अब तक कभी ठाकुरद्वारे में आने का मौका न मिला था। आश्चर्य से बोली-सरकार वह तो संसार के मालिक हैं। उनके दरसन से तो पापी भी तर जाता है, मेरे छूने से उन्हें कैसे छूत लग जायेगी ?
पुजारी- अरे तू चमारिन है कि नहीं रे ?
सुखिया-तो क्या भगवान ने चमारों को नहीं सिरजा है ? चमारों का भगवान और कोई है ? इस बच्चे की मनौती है सरकार !
इस पर वही भक्त महोदय, जो अब स्तुति समाप्त कर चुके थे, डपटकर बोले-मार के भगा दो चुड़ैल को। भरभ्रष्ट करने आयी है, फेंक दो थाली-वाली। संसार में तो आप ही आग लगी हुई है, चमार भी ठाकुर जी की पूजा करने लगेंगे, तो पिरथी रहेगी कि रसातल को चली जाएगी।
दूसरे भक्त महाशय बोले-अब बेचारे ठाकुर जी को चमारों के हाथ का भोजन करना पड़ेगा। अब परलय होने में कुछ कसर नहीं है।
ठंड पड़ रही थी, सुखिया खडीं काँप रही थी और यहाँ धर्म के ठेकेदार लोग समय की गति पर आलोचनाएँ कर रहे थे। बच्चा मारे ठंड के उसकी छाती में घुसा जाता था, किन्तु सुखिया वहाँ से हटने का नाम न लेती थी। ऐसा मालूम होता था कि उसके दोनों पाँव भूमि में गड़े हैं। रह-रहकर उसके हृदय में ऐसा उदगार उठता था
कि जाकर ठाकुर जी के चरणों पर गिर पड़े। ठाकुर जी क्या इन्हीं के हैं, हम गरीबों का उनसे कोई नाता नहीं है, ये लोग होते है कौन रोकने वाले पर यह भय होता था कि इन लोगों ने कहीं सचमुच थाली-वाली फेंक दी तो क्या करूँगी ? दिल में ऐंठ कर जाती थी। सहसा उसे एक बात सूझी वह वहाँ से कुछ दूर जाकर एक वृक्ष के नीचे अँधेरे में छिप कर इन भक्तजनों के जाने की राह देखने लगी।

4


आरती की स्तुति के पश्चात भक्त जन बड़ी देर तक श्रीमद्भागवत का पाठ करते रहे। उधर पुजारी जी ने चूल्हा जलाया और खाना पकाने लगे। चूल्हे के सामने बैठे हुए ‘हूँ-हूँ’ करते जाते थे और बीच-बीच में टिप्पणियाँ भी करते जाते थे। दस बजे रात तक कथा वार्ता होती रही और सुखिया वृक्ष के नीचे ध्यानावस्था में खड़ी रही।
सारे भक्त लोगों ने एक-एक करके घर की राह ली। पुजारी जी अकेले रह गये। अब सुखिया आकर मन्दिर के बरामदे के सामने खड़ी हो गयी, जहाँ पुजारी जी आसन जमाये बटलोई का क्षुधावर्द्घव मधुर संगीत सुनने में मग्न थे। पुजारी जी ने आहट पाकर गरदन उठायी तो सुखिया को खड़ी देखकर बोले क्यों रे, तू अभी तक खड़ी है !
सुखिया ने थाली जमीन पर रख दी और एक हाथ फैलाकर भिक्षा प्रार्थना करती हुई बोली महाराज जी, मैं अभागिनी हूँ। यही बालक मेरे जीवन का अलम है, मुझ पर दया करो। तीन दिन से इसने सिर नहीं उठाया। तुम्हें बड़ा जस होगा, महाराज जी !
यह कहते-कहते सुखिया रोने लगी। पुजारी जी दयालु तो थे, पर चमारिन को ठाकुर जी के समीप जाने देने का अश्रुतपूर्व घोर पातक वह कैसे कर सकते थे ? न जाने ठाकुर जी इसका क्या दंड दें । आखिर उनके भी बाल-बच्चे थे। कहीं ठाकुर जी कुपित होकर गाँव का सर्वनाश कर दें तो ? बोले-घर जाकर भगवान् का नाम ले, तो बालक अच्छा हो जाएगा। मैं यह तुलसी दल देता हूँ, बच्चे को खिला दे, चरणामृत उसकी आँखों में लगा दे। भगवान् चाहेंगे तो सब अच्छा ही होगा।

सुखिया-ठाकुर जी के चरणों पर गिरने न दोगे महाराज जी ? बड़ी दुखिया हूँ, उधार काढ़कर पूजा की सामग्री जुटायी है। मैंने कल सपना देखा था, महाराज जी कि ठाकुर जी की पूजा कर, तेरा बालक अच्छा हो जायेगा। तभी आई हूँ। मेरे पास एक रुपया है। वह मुझसे ले लो पर मुझे एक छन भर ठाकुर जी के चरनों पर गिर लेने दो।

