अपनी स्त्री की सूरत देखकर जितना ताज्जुब भूतनाथ को हुआ उतना ही आचश्चर्य देवीसिंह को भी हुआ। यह विचार कर रंज-गम और गुस्से से देवीसिंह का सिर घूमने लगा कि इसी तरह मेरी स्त्री भी अवश्य नकाबपोशों के यहां होगी और हम लोगों को उसकी सूरत देखने में किसी तरह का भ्रम नहीं हुआ। यदि सोचा जाय कि जिन दोनों औरतों को हम लोगों ने देखा था वे वास्तव में हम लोगों की औरतें न थीं बल्कि वे औरतों की सूरत में ऐयार थे तो इसका निश्चय भी इसी समय हो सकता है। वह औरत सामने मौजूद ही है, देख लिया जाय कि कोई ऐयार है या वास्तव में भूतनाथ की स्त्री।

उस स्त्री ने भूतनाथ के मुंह से यह सुनकर कि 'यह तो मेरी स्त्री है' - क्रोधभरी आंखों से भूतनाथ की तरफ देखा और कहा, ''एक तो तुमने जबर्दस्ती मेरी नकाब उलट दी, दूसरे बिना कुछ सोचे-विचारे आवारा लोगों की तरह यह कह दिया कि 'यह मेरी स्त्री है'। क्या सभ्यता इसी को कहते हैं (देवीसिंह की तरफ देखके) आप ऐसे सज्जन और प्रतापी राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार होकर क्या इस बात को पसन्द करते हैं?'

देवी - अगर तुम भूतनाथ की स्त्री नहीं हो तो मैं जरूर इस बर्ताव को बुरा समझता हूं जो भूतनाथ ने तुम्हारे साथ किया है।

औरत - (भूतनाथ से) क्यों साहब, आपने मेरी ऐसी बेइज्जती क्यों की! अगर मेरा मालिक या कोई वारिस इस समय यहां होता तो अपने दिल में क्या कहता?

भूत - (ताज्जुब से उसका मुंह देखता हुआ) क्या मैं भ्रम में पड़ा हुआ हूं या मेरी आंखें मेरे साथ दगा कर रही हैं?

औरत - सो तो आप ही जानें, क्योंकि दिमाग आपका है और आंखें भी आपकी हैं, हां इतना मुझे अवश्य कहना पड़ेगा कि आप अपनी असभ्यता का परिचय देकर पुरानी बदनामी को चरितार्थ करते हैं। कौन-सी बात आपने मुझमें ऐसी देखी जिससे इतना कहने का साहस आपको हुआ?

भूत - मालूम होता है कि या तो तू कोई ऐयार है और या फिर किसी दूसरे ने तेरी सूरत मेरी स्त्री के ढंग की बना दी है जिसे शायद तूने कभी देखा नहीं।

भूतनाथ ने उस औरत की बातों का जवाब तो दिया मगर वास्तव में वह खुद भी बहुत घबरा गया था। अपनी स्त्री की ढिठाई और चपलता पर उसे तरह-तरह के शक होने लगे और वह बड़ी बेचैनी के साथ सोच रहा था कि अब क्या करना चाहिए कि इसी बीच में उस स्त्री ने भूतनाथ की बात का यों जवाब दिया -

स्त्री - यों आप जिस तरह चाहें सोच-समझकर अपनी तबियत खुश कर लें मगर इस बात को खूब समझ रक्खें कि मैं भी लावारिस नहीं हूं और आप अगर मेरे साथ कोई बेअदबी का बर्ताव करेंगे तो उसका बदला भी अवश्य पावेंगे, साथ ही इस बात को भी अवश्य समझ लें कि आपके इस कहने पर कि तू कोई ऐयार है आपके सामने अपना चेहरा धोने की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर सकती।

भूत - मगर अफसोस है कि मैं बिना जांच किए तुम्हें छोड़ भी नहीं सकता।

स्त्री - (देवीसिंह की तरफ देखके) बहादुरी तो तब थी जब आप लोग किसी मर्द के साथ इस ढिठाई का बर्ताव करते। एक कमजोर औरत को इस तरह मजबूर करके फजीहत करना ऐयारों और बहादुरों का काम नहीं है। हाय, इस जगह अगर मेरा कोई होता तो यह दुःख न भोगना पड़ता! (यह कहकर आंसू बहाने लगी)

उस औरत की बातचीत कुछ ऐसे ढंग की थी कि सुनने वालों को उस पर दया आ सकती थी और यही मालूम होता था कि यह जो कुछ कह रही है उसमें झूठ का लेश नहीं है, यहां तक कि स्वयं भूतनाथ को भी उसकी बातों पर सहम जाना पड़ा और वह ताज्जुब के साथ उस औरत का मुंह देखने लगा, खास करके इस खयाल से भी कि देखें आंसू बहने के सबब से उसके चेहरे पर रंग कुछ बदलता है या नहीं। उधर देवीसिंह तो उसकी बातों से बहुत ही हैरान हो गये और उनके जी में रह-रहके यह बात पैदा होने लगी कि जरूर भूतनाथ इसके पहिचानने में धोखा खा गया और वास्तव में यह भूतनाथ की स्त्री नहीं है। अक्सर लोगों ने एक ही रंग-रूप के दो आदमी देखे हैं, ताज्जुब नहीं कि यहां भी वैसा ही कुछ मामला आ पड़ा हो।

देवी - (स्त्री से) तो तू इस भूतनाथ की स्त्री नहीं है?

