श्रीमैत्रेयजी बोले - 
भगवान् ! आपने जो कहा कि सूर्यमण्डलमें स्थित सातों गण शीत-ग्रीष्म आदिके कारण होते हैं, सो मैंने सुना ॥१॥
हे गुरो ! आपने सूर्यके रथमेजं स्थित और विष्णु शक्तिसे प्रभावित गन्धर्व, सर्प, राक्षस, ऋषि, बालखिल्यादि , अप्सरा तथा यक्षोंके तो पृथक् पृथक् व्यापार बतलाये किंतु हे मुने ! यह नहीं बतलाया कि सूर्यका कार्य क्या हैं ? ॥२-३॥
यदि सातों गण अही शीत, ग्रीष्म और वर्षाके करनेवालें हैं तो फिर सूर्यका क्या प्रयोजन हैं ? और यह कैसे कहा जाता है कि वृष्टि सूर्यसे होती हैं ? ॥४॥
यदि सातो गुणोंका यह वृष्टि आदि कार्य समान ही हैं तो 'सूर्य उदय हुआ, अब मध्यमें है, अब अस्त होता हैं;' ऐसा लोग क्यों कहते हैं ? ॥५॥]
श्रीपरशरजी बोले - हे मैत्रेय ! जो कुछ तुमने पुछा है उसका उत्तर सुनो, सूर्य सात गणोंमेंसे ही एक हैं तथापि उनमें प्रधान होनेसे उनकी विशेषता हैं ॥६॥
भगवान् विष्णुकी जो सर्वशक्तिमयी ऋक् , यजुः, साम नामकी परा शक्ति है वह वेदत्रयी ही सूर्यको ताप प्रदान करती है और ( उपासना किये जानेपर ) संसारके समस्त पापोंको नष्ट कर देती है ॥७॥
हे द्विज ! जगत्‌की स्थिति और पालनके लिये वे ऋक्, यजुः, और सामरूप विष्णु सूर्यके भीतर निवास करते हैं ॥८॥
प्रत्येक मासमें जो-जो सूर्य होता हैं उसी-उसीमें वह वेदत्रयीरूपिणी विष्णुकी परा शक्ति निवास करती हैं ॥९॥
पूर्वह्णमें ऋक्, मध्याह्णमें, बृहद्रथन्तरादि यजुः तथा सायंकालमें सामश्रुतियाँ सूर्यकी स्तुति करती हैं * ॥१०॥
यह ऋक् - यजुः- सामस्वरूपिणी वेदत्रयी भगवान् विष्णुका ही अंग हैं । यह विष्णु-शक्ति सर्वदा आदित्यमें रहती है ॥११॥
यह त्रयीमयो वैष्णवी शक्ति केवल सूर्यहीकी अधिष्ठात्री हो , सो नहीं; बल्कि ब्रह्मा, विष्णु और महादेव भी त्रयीमय ही हैं ॥१२॥
सर्गके आदिमें ब्रह्मा ऋंड्‌मय है, उसकी स्थितिके समय विष्णु यजुर्मय हैं तथा अन्तकालमें रुद्र साममय हैं । इसीलिये सामगानकी ध्वनि अपवित्र ** मानी गयी हैं ॥१३॥
इस प्रकार, वह त्रयीमयी सात्विकी वैष्णवी शक्ति अपने सप्तगणोंमें स्थित आदित्यमें ही ( अतिशयरुपसे ) अवस्थित होती हैं ॥१४॥
उससे अधिष्ठित सूयदेव भी अपनी प्रखर रश्मियोंसे अत्यन्त प्रज्वलित होकर संसारके सम्पूर्ण अन्धकारको नष्ट कर देते हैं ॥१५॥
उन सूयदेवकी मुनिगण स्तुति करके हैं, गन्धर्वगण उनके सम्मुख यशोगान करते हैं । अप्सराएँ नृत्य करती हुई चलती हैं, राक्षस रथके पीछे रहते हैं, सर्पगण रथका साज सजाते हैं और यक्ष घोड़ोकी बागडोर सँभालते हैं तथा बालखिल्यादि रथको सब ओरसे घेरे रहते हैं ॥१६-१७॥
त्रयीशक्तिरूप भगवान् विष्णुका न कभी उदय होता हिअं और न अस्त ( अर्थात वे स्थायीरूपसे सदा विद्यामान रहते हैं ) ये सात प्रकारके गण तो उनसे पृथक् हैं ॥१८॥
स्तम्भमें लगे हुए दर्पणके निकट जो कोई जाता हैं उसीको अपनी छाया दिखायी देने लगतीं है ॥१९॥
हे द्विज ! इसी प्रकार वह वैष्णवी शक्ति सूर्यके रथसे कबी चलायमान नहीं होती और प्रत्येक मासमें पृथक् पृथक् सूर्यके ( परिवर्तित होकर ) उसमें स्थित होनेपर वह उसकी अधिष्ठात्री होती है ॥२०॥
हे द्विज ! दिन और रात्रिके कारणस्वरूप भगवान् सूर्य पितृगण, देवगण और मनुष्यादिको सदा तृप्त करते घूमते रहते हैं ॥२१॥
सूर्यकी जो सुषुम्ना नामकी किरण है उससे शुक्रपक्षमें चन्द्रमाका पोषण होता है और फिर कृष्णपक्षमें उस अमृतमय चन्द्रमाकी एक-एक कलाका देवगण निरन्तर पान करते हैं ॥२२॥
हे द्विज ! कृष्णपक्षके क्षय होनेपर ( चतुर्दशीके अनन्तर ) दो कलायुक्त चन्द्रमाका पितृगण पान करते हैं । इस प्रकार सूर्यद्वारा पितृगणका तर्पण होता हैं ॥२३॥
सूर्य अपनी किरणोसें पृथिवीसे जितना जल खींचता हैं उस सबको प्राणियोंकी पुष्टि और अन्नकी वृद्धिके लिये बरसा देता हैं ॥२४॥
उससे भगवान् सूर्य समस्त प्राणियोंको आनन्दित कर देते हैं और इस प्रकार वे देव, मनुष्य और पितृगण आदि सभीका पोषणज करते हैं ॥२५॥
हे मैत्रेय ! इस रीतसे सूर्यदेव देवता ओंकी पाक्षिक, पितृगणकी मासिक तथा मनुष्योंकी नित्यप्रति तृप्ति करते रहते हैं ॥२६॥
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे एकादशोऽध्यायः ॥११॥
* इस विषयमें यह श्रुति भी है - 'ऋचुः पूर्वाह्णे दिवि देव ईयते यजुर्वेद तिष्ठति मध्ये अह्नः सामवेदेनास्तमये महीयते ।'
** रुद्रके नाशकारी होनेसे उनका साम अपवित्र माना गया है अतः सामगानके समय ( रातमें ) ऋक् तथा यजुर्वेदके अध्ययनक निषेध किया गया हैं । इसमें गौतमकी स्मृति प्रणाम है - ' न सामध्वनावृम्यजुषी' अर्थात सामगानके समय ऋक् - यजुःका अध्ययन न करे ।
 

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