इस प्रलोभन से पंडित जी को एक क्षण के लिए विचलित कर दिया किंतु मूर्खता के कारण ईश्वर का भय उनके मन में कुछ-कुछ बाकी था। सँभाल कर बोले-अरी पगली, ठाकुर जी भक्तों के मन का भाव देखते हैं कि चरण पर गिरना देखते है। सुना नहीं है- ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’ मन में भक्ति न हो, तो लाख कोई भगवान् के चरणों पर गिरे, कुछ न होगा। मेरे पास एक जंतर है। दाम तो उसका बहुत है पर तुझे एक ही रुपये में दे दूँगा। उसे बच्चे के गले में बाँध देना, बस, कल बच्चा खेलने लगेगा।
सुखिया-ठाकुर जी की पूजा न करने दोगे ?
पुजारी-तेरे लिए इतनी ही पूजा बहुत है। जो बात कभी नहीं हुई, वह आज मैं कर दूँ और गाँव पर कोई आफत-विपत आ पड़े तो क्या हो, इसे भी तो सोचो ! तू यह जंतर ले जा, भगवान् चाहेंगे तो रात ही भर में बच्चे का क्लेश कट जायेगा। किसी की दीठ पड़ गयी है। है भी तो चोंचाल। मालूम होता है, छत्तरी बंस है।
सुखिया-जब से इसे ज्वर है मेरे प्राण नहों में समाये हुए हैं।
पुजारी-बड़ा होनहार बालक है। भगवान् जिला दें तो तेरे सारे संकट हर लेगा। हाँ तो बहुत खेलने आया करता था। इधर दो-तीन दिन से नहीं देखा था।
सुखिया-तो जंतर को कैसे बाँधूँगी महाराज ?
पुजारी-मैं कपड़े में बाँधकर देता हूँ। बस, गले में पहना देना अब तू इस बेला नवीन बस्तर कहाँ खोजने जायेगी।
सुखिया ने दो रुपये पर कड़े गिरो रखे थे। एक पहले ही भँजा चुकी थी। दूसरा पुजारी जी को भेंट किया और जंतर लेकर मन को समझाती हुई घर लौट आयी।

5


सुखिया ने घर पहुँचकर बालक को जंतर बाँध दिया ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी उसका ज्वर भी बढ़ता जाता था, यहाँ तक कि तीन बजते–बजते उसके हाथ पाँव शीतल होने लगे। तब वह घबड़ा उठी और सोचने लगी-हाय। अगर मैं अन्दर चली जाती और भगवान् के चरणों में गिर पड़ती तो कोई मेरा क्या कर लेता ? यही न होता कि लोग मुझे धक्के देकर निकाल देते, शायद मारते भी, पर मेरा मनोरथ तो पूरा हो जाता यदि मैं ठाकुर जी के चरणों को अपने आँसुओं से भिगो देती और

बच्चे को उनके चरणों में सुला देती तो क्या उन्हें दया न आती ? वह तो दयामय भगवान हैं, दीनों की रक्षा करते हैं, क्या मुझ पर दया न करते ? यह सोचकर सुखिया का मन अधीर हो उठा। नहीं, अब विलम्ब करने का समय न था। वह अवश्य जायेगी और ठाकुर जी के चरणों पर गिर कर रोएगी। उस अबला के आशंकित हृदय को अब उसके सिवा और कोई अवलम्ब, कोई आसरा न था। मंदिर के द्वार बंद होंगे, तो वह ताले तोड़ डालेगी। ठाकुर जी क्या किसी के हाथों बिक गये हैं कि उन्हें बंद कर रखे।
रात के तीन बज गये थे। सुखिया ने बालक को कम्बल से ढाँक कर गोद में उठाया, एक हाथ में थाली उठायी और मंदिर की ओर चली। घर से बाहर निकलते ही शीतल वायु के झोंकों से उसका कलेजा काँपने लगा। शीत से पाँव शिथिल हुए जाते थे। उस पर चारों ओर अंधकार छाया हुआ था। रास्ता दो फर्लांग से कम न था। पगडंडी वृक्षों के नीचे-नीचे गयी थी। कुछ दूर दाहिनी ओर एक पोखरा था, कुछ दूर बाँस की कोठियाँ में चुडैलों का अड्डा था। बायीं ओर हरे-भरे खेत थे। चारों ओर सन-सन हो रहा था, अंधकार साँय-साँय कर रहा था।
सहसा गीदड़ों के कर्कश स्वर से हुआँ-हुआँ करना शुरू किया। हाय ! अगर कोई उसे एक लाख रुपया देता तो भी इस समय यहाँ न आती; पर बालक की ममता सारी शंकाओं को दबाये हुए थी। ‘हे भगवान् अब तुम्हारा ही आसरा है !’ यह जपती वह मंदिर की ओर चली जा रही थी।
मंदिर के द्वार पर पहुँचकर सुखिया ने जंजीर टटोल कर देखी। ताला पड़ा हुआ था। पुजारी जी बरामदे से मिली कोठरी में किवाड़ बन्द किये सो रहे थे। चारों ओर अँधेरा छाया हुआ था। सुखिया चबूतरे के नीचे से एक ईंट उठा लाई और जोर-जोर से ताले के ऊपर पटकने लगी। उसके हाथों में न जाने इतनी शक्ति कहाँ से आ गयी थी।