स्त्री - जी नहीं।

देवी - आखिर इसका फैसला क्योंकर हो?

स्त्री - आप लोग जरा तकलीफ करके मेरे घर तक चलें, वहां मेरे बच्चों को देखने और मेरे मालिक से बातचीत करने पर आपको मालूम हो जायगा कि मेरा कहना सच है या झूठ।

देवी - (औरत की बात पसन्द करके) तुम्हारा घर यहां से कितनी दूर है

स्त्री - (हाथ का इशारा करके) इसी तरफ है, यहां से थोड़ी दूर पर इन घने पेड़ों के पार होते ही आपको वह झोंपड़ी दिखाई देगी जिसमें आजकल हम लोग रहते हैं।

देवी - क्या तुम झोंपड़ी में रहती हो मगर तुम्हारी सूरत-शक्ल किसी झोंपड़ी में रहने योग्य नहीं है।

स्त्री - जी मेरे दो लड़के बीमार हैं, उनकी तन्दुरुस्ती का खयाल करके हवा-पानी बदलने की नीयत से आजकल हम लोग यहां आ टिके हैं। (हाथ जोड़कर) आप कृपा कर शीघ्र उठिये और मेरे डेरे पर चलकर इस बखेड़े को तै कीजिए, विलम्ब होने से मैं मुफ्त में सताई जाऊंगी।

देवी - (भूतनाथ से) क्या हर्ज है अगर इसके डेरे पर चलकर शक मिटा लिया जाय?

भूत - जो कुछ आपकी राय हो मैं करने को तैयार हूं, मगर यह तो मुझे अजीब ढंग से अन्धा बना रही है।

देवी - अच्छा फिर उठो, अब देर करना उचित नहीं!

उस औरत की अनूठी बातचीत ने इन दोनों को इस बात पर मजबूर किया कि उसके साथ-साथ डेरे तक या जहां वह ले जाय चुपचाप चले जायं और देखें कि जो कुछ वह कहती है कहां तक सच है। और आखिर ऐसा ही हुआ।

इशारा पाते ही औरत उठ खड़ी हुई। देवीसिंह और भूतनाथ उसके पीछे-पीछे रवाना हुए। उस औरत को घोड़े पर सवार होने की आज्ञा न मिली इसलिए वह घोड़े की लगाम थामे हुए धीरे-धीरे इन दोनों के साथ चली।

लगभग आध कोस के गए होंगे कि दूर से एक छोटा-सा कच्चा मकान दिखाई पड़ा जिसे एक तौर पर झोंपड़ी कहना उचित है। इस मकान के ऊपर खपड़े की जगह केवल पत्ते ही से छाजन छाया हुआ था।

जब ये लोग झोंपड़ी के दरवाजे पर पहुंचे तब उस औरत ने अपने घोड़े को खूंटे के साथ बांधकर थोड़ी-सी घास उसके आगे डाल दी जो उसी जगह एक पेड़ के नीचे पड़ी हुई थी और जिसे देखने से मालूम होता था कि रोज इसी जगह घोड़ा बंधा करता है। इसके बाद उसने देवीसिंह और भूतनाथ से कहा, ''आप लोग जरा-सा इसी जगह ठहर जायं, मैं अन्दर जाकर आप लोगों के लिए चारपाई ले आती हूं और अपने मालिक तथा लड़कों को भी बुला लाती हूं।''

देवीसिंह और भूतनाथ ने इस बात को कबूल किया और कहा, ''क्या हर्ज है, जाओ मगर जल्दी आना क्योंकि हम लोग ज्यादे देर तक यहां ठहर नहीं सकते।''

वह औरत मकान के अन्दर चली गई और वे दोनों देर तक बाहर खड़े रहकर उसका इन्तजार करते रहे। यहां तक कि घण्टे-भर से ज्यादे बीत गया और वह औरत मकान के बाहर न निकली। आखिर भूतनाथ ने पुकारना और चिल्लाना शुरू किया मगर इसका भी कोई नतीजा न निकला अर्थात् किसी ने भी उसे किसी तरह का जवाब न दिया। तब लाचार होकर वे दोनों मकान के अन्दर घुस गए मगर फिर भी किसी आदमी की यहां तक कि उस औरत की भी सूरत दिखाई न पड़ी। उस छोटी झोंपड़ी में किसी को ढूंढ़ना या पता लगाना कौन कठिन था अस्तु बित्ता-बित्ता भर जमीन देख डाली मगर सिवाय एक सुरंग के और कुछ भी दिखाई न पड़ा। न तो मकान में किसी तरह का असबाब ही था और न चारपाई, बिछावन, कपड़ा-लत्ता या अन्न और बरतन इत्यादि ही दिखाई पड़ा। अस्तु लाचार होकर भूतनाथ ने कहा, ''बस-बस हम लोगों को उल्लू बनाकर वह इसी सुरंग की राह निकल गई!''

