कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा का त्योहार मनाया जाता है। इस दिन स्त्रियाँ गोबर की मूर्ति बनाकर भगवान की पूजा करती हैं। संध्या समय अन्नादिक का भोग लगाकर दीपदान करती हुई परिक्रमा करती हैं। तत्पश्चात् उस पर गऊ का बास (वाधा) कुदाकर उसके उपले थापती हैं और बाकी को खेत आदि में गिरा देती हैं।

इसी दिन नवीन अन्न का भोजन बनाकर भगवान को भोग भी लगाया जाता है जिसे अन्नकूट कहते हैं।

कथा

प्राचीन काल में दीपावली के दूसरे दिन ब्रजमण्डल में इन्द्र की पूजा हुआ करती थी।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा

“कार्तिक में इन्द्र की पूजा का कोई लाभ नहीं, इसलिए हमें गोवंश की उन्नति के लिए ने पर्वत व वृक्षों की पूजा कर उनकी रक्षा करने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए। पर्वतों और भूमि पर घास पौधे लगाकर वन महोत्सव भी मनाना चाहिए। गोबर की ईश्वर के रूप में हुए उसे जलाना नहीं चाहिए, बल्कि खेतों में डालकर उस पर हल चलाते हुए अन्नोषधि उत्पन्न करनी चाहिए जिससे हमारे देश की उन्नति हो।"

भगवान श्रीकृष्ण का यह उपदेश सुनकर ब्रजवासियों ने ज्यों ही पर्वत, वन और गोवर की पूजा आरम्भ की, इन्द्र ने कुपित होकर सात दिन तक घनघोर वर्षा शुरू कर दी। परन्तु श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठा उंगली पर उठाकर व्रज को बचा लिया।

फलतः इन्द्र को लज्जित होकर सातवें दिन क्षमा याचना पूजा करनी पड़ी।

तभी से समस्त उत्तर भारत में गोवर्धन पूजा प्रचलित हुई। गोवर्धन पूजा करने से खेतों में अधिक अन्न उपजता है, रोग दूर होते हैं और घर में सुख शान्ति रहती है।

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