दो ही तीन चोटों में ताला और ईंट दोनों टूटकर चौखट पर गिर पड़े। सुखिया ने द्वार खोल अन्दर जाना ही चाहती थी कि पुजारी किवाड़ खोलकर हड़बड़ाये हुए बाहर निकल आये और ‘चोर, चोर !’ का गुल मचाते हुए गाँव की ओर दौड़े। जाड़ों में प्रायः पहर रात रहे ही लोगों की नींद खुल जाती है। यह शोर सुनते ही कई आदमी इधर-उधर से लालटेनें लिए हुए निकल पड़े और पूछने लगे-कहाँ है ? किधर गया ?
पुजारी-मंदिर का द्वार खुला पड़ा है। मैंने खट-खट की आवाज सुनी। सहसा सुखिया बरामदे से निकल कर चबूतरे पर आयी और बोली-चोर नहीं है मैं हूँ; ठाकुर जी की पूजा करने आयी थी। अभी तो अंदर गयी भी नहीं। मार हल्ला मचा दिया।
पुजारी ने कहा-अब अनर्थ हो गया ! सुखिया मंदिर में जाकर ठाकुर जी को भ्रष्ट कर आयी !

फिर क्या था, कई आदमी झल्लाये हुए लपके और सुखिया पर लातों और घूसों की मार पड़ने लगी। सुखिया एक हाथ में बच्चे को पक़ड़े हुए थी और दूसरे हाथ से उसकी रक्षा कर रही थी। एकाएक बलिष्ट ठाकुर ने उसे इतनी जोर से धक्का दिया कि बालक उसके हाथों से छूट कर जमीन पर गिर पड़ा, मगर वह न रोया न बोला, न साँस ली, सुखिया भी गिर पड़ी थी। सँभल कर बच्चे को उठाने लगी, तो उसके मुँख पर नजर पड़ी। ऐसा जान पड़ा मानों पानी में परछाई हो। उसके मुँह से एक चीख निकल पड़ी। बच्चे का माथा छूकर देखा। सारी देह ठंडी हो गयी थी।

एक लम्बी साँस खींचकर वह उठ खड़ी हुई। उसकी आँखों में आँसू न आये। उसका मुँख क्रोध की ज्वाला में तमतमा उठा, आँखों के अंगारे बरसने लगे। दोनों मुट्ठियाँ बँध गयी। दाँत पीसकर बोली-पापियों, मेरे बच्चे के प्राण लेकर क्यों दूर खडे़ हो ? मुझे भी क्यों नहीं उसी के साथ मार डालते ? मेरे छू लेने से ठाकुर जी को छूत लग गयी ? पारस को छूकर लोहा सोना हो जाता है, पारस लोहा नहीं हो सकता। मेरे छूने से ठाकुर जी अपवित्र हो जाएँगे।

मुझे बनाया, तो छूत नहीं लगी ? लो अब कभी ठाकुर जी को छूने नहीं आऊँगी। ताले में बन्द रखो पहरे बैठा दो। हाय, तुम्हें दया छू भी नहीं गयी। तुम इतने कठोर हो ! बाल –बच्चे वाले होकर भी तुम्हें एक अभागिन माता पर दया न आयी ! तिस पर धरम के ठेकेदार बनते हो ! तुम सब के सब हत्यारे हो। डरो मत मैं थाना-पुलिस नहीं जाऊँगी। मेरा न्याय भगवान् करेंगे, अब उन्हीं के दरबार में फरियाद करूँगी। किसी ने चू न की, कोई मिनमिनाया तक नहीं। पाषाण मूर्तियों की भाँति सब सिर झुकाए खड़े रहे।
इतनी देर में सारा गाँव जमा हो गया था। सुखिया ने एक बार फिर बालक के मुँह की ओर देखा। मुँह से निकला-हाय मेरे लाल ! फिर वह मूर्क्षित होकर गिर पड़ी। प्राण निकले गये। बच्चे के प्राण दे दिये।
माता, तू धन्य है। तुझ-जैसी श्रद्धा, तुझ जैसा विश्वास देवताओं को भी दुर्लभ है !
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