बेवकूफ बनाकर इस तरह उस औरत के निकल जाने से दोनों ऐयारों को बड़ा ही अफसोस हुआ। भूतनाथ ने सुरंग के अन्दर घुसकर उस औरत को ढूंढ़ने का इरादा किया। पहिले तो इस बात का खयाल हुआ कि कहीं उस सुरंग में दो-चार आदमी घुसकर बैठे न हों जो हम लोगों पर बेमौके वार करें मगर जब अपने तिलिस्मी खंजर का ध्यान आया तो यह खयाल जाता रहा और बेफिक्री के साथ हाथ में तिलिस्मी खंजर लिये हुए भूतनाथ उस सुरंग के अन्दर घुसा। पीछे-पीछे देवीसिंह ने भी उसके अन्दर पैर रक्खा।

वह सुरंग लगभग पांच सौ कदम के लम्बी होगी। उसका दूसरा सिरा घने जंगल में पेड़ों के झुरमुट के अन्दर निकलता था। देवीसिंह और भूतनाथ भी उसी सुरंग के अन्दर ही अन्दर वहां तक चले गये और इन्हें विश्वास हो गया कि अब उस औरत का पता किसी तरह नहीं लग सकता।

इस समय इन दोनों के दिल की क्या कैफियत थी सो वे ही जानते होंगे, अस्तु लाचार होकर देवीसिंह ने घर लौट चलने का विचार किया मगर भूतनाथ ने इस बात को स्वीकार न करके कहा, ''इस तरह तकलीफ उठाने और बेइज्जत होने पर भी बिना कुछ काम किए घर लौट चलना मेरे खयाल से उचित नहीं है।''

देवी - आखिर फिर किया ही क्या जायगा मुझे इतनी फुरसत नहीं है कि कई दिनों तक बेफिक्री के साथ इन लोगों का पीछा करूं। उधर दरबार की जो कुछ कैफियत है तुम जानते ही हो! ऐसी अवस्था में मालिक की प्रसन्नता का खयाल न करके एक साधारण काम में दूसरी तरफ उलझे रहना मेरे लिए उचित नहीं है।

भूत - आपका कहना ठीक है मगर इस समय मेरी तबियत का क्या हाल है सो भी आप अच्छी तरह समझते होंगे।

देवी - मेरे खयाल से तुम्हारे लिए कोई ज्यादे तरद्दुद की बात नहीं है। इसके अतिरिक्त घर लौट चलने पर मैं अपनी औरत को देखूंगा, अगर वह मिल गई तो तुम भी अपनी स्त्री की तरफ से बेफिक्र हो जाओगे।

भूत - अगर आपकी स्त्री घर पर मिल जाय तो भी मेरे दिल का खुटका न जायगा।

देवी - अपनी स्त्री का हाल - चाल लेने के लिए तुम भी अपने आदमियों को भेज सकते हो।

भूत - यह सब-कुछ ठीक है मगर क्या करूं, इस समय मेरे पेट में अजब तरह की खिचड़ी पक रही है और क्रोध क्षण-क्षण में बढ़ा ही चला आता है।

देवी - अगर ऐसा ही है तो जो कुछ तुम्हें उचित जान पड़े सो करो, मैं अकेला ही घर की तरफ लौट जाऊंगा।

भूत - अगर ऐसा ही कीजिए तो मुझ पर बड़ी कृपा होगी, मगर जब महाराज इस बारे में पूछेंगे तब जवाब...

देवी - (बात काटकर) महाराज की तरफ से तुम बेफिक्र रहो मैं जैसा मुनासिब समझूंगा कह - सुन लूंगा, मगर इस बात का वादा कर जाओ कि कितने दिन पर तुम वापस आओगे या तुम्हारा हाल मुझे कब और क्योंकर मिलेगा?

भूत - मैं आपसे सिर्फ तीन दिन की छुट्टी लेता हूं। अगर इससे ज्यादे दिन तक अटकने की नौबत आई तो किसी-न-किसी तरह अपने हाल-चाल की खबर आप तक पहुंचा दूंगा।

देवी - बहुत अच्छा (मुस्कुराते हुए) अब आप जाइए और पुनः लात खाने का बन्दोबस्त कीजिए, मैं तो घर की तरफ रवाना होता हूं, जय माया की!

भूत - जय माया की!

भूतनाथ को उसी जगह छोड़कर देवीसिंह रवाना हुए और संध्या होने के पहिले ही तिलिस्मी इमारत के पास आ पहुंचे।

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